तपश्चर्या की असाधारण परिणतियाँ

October 1991

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शास्त्रों में गायत्री को परम तप कहा गया है। स्कन्दपुराण में उल्लेख है-

“गायत्र्येव तपोयोगः साधनं ध्यानमुच्यते।

सिद्धानाँ सामता माता नातः किंचिद वृहत्तरम्॥”

अर्थात्-गायत्री ही तप है। गायत्री ही योग है। गायत्री ही सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धि दायक साधन-तप और कोई नहीं है।

गायत्री को पापनाशिनी, मोक्षदायिनी और कल्याणकारी कहा गया है। इस महाशक्ति की उपासना वस्तुतः एक ऐसी तपश्चर्या है जिसे गृहस्थ, विरागी, स्त्री और पुरुष, बालक तथा वृद्ध समान सुविधा से कर सकते हैं। तप ही एक मात्र साधन है जो नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए मनुष्य को बचाता, पाप कर्मों से उबारता और आत्मशक्ति बढ़ाता है। यह आत्मशक्ति ही संसार की सर्वोपरि वस्तु है जिसके द्वारा मनुष्य इच्छानुकूल पदार्थ, मनोवाँछित परिस्थिति और अक्षय शान्ति प्राप्त कर सकता है। दिव्य शक्तियों की सहायता और ईश्वरी कृपा को उपलब्ध करना भी गायत्री तप द्वारा उपार्जित आत्म शक्ति पर ही निर्भर है।

कथा है कि - अनादि काल में जब नीलकमल में ब्रह्माजी उत्पन्न हुए तो वे अकेले थे। उनने बहुत सोचा कि मैं क्या हूँ? क्यों हूँ? यह सब क्या है? पर कोई बात समझ में नहीं आती थी। जब वे कुछ भी न सोच सके और बहुत हैरान हो गये तब आकाशवाणी हुई कि “तप करो।” ब्रह्माजी ने दीर्घकालीन तप किया, तब उन्हें आत्मज्ञान हुआ और अपना उद्देश्य तथा कार्यक्रम जाना। उन्हें गायत्री प्राप्त हुई, जिसकी सहायता से उन्होंने चारों वेद रचे। उन्हें सावित्री प्राप्त हुई जिसकी सहायता से उन्होंने सृष्टि की रचना की। इसी प्रकार देवताओं और दानवों द्वारा समुद्र मंथन के घोर तप की कथा आती है जिसकी उष्णता से चौदह रत्न निकले और श्रीहीन वसुन्धरा में जीवों के जीवन धारण करने के लिए आकर्षण का केन्द्र बने। तात्पर्य यह है कि ज्ञान और विज्ञान का, चेतन और जड़ का मूल कारण तप है। तप के बिना किसी भी वस्तु, विचार तत्व या गुण का होना संभव न था।

गायत्री-तपश्चर्या की शक्ति असाधारण-असामान्य है। स्वयम्भू मनु और शतरूपा रानी ने इसी का आश्रय लेकर भगवान को अपनी गोदी में खिलाने की असंभव इच्छा को संभव बना लिया। दशरथ और कौशल्या ने तप से ही राम को गोदी में खिलाने के सौभाग्य का रसास्वादन किया। नन्द और यशोदा, देवकी और वासुदेव ने भी पूर्वजन्मों में ऐसी ही तपस्या करके भगवान के भी माता-पिता बनने का अद्भुत अवसर पाया था।

अवतारी आत्माओं को भी तप करना पड़ा है, क्योंकि बिना तप के उनका शरीर भी ब्रह्म जी की भाँति ही अशक्त रह जाता। राम का विश्वामित्र के आश्रम में जाना और चौदह वर्ष तक वनवास में तपस्वी जीवन बिताना सर्वविदित है। लक्ष्मण की चौदह वर्ष की गायत्री साधना प्रसिद्ध है। सीता का वनवास में अशोक वाटिका और अन्त में वाल्मीकि आश्रम में तप करना सर्वविदित है। भरत ने चौदह वर्ष तक जो तप किया था उसी का प्रताप था कि वे बाण पर बिठाकर हनुमान को लंका पहुँचा सके।

