महर्षि याज्ञवलक्य के बाल्यकाल का प्रसंग है। वे नारायण तीर्थ नामक स्थान में महर्षि विदग्ध शाकल्य के आश्रम में ऋग्वेद का ज्ञान पा रहे थे। आनर्त राष्ट्र के नरेश सुप्रिय एक दिन आश्रम में आए व कुछ दिन ऋषि मुनियों के सत्संग में रहने की इच्छा व्यक्त की। महर्षि विदग्ध ने याज्ञवलक्य की नियुक्ति राजा को नित्य अभिषेक कर आशीर्वाद देने के लिए कर दी।
तीसरे दिन याज्ञवलक्य राजा के पास पहुँचे तो राजा नित्यकर्म से निवृत्त नहीं हुए थे। राजा ने नम्रतापूर्वक कहा-”ऋषिवर! आप कुछ देर रुकें।” याज्ञवलक्य ने कहा कि “राजन्! यह आश्रम है। यहाँ का एक-एक क्षण बहुमूल्य है। आप यहाँ की मर्यादा निबाहें।” राजा ने उन्हें अभिमानी ब्राह्मण समझकर कहा “ऋषि कुमार! यदि तुम रुकना नहीं चाहते तो सामने पड़े लक्कड़ पर मेरे लिये लाया तपःपूत जल डाल कर चले जाओ।” याज्ञवलक्य ने ऐसा ही किया।
सायंकाल राजा की दृष्टि सूखे लक्कड़ पर पड़ी जो दिन भर में हरा हो गया था व उसमें नवीन पत्तियाँ, फूल लग गये थे। राजा ने सोचा जिस जल ने इस शुष्क काष्ठ को हरा भरा कर दिया, वह यदि मुझ पर पड़ता तो मुझे तो निहाल कर देता। अशाँत स्थिति में वे महर्षि के पास पहुँचे व कुमार याज्ञवलक्य से क्षमा माँगी।
यही ऋषि कुमार जो महर्षि विश्वामित्र के कुल के थे व ऋषि देवरात के पुत्र थे, अपनी गायत्री साधना के बलबूते चारों वेदों के ज्ञाता महर्षि याज्ञवलक्य बने। यज्ञ प्रक्रिया या वैज्ञानिक अनुसंधान इन्हीं के द्वारा संपन्न हुआ।