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October 1991

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य एताँ वेद गायत्री पुण्याँ सर्व गुणन्विताम्। तत्वेन भातर श्रेष्ठ! स लोक न प्रणाश्यति ॥

-महाभारत

“जो इस पवित्र सर्वगुण सम्पन्न गायत्री तत्व को जानता है, उसकी इस लोक में अवनति नहीं होती।”

यदि उसे वैसा सुयोग न मिला होता अथवा उसने वैसा साहस न जुटाया होता तो वह अपनी पतली कमर के कारण मात्र जमीन पर फैल सकती थी पर ऊपर नहीं चढ़ सकती थी। पोले बाँस का निरर्थक समझा जाने वाला टुकड़ा जब वादक के हाथों से तादत्म्य स्थापित करता है तो बाँसुरीवादन का ऐसा आनन्द आता है, जिसे सुनकर साँप लहराने और हिरन मंत्र मुग्ध होने लगते हैं। पतले कागज के टुकड़े से बनी पतंग आकाश में दौड़ती दिखाई देती है क्योंकि उसकी डोर का सिरा किसी उड़ाने वाले के हाथ में रहता है। यह संबंध शिथिल पड़ने पर या डोर टूटने पर सारा खेल खत्म हो जाता है और पतंग जमीन पर आ गिरती है। यह उदाहरण बताते हैं कि यदि आत्मा को परमात्मा के साथ सघनतापूर्वक जुड़ जाने का अवसर मिल सके तो उसकी स्थिति सामान्य नहीं रहती। ऐसे मानव देखते-देखते कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। जिन जिनने भी अपने अन्तराल को निकृष्टता से विरत करके ईश्वरीय महानता के साथ जोड़ा है, वे कुछ से कुछ बन गए।

सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर के शरणागत होकर उनकी उपासना का अवलम्बन लेना पड़ा है। आत्म समर्पण का साहस जुटाना पड़ता है। पत्नी पति को आत्म समर्पण करती है अर्थात् उसकी मर्जी पर चलने के लिए अपनी मनोभूमि एवं क्रिया पद्धति को मोड़ती चली जाती है व उसी अनुपात में वह पति के मानव वैभव की वंश, गोत्र, यश की उत्तराधिकारिणी ही नहीं, अर्द्धांगिनी भी बन जाती है। भक्त जब भगवान के अनुरूप बनता चला जाता है तो अन्ततः नर-नारायण की एकरूपता का स्वयं प्रमाण बनता है। दादू, मीरा, रैदास, कबीर, शबरी, तुलसी, नामदेव, रामकृष्ण एवं हनुमान ये सभी उदाहरण हैं भक्त के निष्काम समर्पण के, परमात्मसत्ता के प्रति। इन सभी ने सही अर्थों में उपासना की तो देवात्मा बन गए व परमात्मा स्तर की क्षमताएँ उनमें आ गयीं। इन्हीं को तो ऋद्धि-सिद्धियाँ कहते हैं।

आस्तिकता की भावना को परिपुष्ट करने के लिए दैवी अनुदानों से जीवसत्ता को समर्थ समुन्नत बनाने के लिए हर धार्मिक व्यक्ति को निजी जीवन में उपासना क्रम को सम्मिलित रखना चाहिए। उपासना किनकी व किस पद्धति से की जाय, इस पर मतभेद से तो विग्रह बढ़ेंगे व संकट उठ खड़े होंगे। अगला युग एकता का है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को बनाए रखने के लिए विश्व की सभी प्रचलित उपासनाओं के सारतत्व जो बीज रूप में गायत्री मंत्र के रूप में विद्यमान हैं, को ही अंगीकार किया जाना चाहिए। इस मंत्र के चौबीस अक्षरों में नवयुग का संविधान, समग्र धर्म शास्त्र समाया हुआ है। व्यक्ति के सर्वांगीण उत्कर्ष और समाज की व्यापक सुव्यवस्था के लिए इससे श्रेष्ठ आचार संहिता कोई नहीं।

आने वाला समय बड़े व्यापक परिवर्तन लेकर आ रहा है। उस समय भौतिक पुरुषार्थ से कहीं अधिक आध्यात्मिक पुरुषार्थ की-शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए गायत्री उपासना का ही अवलम्बन लिया जाना चाहिए।


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