शंकर जी तो साक्षात् योगीराज ही हैं। योग और तप ही उनका प्रधान कार्य है। उनकी वेश-भूषा का अनुकरण करके योगियों की एक परम्परा बन गयी है। शिव की अनेक लम्बी समाधियों का वर्णन ग्रन्थों में मिलता है। ऐसे अवधूत को पुनर्विवाह के लिए तैयार करना कोई साधारण काम न था, परन्तु पार्वती के उग्र तप ने इस असाधारण को भी साधारण बना दिया। चौबीस अवतारों की कथायें यह बताती हैं कि उनमें से हरेक ने तप किया है। यद्यपि उनकी आत्मा पूर्ण थी, परन्तु स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में आवश्यक क्षमता उत्पन्न करने के लिए भी तप करना आवश्यक था। देवता भी तप के प्रभाव से ही देवत्व के अधिकारी रहते हैं। इन्द्र को इन्द्र पदवी उनकी तपस्या के कारण ही मिली थी। अतः तप देवत्व को जन्म देता है, यह सत्य है।

धरती के देवदूतों में से सभी ने इसी मार्ग का अनुसरण किया है। भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, ईसामसीह, मोहम्मद साहब, जरथुस्त्र सुकरात, शंकराचार्य माधवाचार्य, अरविंद, महर्षि रमण, गाँधी, बिनोवा, रामकृष्ण परमहंस, रामतीर्थ आदि ने जो तप किये हैं, वे इतिहास के पाठकों को भली प्रकार विदित हैं। इनमें से प्रत्येक ने अपने-अपने ढंग से आत्मशुद्धि और दिव्य शक्ति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत, उपवास, तितीक्षा, त्याग, आराधना आदि तपश्चर्याओं का अवलम्बन लिया था। उसी के कारण उनका चरित्र, व्यक्तित्व एवं प्रभाव बढ़ा और उसी के कारण वे अपने विचारों की छाप अपने अनुयायियों पर डाल सके। संसार के प्रत्येक देश में, वे ही व्यक्ति पूजनीय माने गये हैं, जिन्होंने अपनी आत्मा को तपाकर निर्मल एवं प्रकाशवान् बनाया है।

यों तो तप के अनेक मार्ग हैं। साधक अनेक पद्धतियों से अपनी साधनायें करते हैं और उनसे यथा संभव लाभ भी उठाते हैं, परन्तु अध्यात्म विज्ञान के सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने अपने योगबल से यह देख लिया था कि गायत्री महाशक्ति की सहायता के बिना कोई भी तप अधिक फलदायी नहीं हो सकता। इसीलिए उपासना पद्धति में इस महामंत्र को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि यहाँ इसी महाविज्ञान के आधार पर आत्मकल्याण के महान अभियान किये जाते रहे हैं। प्रायः सभी ऋषि-महर्षियों में जो विशेषतायें थीं, उनमें उनकी तपस्या ही एक मात्र कारण थी। विश्वामित्र, वसिष्ठ, याज्ञवलक्य, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, कपिल, कणाद, पतंजलि, व्यास, वाल्मीकि, च्यवन, शुकदेव, नारद, दुर्वासा आदि ऋषियों के जीवन वृत्तांत पर विहंगावलोकन किया जाय, तो सहज ही पता चल जाता है कि उनकी महानता का, उनके अद्भुत एवं महान कार्यों का कारण उनका गायत्री तप ही था।

महर्षि विश्वामित्र द्वारा अपने तपोबल की शक्ति से नयी सृष्टि का बनाया जाना और त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने की कथा प्रसिद्ध है। वशिष्ठ की कामधेनु-(गायत्री) को लेने के लिए जब राजा विश्वामित्र गये थे तब वशिष्ठ जी ने निरस्त्र होते हुए भी राजा की भारी सेना को परास्त कर दिया था। इससे प्रभावित होकर विश्वामित्र ने भी गायत्री की महान तपश्चर्या की और अंततः ब्रह्मर्षि पद पर आरुढ़ हुए। भगीरथ इसी तप के आधार पर गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर लाये थे। अम्बरीष की गायत्री साधना से अर्जित शक्ति जब दुर्वासा ऋषि के पीछे मृत्यु चक्र बनकर दौड़ी तो अन्त में दुर्वासा को अम्बरीष की शरण लेकर ही प्राण बचाने पड़े थे। इस प्रकार की अगणित कथायें ऐसी हैं जिनसे प्रकट है कि गायत्री तप के द्वारा दिव्य, विलक्षण शक्तियाँ तपस्वी में उत्पन्न होती हैं।

