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October 1991

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जगद्गुरु शंकराचार्य जी का कथन है- “गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है। बुद्धि का शुद्ध होना इतना बड़ा कार्य है, जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती। आत्मबल प्राप्त करने की विश्वदृष्टि बुद्धि से प्राप्त होती है, उसका प्रेरक गायत्री मंत्र है, उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और ऋत के अभिवर्धन के लिए हुआ है।”

बच्चों के खेलने वाले प्लास्टिक के बन्दूक में रख कर बढ़िया कारतूस चलाने पर भी लक्ष्यवेध में सफलता न मिलेगी। उपयुक्त परिणाम उत्पन्न करने में कारतूस ही सब कुछ नहीं होता, बढ़िया बन्दूक की भी अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का पौरोहित्य करने के लिए अखण्ड व्रतधारी शृंगी ऋषि का सहयोग लेना पड़ा था। महाभारत की कथा है कि अश्वत्थामा और अर्जुन ने मंत्र चालित “संधान-अस्त्र” छोड़े। उनकी भयंकरता को देख कर व्यास जी बीच में आ खड़े हुए और दोनों से अपने अस्त्र वापस लेने को कहा। अर्जुन ने जितेन्द्रिय होने के कारण अपना अस्त्र वापस कर लिया, किन्तु अश्वत्थामा असंयमी होने के कारण वैसा करने में विफल रहा।

मंत्र शास्त्र में मंत्र विनियोग के पाँच अंग माने गये हैं- (1) ऋषि (2) छन्द (3) देवता (4) बीज (5) तत्व। इन पाँचों को मंत्र शरीर का आधार स्तम्भ माना गया है। पाँच तत्वों से स्थूल काया बनी है। पाँच प्राणों से सूक्ष्म शरीर का निर्माण हुआ है। कारण शरीर में पाँच तन्मात्राएँ आधारभूत है। वनस्पतियों का पंचाँग प्रयुक्त होता है। पंचगव्य भी शरीर के पाँच अमृत माने गये है। रत्नों में पाँच ही प्रमुख है। पाँच कोशों के जागरण की विद्या गायत्री मंत्र शक्ति को जाग्रत करने के लिए उपरोक्त पाँच आधारों का उसके विनियोग में समाविष्ट किया गया है।

ऋषि अर्थात् मार्गदर्शक गुरु। उपासना एक महत्वपूर्ण विज्ञान है। इसके लिए अनुभवी और निष्णात् मार्गदर्शक चाहिए। सिर्फ पुस्तकों को पढ़ कर उपासना सफल नहीं हो सकती। सामर्थ्यवान गुरु शिष्य को अपने आत्मबल का सामर्थ्यवान अनुदान भी देता है। इसलिए समर्थ गुरु की नियुक्ति इस क्षेत्र में आवश्यक बतायी गई है।

विनियोग का दूसरा चरण छन्द है। छन्द अर्थात् स्वर ताल, लय। किस मंत्र का किस स्वर लय से उच्चारण किया जाय, इसे जान कर उस प्रक्रिया को पूर्ण करने से ही इसका दूसरा चरण फलीभूत होता है।

तीसरा चरण है-देवता। देवता का अर्थ है सूक्ष्म जगत से चलने वाले शक्ति प्रवाहों में से अभीष्ट परत का चयन। इस प्रक्रिया के द्वारा यदि मंत्र को बल देने वाली देव शक्ति से ठीक तरह संपर्क किया जा सके, तो उसका अभीष्ट परिणाम उपलब्ध होता है।

चौथा चरण है-बीज। बोल-चाल की भाषा में इसे हम स्विच कह सकते है, जिस प्रकार भिन्न-भिन्न स्विचों को दबाने से विद्युत की पृथक-पृथक मशीनें चलने लगती हैं, उसी प्रकार मंत्रों में बीज एवं सम्पुट बदल देने से उनकी क्षमता और दिशा भी बदल जाती है।

विनियोग का पाँचवाँ अंग है-तत्व। तत्व अर्थात् लक्ष्य। किस प्रयोजन के लिए आराधना की जा रही है, इसका संकल्प उद्देश्य-निर्धारण ही तत्व है। मंत्राराधन में प्रयुक्त उपकरणों में किसी तत्व की प्रधानता है-इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उपयोगी सामग्री का निर्धारण करना पड़ता है। इसी कारण से भिन्न-भिन्न मंत्रों में स्थान, आहार उपचार, उपकरण आदि का जो अन्तर रहता है, उसे तत्व प्रक्रिया से संबंधित माना जाना चाहिए।

आर्ष ग्रन्थों में आद्यशक्ति गायत्री को पंचमुखी बताया गया है। इसके पाँच मुख मंत्र विनियोग के उपरोक्त पाँच अंगों के प्रतीक-प्रतिनिधि हैं। इसके अतिरिक्त चार वेद और पाँचवाँ यज्ञ विज्ञान को भी ये निरूपित करते हैं। संसार में ज्ञान-विज्ञान की जितनी


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