यजुर्वेद में गायत्री महाशक्ति को एक विचित्र वृषभ के रूप में अलंकृत किया गया है
चत्वारिश्रृगाँ त्रयो अस्य पारा।
द्वेशीर्षे सप्त हस्ता से अस्य
त्रिधा बद्धौ वृषभौ रोकवीति,
महोदेवी मर्त्या आविवेश (17/91)
अर्थात् चार सींग वाला, तीन पैर वाला, दो सिर वाला, सात हाथों वाला तीन जगह बँधा हुआ यह गायत्री महामंत्र रूपी वृषभ जब दहाड़ता है तब महान देव बन जाता है और अपने सेवक का कल्याण करता है।
भाव यह कि चार वेद चार सींग हैं। आठ आठ अक्षरों के तीन चरण अर्थात् तीन पैर ज्ञान और विज्ञान दो सिर। सात विभूति देने वाली सात व्याहृतियां सात हाथ हैं। ज्ञान, कर्म, उपासना से तीन जगह बँधा हुआ यह महामंत्र रूपी बैल जब दहाड़ता है- उच्चारण करता है तो देवत्व भरी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं और सान्निध्य में रहने वाला व्यक्ति सब कुछ पा लेता है।
वस्तुतः नवरात्रि देव पर्व है। जो इस अवसर पर सतर्कता बरतते व प्रयत्नशील होते हैं, वे अन्यान्य अवसरों की अपेक्षा इस शुभमुहूर्त का लाभ भी अधिक उठाते हैं। भौतिक लाभों को सिद्धि नाम से व आत्मिक लाभों को ऋद्धि नाम से जाना जाता है। संकटों के निवारण, तथा प्रगति के अवसरों को जुटाने हेतु सिद्धियों की आवश्यकता पड़ती है। नवरात्रि सिद्धियों की अधिष्ठात्री कही जाती है। पर इस शुभ अवसर पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है-जीवनचर्या में देवत्व की विभूतियों का समावेश। यह सम्पदा जिसे जितनी मात्रा में मिलती है, वह उतना ही निहाल होता चला जाता है।
युगसंधि की इस विषम बेला में नवरात्रि पर्व का विशेष महत्व है। वैसे तो इतना तक कहा गया है कि आगामी नौ वर्षों का एक-एक दिन नवरात्रि के एक-एक दिन के समान कहा गया है। हिमालय की सूक्ष्म शरीरधारी आत्माएँ इस अवधि में अपनी तप ऊर्जा से जन-जन को लाभाँवित करने जा रही है पर विशिष्टता इनमें भी नवरात्रि की अपनी जगह है। 1991 की आश्विन नवरात्रियाँ ऐसी ही शुभ बेला में आयी हैं।
नवरात्रि में गायत्री महाशक्ति का अवलम्बन श्रेष्ठतम मार्ग बताया गया है। इस अवधि में किये गये गायत्री अनुष्ठान समर्थ अनुदानों को जन्म देते हैं। वस्तुतः नवरात्रि की साधना संकल्पित साधना है। “अनुष्ठान” शब्द का अर्थ है “अतिरिक्त आध्यात्मिक सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिए संकल्पपूर्वक निर्धारित प्रतिबन्धों और तपश्चर्या के साथ विशिष्ट उपासना संपन्न करना।” चौबीस हजार जप की संकल्पित गायत्री साधना ही नवरात्रि के लिए सर्वश्रेष्ठ है। लम्बे समय तक व्रत पालन करने, कड़ी पुरश्चरण साधनाएँ करने के लिए तो सुदृढ़ मनोबल चाहिए। संकल्प किसी बहाने टूटे या मात्र चिह्न−पूजा ही हो इससे अच्छा तो यह है कि छोटा ही सही पर संकल्प नियमपूर्वक निभाया जाय। इस दृष्टि से नौ दिन की चौबीस हजार जप की साधना सुगम भी है व तप की न्यूनतम आवश्यकताओं को भी पूरा करती है। नियत दिनों में नियत जप संख्या, ब्रह्मचर्य व्रतपालन, भोजन में उपवास का समावेश, दूसरों से शरीर सेवा न करवाना, भूमिशयन, कम वस्त्रों में रहना, चमड़े का परित्याग जैसी तप तितिक्षाएँ, अंत में हवन की पूर्णाहुति ये अनुष्ठान की सामान्य मर्यादाएँ हैं।
उपवास के नियम कड़ाई से पाले जायँ क्योंकि इस अवधि में नई चेतना का शरीर में संचार होता है अतः शरीरगत नाड़ी गुच्छक सतत् सक्रिय रहते हैं। आहार की अनियमितता से शरीरगत रसों में असंतुलन तथा मन की एकाग्रता में विक्षेप पैदा होता है। इस अवधि में फल, दूध, छाछ, सुपाच्य-बिना नमक के भोजन पर ही रहना चाहिए। गायत्री जप तुलसी या चन्दन की माला से संपन्न किया जाय। प्रतिदिन तीन घण्टे जप से (सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व व सूर्यास्त से एक घण्टा पूर्व) चौबीस हजार जप की संख्या पूरी हो जाती है। जो दैनिक उपासना के अभ्यस्त नहीं हैं व कभी-कभी ही कुछ पूजा पाठ करते हैं उनसे भी जोर देकर कहा जाता है कि इन नौ विशिष्ट दिनों में कम से कम कुछ नियम निबाहें व निश्चित साधना करें। मंत्र, लेखन, गायत्री चालीसा पाठ, पंचाक्षरी जप आदि की सरल व्यवस्थाएँ उनके लिए ही हैं। अच्छा हो, जहाँ व्यवस्था हो वहाँ सामूहिक उपासना का क्रम चले। इससे विशिष्ट ऊर्जा का उद्भव होता है।
अनादि मंत्र-गुरु मंत्र गायत्री का जप अनुष्ठान ऋतुओं की संधिबेला में जप भी किया जाता है,