गायत्री के सिद्ध साधक के नाते परम पूज्य गुरुदेव का जीवन

October 1991

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गायत्री साधना कैसे जीवन को प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष बना देती है व अगणित सिद्धियाँ जिनका वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में देखने को मिलता है, वास्तव में मिलती हैं कि नहीं यह उत्सुकता हर किसी को हो सकती है। कोई जीता-जागता उदाहरण मिल जाए, मॉडल दिख जाए तो मानने को मन भी करता है। पौराणिक नियम व भूतकाल के उदाहरणों से संभवतः आज का बुद्धि जीवी मानस प्रभावित न हो, पर यदि वस्तुतः ऐसा कोई नमूना सामने हो तो बरबस विश्वास हो उठता है कि हाँ गायत्री उपासना के माहात्म्य के विषय में जो कुछ कहा गया है, वह सच हो सकता है क्योंकि प्रमाण सामने है। यह नमूना यह मॉडल है स्वयं परम पूज्य गुरुदेव का जीवन। अस्सी वर्षों तक उनने जो जीवन जिया, वह एक खुली किताब की तरह है। जो भी जब चाहे,तब इसमें से, जो अध्याय चाहे खोलकर देख सकता है व साधना से सिद्धि संबंधी मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है। अपनी जीवन यात्रा को परम पूज्य गुरुदेव एक ब्रह्म कमल की जीवन यात्रा की उपमा देते थे। विगत वर्ष बसन्तपर्व पर “महाकाल का बसंतपर्व पर संदेश” में उनने लिखा था कि “इस जीवन रूपी दुर्लभ ब्रह्मकमल के अस्सी फूल पूरी तरह खिल चुके। एक से एक शोभायमान पुष्पों के खिलते रहने का एक महत्वपूर्ण अध्याय पूरा हो चला ----- सूत्र संचालक सत्ता के इस जीवन का प्रथम अध्याय पूरा हुआ। स्वयं वे बसन्तपर्व से प्रायः साढ़े चार माह बाद माँ गायत्री के अवतरण के पावन पुण्य दिवस गायत्री जयन्ती(2 जून 1990)को अपनी आध्यात्मिक माता की गोद में विश्राम हेतु चले गए। यह स्थूल काया के बंधनों से मुक्ति भर थी। सूक्ष्म व कारण शरीर से सक्रिय होने व परोक्ष जगत को प्रचण्ड ऊर्जा से तपाने के लिए उनने यह अनिवार्य समझा व अपनी मार्गदर्शक सत्ता के संकेतों पर स्वेच्छा से काय पिंजरों से दृश्य जीवन का पटाक्षेप कर दिया। जो जीवन इस महामानव ने अस्सी वर्ष तक जिया उसका एक-एक पल माँ गायत्री को समर्पित रहा है। गायत्री उनके रोम-रोम में थी, हर श्वास में थी। हम जब बाल्यकाल पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि बचपन से ही संस्कारवान साधक के चिन्ह उनमें विद्यमान थे,पाँच छह वर्ष का बालक बार-बार अमराई में जाकर बैठे व सहज ही आसन सिद्धि कर जप स्वयं भी करे व औरों को करने की प्रेरणा दे, यह असाधारण बात ही मानी जानी चाहिए। घर का वातावरण धार्मिक था, माता जी बड़े सात्विक विचारों वाली, सतत् शिक्षण देते रहने वाली एक स्नेही माँ थी। पिता भागवत के प्रकाण्ड पण्डित थे। वे चाहते तो बाल्यकाल से ही पिताजी के पद चिन्हों पर चलते हुए कथावाचक भी बन सकते थे


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