सृष्टि के आदि कालीन ऋषियों से लेकर आधुनिक संत महापुरुषों तक जिनने भी तपश्चर्या एवं योग-साधना की है, उनने गायत्री को ही आधार रखा है। प्राचीन इतिहास पुराणों के पन्ने पलटे जायें तो यह तथ्य स्पष्ट हो जायगा कि सभी प्रमुख ऋषि-महर्षि गायत्री के आधार पर ही परम् सिद्धि प्राप्त करते थे। वसिष्ठ, याज्ञवलक्य, गौतम अत्रि, विश्वामित्र, भारद्वाज आदि सप्तर्षियों सहित समस्त ऋषि-मनीषियों ने वेदमाता की उपासना करके किस प्रकार दिव्य शक्तियाँ अर्जित की थी और उसके द्वारा वे कितनी महान सफलतायें उपलब्ध कर सके थे, इतिहासवेत्ताओं से इनके चरित्र छिपे नहीं है।
पिछले दिनों भी भारतभूमि में ऐसे अनेकों सिद्ध-संत-महात्मा हुए हैं जिनने गायत्री महाशक्ति का आश्रय लेकर अपनी प्रतिभा को प्रकाशित किया और आत्मकल्याण तथा लोक मंगल के कार्यों में निरत रहकर महापुरुषों की श्रेणी में जा विराजे। उन्हीं में से एक गायत्री उपासक दिव्यात्मा बूटी सिद्ध जी महाराज हैं।
घटना उन्नीसवीं सदी की है। अलवर राज्य के एक अति सामान्य परिवार में जन्मे एक व्यक्ति ने अदृश्य की प्रेरणा से युवावस्था में घर बार छोड़कर संन्यास ले लिया और मथुरा आकर एक टीले पर रहने लगा। गायत्री उपासना में उसकी अभिरुचि तो बचपन से ही थी, पर यहाँ आकर माता में ऐसी लगन लगी कि उन्हीं की आराधना में वह निमग्न हो गया। यहीं पर उनने कई पुरश्चरण किये और गायत्री की सिद्धि प्राप्त की। किशोरी रमण कालेज के पास स्थित, जिस टीले पर वह रहे, वह स्थान आज ‘गायत्री टीला’ के नाम से जाना जाता है। इसी टीले पर आज एक पंचमुखी कमलासन गायत्री माता की प्रतिमा भी प्रतिष्ठापित है।
बाबा बूटी सिद्ध इतने विख्यात थे कि उनके पास दर्शनार्थियों और मुलाकातियों का आना जाना हमेशा बना ही रहता था। उनका स्वभाव था कि वे किसी से कुछ माँगते नहीं थे, यहाँ तक कि उन्हें अपने भोजन की भी चिन्ता नहीं रहती थी। भूखे रह लेते थे, पर किसी से कुछ माँगते नहीं थे। इस व्रत के कारण उन्हें कई बार भूखे ही रह जाना पड़ता था। लोग उनके पास आते जाते थे, परन्तु उनका उद्देश्य बाबा से आशीर्वाद पाना और अपना मतलब सिद्ध करने की बात की और चलते बने।
बाबा लोगों के इस स्वभाव को अच्छी तरह समझते थे और कई बार उनके आचरण पर हँसने लगते थे। करुणावत्सल उदार संत स्वभाव के कारण वे यथाशक्ति उनकी मदद ही करते थे। एक बार बाबा को पाँच छह दिन से भोजन नहीं मिला था। भिक्षा माँगने वे जाते नहीं थे और किसी से कुछ माँगने की उनकी आदत नहीं थी। छठवें दिन रामकली नामक एक महिला उनके लिए भोजन लेकर आयी और थाल उनके सामने रख दिया। बाबा ने कहा-बेटी। सब ठीक तो है न? “आपकी दया चाहिए महाराज,” रामकली ने आर्द्र स्वर में कहा।
बाबा ने आंखें मूँदी और कुछ देर तक चुपचाप मौन ध्यान लगाये बैठे रहे। कुछ देर बाद आंखें खोली और बोले “बेटी सब कुछ जान लिया। तुम्हारे पति की तबियत बहुत ज्यादा खराब है। वैद्यों ने मर्ज को लाइलाज करार दिया है। है न?”
