परोक्ष जगत इस दृश्यमान जगत का प्राण है। उसका विस्तार, वैभव एवं सामर्थ्य स्रोत इतना बड़ा है कि प्रत्यक्ष को इसका नगण्य सा भाग कहा जा सकता है। जल का जितना प्रवाही स्वरूप दीख पड़ता है, उसकी तुलना में आकाश में भ्रमण करने वाला उसका वाष्प स्वरूप कहीं अधिक है। इसी प्रकार प्रकृति के अन्यान्य पदार्थ जितने पृथ्वी पर ठोस रूप में विद्यमान हैं, उनकी अपेक्षा वायुभूत होकर अनेक गुनी मात्रा में आकाश में उड़ते रहते हैं। सम्पदा के भाण्डागार आकाश में परिभ्रमण करते रहते हैं। परोक्ष विज्ञान के ज्ञाता उसमें से जिस वस्तु को जब जितनी मात्रा में आवश्यकता होती है, खींचकर हस्तगत कर लेते हैं। इन्हीं को सिद्धियाँ कहते हैं।
सामर्थ्य एवं विस्तार की दृष्टि से सूक्ष्म होने के कारण अदृश्य जगत हर दृष्टि से वरिष्ठ पाया गया है। प्रतिविश्व, प्रतिकणों के रूप में वैज्ञानिक इसी परोक्ष जगत की विवेचना करते पाए जाते हैं, कहते हैं कि दृश्य जगत व इस परोक्ष जगत के मध्य अधिक गहरा आदान-प्रदान चल पड़े तो अपने इसी धरातल पर स्वर्गलोक जैसी परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर होने लगें। इसके विपरीत यदि दोनों के बीच संतुलन किसी प्रकार गड़बड़ा जाय तो निश्चित मानना चाहिए कि महाप्रलय अब कभी भी हो सकती है।
पृथ्वी का सौंदर्य व सुख-सुविधाओं की प्रचुरता जिस कारण से है, तत्वदर्शी कहते हैं कि उसे कभी भी न बिसराया जाना चाहिए। मूलतः विश्व ब्रह्मांड की उपलब्ध जानकारी में पृथ्वी को ही सबसे अधिक समुन्नत पाया जाता है व इसका कारण है अन्यान्य ग्रहों, उपग्रहों से, ब्रह्मांड स्थित अन्यान्य तारकों से इसे मिल रहें संतुलित अनुदान। जिस प्रकार बच्चों का विकास अपने निज के बलबूते नहीं, अभिभावकों-पड़ोसियों व समाज के विभिन्न घटकों के कारण हो पाता है, इसी प्रकार पृथ्वी को एक ऐसा सुयोग मिला है कि इस पर अनुदानों की सतत् वर्ष होती रहती है। अन्तर्ग्रही अनुदान यदि पृथ्वी को न मिले होते तो सचमुच यहाँ जीवन न होता। पृथ्वी को प्राण पोषण सूर्य चन्द्रमा से ही नहीं, अनेकानेक नक्षत्रों से उपलब्ध होता है। बादल बरसते दीखते हैं, पर लोक-लोकान्तरों से जो बहुमूल्य सम्पदा बरसती है, उसे कोई जान-समझ इसलिए नहीं पाता कि वह दृश्य न होकर अदृश्य होती है। यह है चेतन जगत की, अदृश्य की, परोक्ष की महिमा।
परोक्ष जगत वस्तुतः चेतना के एक विशाल समुद्र के रूप में हमारे चारों ओर विद्यमान है। ठीक उसी तरह जैसे कि वायुमण्डल व आयनोस्फियर्स की परतें हमारे चारों ओर हैं। अध्यात्म विज्ञानी कहते हैं कि वायुमण्डल की विषाक्तता का परोक्ष जगत पर प्रभाव पड़ता है, यह सत्य है किन्तु इससे भी बड़ा सत्य जो पिछले दिनों उभर कर आया है, वह यह कि जन समुदाय की विचारणा, आकाँक्षा व चेष्टा जिस स्तर की होती है, उसके अनुरूप अदृश्य वातावरण बनता है और भली बुरी परिस्थितियों के रूप में प्रकट होता है।
सूक्ष्मदर्शी कहते हैं कि इन दिनों वायुमण्डल प्रदूषण बढ़ने की तरह चेतनात्मक वातावरण के समुद्र में भी भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट चरित्र के कारण विषाक्तता बेतरह बढ़ चली है। समुद्र की सतह पर तेल फैल जाने पर उस क्षेत्र के जलचर घुटन से संत्रस्त होकर मरते देखे जाते हैं। कुवैत के तेल के कुएँ जलने व अलास्का की खाड़ी में तेल का जहाज डूब जाने पर एक विशाल क्षेत्र में यह हम पिछले दिनों घटित हुआ देख चुके हैं। ठीक इसी प्रकार अदृश्य वातावरण में परोक्ष जगत में आसुरी विषाक्तता की वृद्धि से अनेकानेक संकट एवं विग्रह खड़े होते हैं। इनका त्रास घुटन से भी अधिक कष्टकर होता है।
