शक्ति की साधना आवश्यक एवं अनिवार्य

October 1991

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मनीषियों के अनुसार संसार में सभी प्रकार के दुखों के मूल में तीन कारण हैं- अज्ञान, अशक्ति और अभाव। उनके अनुसार इन तीनों कारणों को दूर कर सुखी बना जा सकता है। देखा यह जाना चाहिए कि कुशलता, समर्थता और सम्पन्नता अर्जित कर क्या वास्तव में यह संभव है। सामान्य बुद्धि तो यही कहती है कि ज्ञान एवं कला कौशल में विगत एक शतक में काफी वृद्धि हुई है, साथ ही सुख-सुविधा के साधन भी तेजी से बढ़े हैं। इनसे मनुष्य को शान्ति मिलना चाहिए थी एवं सर्वतोमुखी प्रसन्नता तथा प्रगति के अवसर उपलब्ध होना चाहिए थे, किन्तु ऐसा हुआ नहीं है।

आज न तो संपन्नता की कमी है, न अक्लमंदी की। साधन भी प्रचुर हैं। विज्ञान ने सुविधाओं के अम्बार आसमान से जमीन पर ला खड़े किए हैं। हर समाज, वर्ग व राष्ट्र ने अपने-अपने ढंग से समृद्धि संवर्धन का प्रयास किया है। विज्ञान की चतुर बुद्धि ने उनकी मदद की है और सुख-सुविधाएँ जुटाने वाले सभी साधन आज सन् 2000 के इस अंतिम दशक में जी रहे व्यक्ति के पास हैं। जो कुछ भी साधन सामग्री आज की पीढ़ी वालों के पास है, वैसे सृष्टि के प्रारंभ से लेकर इस शताब्दी के मध्यकाल तक कभी भी किसी के पास नहीं थे। इन सब के बावजूद चारों ओर अभाव ही अभाव, अशान्ति छाई दिखाई पड़ती है। ऐसा क्यों?

वस्तुतः बात यह नहीं है कि पाँच सौ करोड़ मनुष्यों की उचित आवश्यकताओं को पूरा कर सकने के लिए संसाधन इस धरती के पास नहीं हैं। सभी चैन से सुख शान्ति से रह सकें इतने सुविधा साधन हमारी इस पृथ्वी के भाग्य विधाताओं के पास हैं किन्तु संचय की ललक और उपयोग की लिप्सा ने सम्पत्ति का सदुपयोग संभव नहीं रहने दिया है। साधन बढ़ रहे हैं, सम्पत्ति भी तेजी से बढ़ रही है। इतने पर भी यह आशा नहीं बँधती कि जनसाधारण की अभाव, अशक्ति एवं अज्ञान की समस्याओं का हल निकलेगा। व्यक्ति दिन-दिन शारीरिक, मानसिक और आन्तरिक हर क्षेत्र में दुर्बल पड़ता जा रहा है। रुग्णता और दुर्बलता एक प्रकार का फैशन एवं प्रचलन बन गये हैं यद्यपि पौष्टिक खाद्य पदार्थों एवं चिकित्सा साधनों की कहीं कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार मस्तिष्कीय विकास के लिए पाठशालाओं से लेकर पुस्तकों के अम्बार, वीडियो से लेकर कम्प्यूटर्स तक सभी साधन उपलब्ध हैं। मनुष्य की जानकारी बढ़ाने वाले सभी साधन विगत दो दशक में तो तेजी से बढ़े व जन-जन को सुलभ हुए हैं।

अशिक्षा-निवारण व साक्षरता से लेकर ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न धाराओं को जन-जन तक पहुँचाने के लिए युद्ध स्तरीय प्रयास सारे विश्व में चल रहे हैं। विज्ञ एवं कुशल-जानकर व्यक्तियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। इतने पर भी मनोरोग, हेय-चिन्तन, दुर्भावनाएँ अनुपयुक्त महत्वाकाँक्षाएँ जैसे अनेकों आधार खड़े हो जाने के कारण जनमानस में असंतुलन व आक्रोश उत्पन्न करने वाले तत्वों की ही भरमार दिखाई देती है। व्यक्ति शिक्षित तो है पर जीवन कैसे जीना चाहिए, इस इस विषय में अज्ञानी है। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता कहीं-कहीं अपवाद रूप में दृष्टिगोचर होती है। तनाव, बेचैनी, खिन्नता, उद्विग्नता, असुरक्षा व एकाकीपन की भावना ही सबके सिर पर छाई दिखाई देती है व लगता है किसी तरह सभी जिन्दगी की लाश ढो रहे हैं। विक्षिप्तों, अर्धविक्षिप्तों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सनकी और वह भी पढ़े लिखे लोगों में देखे जाते हैं। बढ़ी हुई विपन्नता में हताशा-आत्महत्याओं का दौर बढ़ रहा है। बाहर से चतुर और बुद्धिमान, सुशिक्षित और सभ्य दीखने वाले भी भीतर ही भीतर इतने खोखले और उथले पाए जाते हैं कि कई बार तो उनके पढ़े लिखे होने में भी संदेह होने लगता है। स्वस्थ और संतुलित मनःस्थिति वाले आज खोज निकालना कठिन सा हो गया है।

