स्वामी विद्यारण्य जी, जिन्हें इस युग का व्यास कहा जाता है, गायत्री के महान उपासक थे। दक्षिण भारत के संभ्रान्त परिवार में उत्पन्न विद्यारण्य जी ने युवावस्था में प्रवेश करते ही गायत्री के चौबीस पुरश्चरण आरंभ कर दिए। तप−साधना से अर्जित बल द्वारा उनने उच्चकोटि की अध्यात्म तत्वज्ञान पर अगणित पुस्तकें लिखीं।
साधनाकाल में विस्थापित स्थिति में भटक रह दो राजकुमार उनके पास आए। स्वामी जी का आशीर्वाद प्राप्त कर उनने अपना खोया राज्य फिर से प्राप्त कर लिया। जीवन भर वे आदर्श राज्य की तरह विजय नगर का संचालन करते रहे। कभी विजय नगर उतना ही समृद्ध राष्ट्र था, जितना उत्तर में पाटलिपुत्र या हस्तिनापुर।
संन्यास लेने के बाद गायत्री माँ ने उन्हें दर्शन दिए। पूर्व जन्मों के पातक नष्ट होने के बाद ही साक्षात्कार उन्हें सुलभ हुआ। माँ ने वरदान दिया कि तुम मानव मात्र के कल्याण हेतु सद्ग्रन्थों की रचना करो। वे वेद, ब्राह्मण, दशोपनिषद भाष्य सहित पंचदशी, सर्वदर्शन संग्रह जैसे अनेक ग्रन्थों की रचना करने में समर्थ हुए।