दुश्चिंतन की भरमार से विषाक्त अदृश्य वातावरण और इससे फिर लोकमानस में असुरता निकृष्टता का बढ़ना-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही स्तर पर, दैवी प्रकोप जीवधारियों पर बरसना यह एक ऐसा कुचक्र है जो एक बार चल पड़ने पर फिर टूटने का नाम नहीं लेता। लोक चिन्तन व प्रवाह का अदृश्य वातावरण से बड़ा गहरा व अन्योन्याश्रय संबंध है। ऐसे विग्रह व संकट न सुलझते हैं, न घटते हैं, न टलते हैं।
सामान्य स्तर के समाधान प्रयास प्रायः ही निरर्थक चले जाते हैं। आज की प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों स्तर पर छाई विपत्तियों-परिस्थितियों का विश्लेषण इसी प्रकार किया जाना चाहिए।
दैवी प्रकोपों का-विपत्तियों का स्तर व अनुपात पिछले एक दशक से बढ़ता ही जा रहा है व युगसन्धि के आगामी 9 वर्षों में यह और बढ़ेगा ही, कम नहीं होने वाला। कई बार महाप्रलय निकट होने जैसी आशंका सामने आ खड़ी होती है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाय? जनसाधारण इस पर विचार करने में स्वयं को असहाय पाता है। ऐसे में मनीषी गणों का मार्गदर्शन खोजने पर यही निर्देश मिलता है कि एकाकी नहीं, संघबद्ध प्रयासों द्वारा अदृश्य जगत का-परोक्ष का परिशोधन किया जाय। अनीति एवं अनाचार विक्षुब्ध प्रकृति और देवी प्रकोप स्थायी नहीं अस्थायी प्रतिक्रियाएँ हैं। इन कुचक्रों से संघबद्ध प्रयासों द्वारा नीतिमत्ता और आचरण में पवित्रता का समावेश करते हुए जूझा जाय, संघशक्ति की स्थापना कर सामूहिक धर्मानुष्ठानों से इनका उपचार किया जाय, यह आज के लिए मनीषियों का मार्गदर्शन हैं। अवतार प्रकरण की सूक्ष्म प्रक्रिया अपने स्थान पर है लेकिन सुधार-प्रयोजन का दूसरा पक्ष मनुष्यकृत है, जिसे जाग्रत व्यक्ति आपत्ति धर्म की तरह अपनाते व स्रष्टा के प्रयोजन में हाथ बँटाते हैं। अदृश्य जगत का-सूक्ष्म क्षेत्रों का परिशोधन अदृश्य स्तर की आत्मिक ऊर्जा के सहारे ही बन पड़ना संभव है। अध्यात्म उपचारों, सामूहिक धर्मानुष्ठानों को इसी प्रयोजन के लिए किया जाता है।
सामूहिक अध्यात्म उपचारों से अदृश्य वातावरण की संशुद्धि के अगणित इतिहास-पुराणों में भरें पड़े हैं। आसुरी सत्ता से भयभीत देवगणों को रक्षा का आश्वासन ऋषि रक्त के संचय से बनी सीता के माध्यम से मिला था। इसी प्रकार देवता जब संयुक्त रूप से प्रजापति के पास पहुँचे, एक स्वर से प्रार्थना की तो महाकाली प्रकट हुई जिन्होंने असुरों का संहार किया। संघशक्ति की ही यह परिणति थी। जिस समय राम-रावण युद्ध हो रहा था, अगणित अयोध्यावासी मौन धर्मानुष्ठानरत थे ताकि अन्याय परास्त हो, नीति की विजय हो। यह वस्तुतः शब्द शक्ति के समवेत प्रयोग-उपचारों से वातावरण संशोधन की प्रक्रिया है।
शब्द शक्ति सूक्ष्म मानवी काया तथा परोक्ष अन्तरिक्षीय जगत को प्रभावित करने वाली एक समर्थ ऊर्जा शक्ति है। यह जीभ से नहीं मन व अंतःकरण से निकलती है। लोकप्रवाह को निष्कृष्टता से उलट कर उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के लिए जो उच्चस्तरीय शब्द सामर्थ्य चाहिए, वह सृष्टि के आरंभ में उच्चारित हुए गायत्री मंत्र में विद्यमान हैं। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षर जब एक समय में एक साथ, एक प्रकार से, एक प्रयोजन के लिए ध्वनित होते हैं तो उसमें सामूहिकता की प्राणशक्ति का आश्चर्यजनक समावेश होता है। सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि गायत्री मंत्र की जितनी आवृत्तियाँ हुई हैं, उतनी और किसी उपासना प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाले शब्द-गुच्छक की नहीं। सृष्टि की श्रेष्ठतम विभूति है गायत्री आद्यशक्ति, उसका शब्द गुँथन इस प्रकार हुआ है जो भावार्थ और