अवतारी स्तर की सत्ता (Kahani)

October 1991

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महामना मदन मोहन मालवीय जी ने कहा है - “ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिए हैं, उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री ऐसा है, जिससे बुद्धि पवित्र होती है। गायत्री में ईश्वर में श्रद्धा उत्पन्न करने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को भी दूर करती है।”

महात्मा गाँधी कहते हैं- गायत्री मंत्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्माओं की उन्नति के लिए उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शाँत हृदय से किया गया जप आपत्ति काल के संकट दूर करने की प्रभाव क्षमता रखता है।”

महाशक्ति की सिद्धि की ही परिणति है। अवतारी स्तर की सत्ता ही यह सब कुछ कर सकती है।

गायत्री तपोभूमि की अपने चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति पर स्थापना,अखण्ड अग्नि की स्थापना, चौबीस सौ तीर्थों की जल व रज की स्थापना उनके संक्षिप्त से मथुरा निवास के महत्वपूर्ण क्रियाकलाप हैं, यही पर 1958 में एक विशाल गायत्री महायज्ञ 1008 कुण्डों में संपन्न हुआ। जिसमें पाँच से दस लाख लोगों ने भागीदारी की। गायत्री तत्वज्ञान को भारत के कोने कोने व विश्वभर में पहुँचाने की रूपरेखा इसी यज्ञ में बनी। इस यज्ञ से जुड़ी अनेकानेक विलक्षणताएँ, चमत्कारी सिद्धियाँ समय-समय पर पाठकों को बताई जाती रही हैं व वे प्रमाण हैं परम पूज्य गुरुदेव की गायत्री सिद्धि का। हिमालय जाकर तप इसी के बाद उनने किया व एक वर्ष तक अज्ञातवास में रहकर वेद, दर्शन, पुराण उपनिषद्, स्मृति, आरण्यक आदि का भाष्य किया। यह बहुलीकरण की सिद्धि का चमत्कार है कि जो काम एक व्यक्ति ने किया,वह अनेकों व्यक्तियों के श्रम के बराबर था। संगठन का सूत्र संचालन, पत्रिका का संपादन नियमित पुस्तकों का प्रकाशन, निजी जीवन की तपश्चर्या, सभी को पत्र द्वारा दैनंदिन मार्गदर्शन, व्यक्तिगत भेंट मुलाकात तथा देशव्यापी दौरे यह सब काम एक साथ सामान्य व्यक्ति नहीं चला सकता।

मथुरा में ही उनने एक असाधारण संकल्प का उद्घोष किया व उसे प्रकाशित किया “युग निर्माण सत्संकल्प” के रूप में। इसे उनने नवयुग का संविधान कहा व बताया कि सतयुग इसी आधार पर अगले दिनों आएगा। यह दुस्साहस नूतन सृष्टि का सृजन करने वाले ब्रह्मर्षि के स्तर का ही तो था। आज जब हम इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़े हैं तो हमें प्रत्यक्ष दीख पड़ता है कि सतयुग की वापसी उनके द्वारा बताए गए सिद्धाँतों पर सुनिश्चित है।

वर्णाश्रम धर्म के आधार पर मथुरा छोड़कर हरिद्वार आना उनके जीवन का एक पूर्व नियोजित उत्तर अध्याय है, जिसकी घोषणा उनने 1961 से ही करनी आरंभ कर दी थी। हरिद्वार आकर दिव्य दृष्टि से ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तपस्थली सप्त सरोवर क्षेत्र में उनने ढूँढ़ निकाली व यहीं वह बीजारोपण आरंभ हुआ जिसे आगामी बीस वर्षों में बढ़ना व अतिविस्तृत रूप लेना था। परम पूज्य गुरुदेव के जीवन के चौथे भाग जो 1971 से 1990 के बीच का है का बहुत सा स्वरूप प्रत्यक्ष है जो गायत्री तीर्थ शाँतिकुँज के विशाल विस्तार व देश व्यापी क्रियाकलापों के रूप में दिखाई पड़ता है। किन्तु उसका बहुत सा भाग परोक्ष है जो अभी सबकी निगाह में नहीं है पर अगले दिनों साकार होता जिसे सब देखेंगे। उनकी तपश्चर्या के बहुमूल्य कुछ वर्ष शाँतिकुँज में ही व्यतीत हुए हैं। यही उनने प्राण प्रत्यावर्तन के, कल्प साधना के व संजीवनी साधना के महत्वपूर्ण शिक्षण सत्र चलाए। यही पर उनकी एकाकी सूक्ष्मीकरण तपश्चर्या संपन्न हुई। यहीं पर अध्यात्म व विज्ञान के समन्वय का उनका संकल्प ब्रह्मवर्चस् के रूप में साकार होकर सामने आया।यहीं पर उनने भारत भर में प्रज्ञा संस्थान बनाने व जन-जन तक ब्राह्मणत्व के विस्तार का संकल्प लिया व देखते-देखते तीन हजार से अधिक शक्ति पीठें पूरे भारत वर्ष भर में बन गई। यहीं पर उनने देवात्म शक्ति के कुण्डलिनी जागरण की साधना संपन्न की व विश्व भर में गायत्री महाशक्ति के विस्तार के रूप में उसे अगले दिनों ही साकार होता देखा जा सकेगा। उसका शुभारंभ इसी वर्ष पश्चिम के देशों की यात्रा व हजारों घरों में देव स्थापना से हो चुका है।

शक्ति साधना कार्यक्रमों द्वारा जन-जन तक गायत्री महाविद्या के विस्तार का संकल्प जो परम पूज्य गुरुदेव के निर्देश पर यहाँ से उठाया गया है वह भी यही संकेत देता है कि अगले दिनों वातावरण गायत्रीमय होने जा रहा है। प्रज्ञावतार का निष्कलंक निराकार रूप में अवतरण हो चुका है, दुर्बुद्धि का साम्राज्य मिटने वाला है व सद्बुद्धि का विस्तार


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