परिवारों को देखें तो पारस्परिक स्नेह-सौजन्य, सौहार्द्र कहीं दिखाई नहीं देता। पारस्परिक आत्मीयता का दर्शन दुर्लभ हो गया है। पारिवारिक जीवन नीरस निरानन्द हो चला है। पति-पत्नी के संबंधों के मूल में लगता है, अब यौन लिप्सा ही वह आधार रह गया है जिससे वे दोनों जुड़े रहते हैं। इसी प्रसंग में बच्चे आ सकते हैं और उनके प्रति जो प्रकृति प्रदत्त माया-मोह रहता है, वह सूत्र भी पति-पत्नी को किसी प्रकार बाँधे रहता है। यदि यौन आकर्षण और बच्चों का मोह हटा लिया जाय तो सहज सौजन्य से प्रेरित भाव भरा दाम्पत्य जीवन कदाचित ही कहीं दृष्टिगोचर होगा। समृद्धि के साथ स्वच्छन्दता ने परिवारों को तोड़ दिया है और लोग सराय में दिन बिताने वालों की तरह किसी तरह दिन गुजारते हैं।

वस्तुतः अज्ञान ही वह कारण है जिसकी परिणति स्वरूप आज यह संकट छाया चारों ओर दिखाई देता है। आत्मोत्कर्ष की बात तो दूर व्यक्ति का चिन्तन इतना सीमित होकर रह गया है कि वह सारी सुख-सुविधाओं का अम्बार होते हुए भी उनके सदुपयोग की समझदारी नहीं जुटा पाता। अनेकों भूलें उससे होती चली जाती हैं किन्तु विवेक के, दूरदर्शिता के अभाव में कार्यों को प्रेरणा व दिशा मिलती कहीं दीखती नहीं। फलतः वह दुःखी पीड़ित उद्विग्न होता चला जा रहा है। मनीषियों की बात समझ में आती है कि अज्ञान दुखों का मूलभूत कारण है।

अशक्ति दुखों का दूसरा कारण बताया गया है व इस पर ऊपर विवेचन भी किया गया कि आज व्यक्ति की जीवन के प्रति आस्थाएँ गड़बड़ा जाने से वह शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से दीन-दुर्बल तथा खोखला एवं मानसिक दृष्टि से अपंग-मनोविकार ग्रस्त हो गया है। अस्पताल बढ़ते ही चले जा रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान ने आधुनिकतम साधन जुटा लिए हैं पर अशक्ति मिटने का नाम ही नहीं लेती, एक बीमारी के लिए औषधियों का अविष्कार होता है, तब तक अगणित नई जन्म ले लेती हैं। फुँसियों पर दवाएँ लगाने से रक्त की विषाक्तता तो दूर हो नहीं सकती। आज समर्थता बढ़ाने के लिए इसी स्तर के प्रयास चल रहे हैं। पत्तियों को दिया गया खाद पानी जड़ों तक कैसे पहुँचे? यही वह विडंबना है। जिसके चलते आज सारा समाज, विश्व रुग्ण-दुर्बल अशक्त नजर आता है। अचिन्त्य चिन्तन से पैदा हुआ तनाव इतना विस्फोटक बन गया है कि अगणित रोग यथा उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, मस्तिष्कीय रक्तस्राव, अपच, मधुमेह, पेप्टिक अल्सर, दमा जैसी असाध्य व्याधियाँ मात्र इसी कारण हो रही हैं। स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेर रखा हो तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरुणी, मधुर गीत वाद्य, सुन्दर दृश्य, सैर सपाटे के साधन सभी निरर्थक हैं। यह अशक्ति हर क्षेत्र में है, चाहे वह शारीरिक, मानसिक या सामाजिक हो अथवा बौद्धिक एवं आत्मिक। श्रुति कहती है कि बलहीन को आत्मोत्कर्ष का पथ नहीं मिलता “नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।” तो इस तरह अशक्ति के रहते आज का मनुष्य दुखी है, तो कारण भी समझ में आते हैं।

अभाव जन्य दुख तीसरे प्रकार के हैं जिन से आज का विकसित संपन्न कहा जाने वाला मनुष्य ग्रसित है। विश्व में सब कुछ होते हुए भी उपभोग लिप्सा इतनी तेजी से बढ़ी है कि व्यक्ति को जो अपने पास है, उससे तनिक भी संतोष नहीं। अभावग्रस्त लोग


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