तप शक्ति उत्पादन के विशुद्ध विज्ञान द्वारा ही तपस्वी को निश्चित रूप से आत्मशक्ति मिलती तथा देवताओं और ऋषियों के अनुदान-वरदान बरसते हैं। इतिहास साक्षी है कि तपस्वियों को देवताओं-ऋषियों के वरदान से अनेक प्रकार की दिव्य शक्तियाँ प्राप्त हुई और उस कृपा के कारण वे असाधारण लाभों से लाभान्वित हुए हैं। तप के द्वारा साँसारिक सुख सौभाग्यों से परिपूर्ण बनने वालों के उदाहरण भी कम नहीं हैं। ध्रुव ने तप करके राज्य पाया था। राजा दिलीप के संतान नहीं थी। उनने पत्नी समेत महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार नन्दिनी (गायत्री) की उपासना की ओर महाप्रतापी पुत्र रत्न पाया। योगिराज मत्स्येन्द्रनाथ की भस्म विभूति के द्वारा महायोगी गोरखनाथ का जन्म हुआ था। अंजनी ने कठिन तप करके बजरंगी हनुमान का प्रसव किया था। कर्ण को गायत्री की सविता साधना के कारण ही नित्य सौ मन स्वर्ण प्राप्त होने का वरदान था, जिसे वह दान कर देते थे। परशुराम अकेले होते हुए भी पृथ्वी के समस्त राजाओं को सेना समेत संहार करने में सफल हुए थे। धौम्य ऋषि के आशीर्वाद मात्र से आरुणि को समस्त विद्यायें प्राप्त हो गयी थीं। दधीचि ऋषि की हड्डियों में इतना प्रचण्ड तेज आ गया था कि उन्हीं के द्वारा बना हुआ वज्र वृत्रासुर को मारने में सफल हुआ।

पुरुषों के समान ही महिलायें भी तप करने की पूर्ण अधिकारिणी हैं। गायत्री माता की गोदी में उसके पुत्र और पुत्री समान रूप से क्रीड़ा कल्लोल कर सकते हैं और समान रूप से पयपान कर सकते हैं। इतिहास-पुराणों को पढ़कर यह भली प्रकार जाना जा सकता है कि प्राचीनकाल में नारियाँ भी पुरुषों के समान ही तपश्चर्या के क्षेत्र में बढ़ी हुई थीं। पार्वती जी का तप प्रसिद्ध हैं। गार्गी, मैत्रेयी, अनसूया, अरुन्धती, अहिल्या, मदालसा, गाँधारी, देवयानी, द्रौपदी, गौतमी, अपाला, दिति, अदिति, शची, सुकन्या,घोषा, लोपामुद्रा आदि अगणित महिलायें तपश्चर्या एवं आत्मशक्ति में पुरुष तपस्वियों से किसी प्रकार कम न थीं। अनसूया के तपबल ने तो ब्रह्म, विष्णु, महेश तक को 6-6 माह के शिशु बना दिया था। सती शाण्डिली के तपोबल ने सूर्य के रथ को रोक दिया था। सावित्री ने तपोबल के आधार पर अपने पति को यमराज से छुड़ा लिया था। कुन्ती ने कुमारी अवस्था में गायत्री मंत्र द्वारा सविता के भर्ग को आकर्षित किया था और उसी के द्वारा महा प्रतापी कर्ण का जन्म हुआ था।

यद्यपि तपश्चर्या के अन्य अनेकों मार्ग हैं, पर उन सभी में सूक्ष्म रूप से गायत्री का ही विज्ञान सम्बद्ध है। गायत्री के द्वारा ही अधिकाँश तपस्वी तप करते हैं, क्योंकि यह रास्ता सबसे सरल, सर्वसुलभ, हानि रहित, शीघ्र फलदायी तथा नर-नारी, बाल- वृद्ध सभी के लिए सुसाध्य है। वे मनुष्य बड़भागी हैं, जो गायत्री उपासना को अपनाते और धर्म, अर्थ काम, मोक्ष इन चारों पदार्थों को प्राप्त करते हैं।


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