हिमालय के उच्च क्षेत्र में, उत्तराखण्ड की कन्दराओं में आसन लगाकर बैठे ऋषि विश्वामित्र को तप की अवधि में सूर्य भगवान के समष्टि में व व्यष्टि में अपने हृदय स्थल में दर्शन हुए। प्रत्यक्ष सविता नारायण रूप में उन्हें दिव्य दर्शन दे रहे थे। परम तत्व स्वरूप सविता भगवान का दर्शन करके उनको जो परम चेतना और प्रेरणा मिली, उसके प्रभाव से उनका मुखमण्डल प्रकाशित हो रहा था। उनके मुख से सविता नारायण की महिमा गाने वाले तीन मंत्र निकले जिनमें प्रथम था-
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्।
ऋग्वेद के दस मण्डल हैं। उनमें से तीसरे मण्डल के 617 मंत्रों के द्रष्ट विश्वामित्र ऋषि है। उन सभी में श्रेष्ठतम व अनादि मंत्र कहा गया है। यह है गायत्री महामंत्र।
गायत्री के अनुग्रह से उसके मंत्रद्रष्टा, साक्षात्कार कर्ता, निष्णात् एवं सिद्ध पुरुष बने। इस प्रकार देखा जाय तो ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र तीनों की ही आराध्य एवं शक्ति निर्झरिणी गायत्री ही रही। पौराणिक उल्लेखों के अनुसार इसी गायत्री की उपासना द्वारा ब्रह्मा जी ने बाद में सृष्टि की रचना की।
ऐसी दशा में ब्रह्मा वशिष्ठ और विश्वामित्र गायत्री साधना के निष्फल चले जाने का शाप देकर अपने पैरों कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे? स्वयं हतवीर्य क्यों बनेंगे और समस्त संसार को इस कल्पवृक्ष का लाभ उठाने से वंचित क्यों करेंगे? यह ऐसी अनबूझ पहेली है, जिसका समाधान कहीं से भी नहीं सूझता।
लगता है मध्यकाल में जब चतुर धर्माध्यक्षों में अपना स्वतंत्र मत चलाने में प्रतिस्पर्धा जोरों पर थी, तब उनने गायत्री की सर्वमान्य उपासना को निरस्त करने के लिए ऐसा प्रपंच रचा होगा और उसे शापित-कीलित होने के कारण निष्फल होने की बात कह कर उसकी सर्वमान्य महत्ता को धूमिल करने एवं लोगों में निराशा, अश्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया होगा।
शाप लगने की बात को एक बुझौअल के रूप में अधिक-से अधिक इतना ही महत्व दिया जा सकता है कि वशिष्ठ जैसे विशिष्ट और विश्वामित्र जैसे विश्वमानवता का परिपोषक व्यक्ति, सहयोगी, मार्गदर्शक मिलने पर इस महान-साधना के अधिक सफल होने की आशा है, इसके अतिरिक्त इस कथन में और कोई तथ्य नहीं हो सकता। किन्तु कहीं यह असमंजस आड़े आता हो तो बिना किसी उलझन में पड़े “शापुमुक्ताभव” मंत्र को दुहरा कर साधना को शापमुक्त हुआ मान लेना चाहिए।
गायत्री की कृपा से क्या वास्तव में संपन्नता व सफलता मिल सकती है, यह जिज्ञासा किसी के भी मन में आ सकती है। वस्तुतः यह सब संभव है यदि बीच की कड़ी और जोड़ ली जाय। स्कूल में प्रवेश करने, ऊँचे अफसर या डॉक्टर बनने में आरंभ और अंत की चर्चा मात्र है, इसके बीच मध्यान्तर भी है, जिसमें मनोयोगपूर्वक लम्बे समय तक नियमित रूप से पढ़ना, पुस्तकों की, फीस की, व्यवस्था करना आदि अनेकों बातें भी शामिल हैं। इस मध्यान्तर को विस्मृत कर दिया जाय, और मात्र प्रवेश एवं पद दो ही बातें याद रहें, तो कहा जायेगा कि यह शेखचिल्ली की कल्पना भर है। यदि मध्यान्तर का महत्व और उस अनिवार्यता का कार्यान्वयन भी ध्यान में हो तो कथन सर्वथा सत्य है। पहलवान मात्र बलिष्ठता की मनोकामना ही नहीं संजोये रहता, न ही “पहलवान-पहलवान” रटते रहने से कोई वैसा बन पाता है। उसके लिए व्यायामशाला में प्रवेश लेकर नियमित व्यायाम, आहार-विहार, तेल-मालिश आदि का उपक्रम भी ध्यान में रखना होता है।
साधना से सम्पन्नता की सिद्धि या सफलता प्राप्ति के शाश्वत सिद्धाँत पर ये सभी बातें लागू होती हैं। छुट-पुट कर्मकाँडों की लकीर पीट लेने पर अभीष्ट सफलता कहाँ मिलती है? उसके लिए श्रम-साधना, मनोयोग, साधनों का सदुपयोग आदि सभी आवश्यक है। इतना सब होने पर अभीष्ट की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार बिना किसी जाति, लिंग, देश, धर्म का अन्तर किये मानव मात्र को गायत्री उपासना करने और उससे लाभान्वित होने का पूरा-पूरा अधिकार है। इस संबंध में अधकचरे ज्ञान के आधार पर उठायी गयी प्रतिगामी टिप्पणियों से अप्रभावित हो, जिन्हें भी आत्मिक प्रगति में तनिक भी रुचि हो, बिना किसी आशंका-असमंजस के श्रद्धापूर्वक गायत्री उपासना करते रहना चाहिए।