“आप तो अन्तर्यामी है महाराज! आप से क्या छिपा हुआ है, अब आप का ही सहारा है।”
‘चिन्ता मत कर’ यह कहकर बाबा उठे। रामकली ने कहा-महाराज पहले भोजन तो कर लीजिए।
भोजन तो हो जायेगा बेटी, पर तेरा पति बहुत दुख पा रहा है। उसकी पीड़ा दूर होनी चाहिए- महाराज ने कहा और उठकर झोंपड़ी में एक कील से टंगी झोली के पास गये। झोली उतारी और उसमें से एक जड़ी निकालकर वापस यथास्थान बैठ गये। कुछ देर तक उस जड़ी का मुट्ठी में बन्द कर कोई मंत्र बुदबुदाते रहे और रामकली को देते हुए कहा “जा इसे अभी पीसकर उसे पिला दे। भगवती की कृपा से सुबह तक ठीक हो जायेगा और कल शाम को तुम दोनों यहाँ मेरे पास आना। “
रामकली वहाँ से चल दी। घर आकर देखा तो उसके पति की दशा पहिले से भी ज्यादा बिगड़ी हुई थी। आखिरी सांसें गिन रहा था। मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी। रामकली ने जल्दी-जल्दी में जड़ी को पीसा और बड़ी मुश्किल से अपने पति के मुँह में उड़ेला। औषधि कंठ से नीचे पहुँची तो उसने आंखें बंद कर ली। यह क्या? दशा तो और भी ज्यादा बिगड़ती सी प्रतीत हो रही थी।
हाथ-पाँव ठंडे पड़ने लगे थे। रोगी अचेत हो चुका था। नाड़ी भी डूबती जा रही थी। यह स्थिति कोई एक घंटे तक रही। फिर रोगी की दशा में चमत्कार की तरह सुधार होने लगा। उसने आंखें झपकाई और आँख खोलकर पास खड़े एक व्यक्ति की ओर देखने लगा जैसे बता रहा हो कि मैं मौत के मुँह से वापस आ गया हूँ और दूसरे दिन शाम को तो उसने स्वयं पैदल बाबा के टीले पर चलने की इच्छा व्यक्त की। सम्बन्धियों ने उसके स्वास्थ्य की दुर्बलता को ध्यान में रखते हुए सहारा देकर उसे वहाँ तक पहुँचाया और बूटी सिद्ध महाराजा के दर्शन कराये।
इस तरह की एक नहीं सैकड़ों घटनायें बूटी सिद्ध महाराज के संबंध में प्रसिद्ध है। उनके पास जो कोई भी अपनी आधि-व्याधि लेकर जाता था, उसे वे अपनी एक छोटी सी झोली में से जड़ी-बूटी निकाल कर देते थे और वह सेवन करने के पश्चात् भला चंगा हो जाता था। इसी कारण उनका ‘बूटी सिद्ध’ पड़ गया। असली नाम क्या था? किसी को नहीं मालूम। वे अपने पूर्व जीवन संबंध में किसी को कुछ नहीं बताते थे। बताने की आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि उन्हें ख्याति प्राप्त करने का कोई चाव नहीं था। जब से उन्होंने घर बार छोड़ कर संन्यास लिया और मथुरा आकर उस टीले पर रहने लगे तब से वे कहीं नहीं गये। एक मात्र टीले तक ही उन्होंने अपना भौतिक संसार सीमित कर लिया था। उसी टीले पर उनकी एक गुफा थी, जिसमें घुस जाने के बाद वे हफ्तों तक बाहर नहीं निकलते थे। गुफा में ही समाधि लगाये रहते। बाद में यही टीला गायत्री टीला नाम से विख्यात हुआ।
सिद्धि प्राप्त होने के बाद बाबा ने मौन व्रत ले लिया और मृत्यु पर्यन्त मौन ही रहे। उन्होंने अपने आशीर्वाद से कई मरणासन्न व्यक्तियों को पुनर्जीवन प्रदान किया, निस्सन्तानों को संतान दी और धनहीनों को धन लाभ कराया। कहा जा चुका है कि वे पूरी तरह अपरिग्रही और अकिंचन थे। भौतिक संपदा उनके पास कुछ भी न थी, फिर उन्होंने कई बार ऐसे भण्डारे किये जिनमें दस-दस हजार लोगों ने भोजन किया। इस भण्डारे के लिए धन की व्यवस्था कहाँ से होती थी? यह किसी को नहीं मालूम। किसी से कुछ याचना करते हुए तो उन्हें किसी ने देखा ही नहीं था। फिर धन का प्रबन्ध कहाँ से होता था, यह लोगों के लिए रहस्य ही बना रहा।
बूटी सिद्ध महाराज की दिव्य चमत्कारी क्षमताओं के बारे में अनेक कथायें प्रसिद्ध हैं। उनकी सिद्धियों और शक्तियों की ख्याति आस-पास के सभी क्षेत्रों में फैल गयी थी। महाराज धौलपुर और महाराज अलवर उनकी सिद्धियों की चर्चा सुनकर कई बार उनके पास आये थे और उनके दर्शन से लाभाँवित हुए थे। दूर-दूर से लोग उनके दर्शनों के लिए आते थे और जिन्होंने भी उनके दर्शन किये थे, उनका कहना था