महर्षि दयानन्द के गुरु श्री विरजानंद जी ने आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ऋषिकेश के दुर्गम क्षेत्र में गंगाजल में खड़े होकर गायत्री साधना की थी। प्रज्ञाचक्षु श्री विरजानन्द जी का गायत्री उपासना पर दृढ़ विश्वास था एवं इसी कारण वे पढ़ न पा सकने के बावजूद अध्यात्म ग्रन्थों के मर्म को गहराई तक जानते थे। उनने ही प्रेरणा देकर भटक रहे दयानन्द को पास बुलाकर शक्तिपात किया था। महर्षि दयानन्द अपने गुरु से गायत्री का ब्रह्मवर्चस् प्राप्त कर ही सारे भारत वर्ष में एक धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक क्राँति का वातावरण बनाने में सक्षम हुए। स्वयं स्वामी जी अपने अनुभव के आधार पर लिखते हैं कि इस महामंत्र द्वारा परमात्मा के तेज का ध्यान करने से बुद्धि की मलिनता दूर हो जाती है। दूसरे किसी मंत्र में ऐसी गहराई और सच्चाई नहीं है।
वैसा ही वातावरण इस सिद्धपीठ पर विनिर्मित किया गया है।
आज के अशक्ति, अज्ञान, अभाव से भरे जमाने में जब शक्ति की-बल की उपासना हेतु उचित वातावरण की सबको तलाश है, शाँतिकुँज का सभी साधक स्तर की मनोभूमि वाले व्यक्तियों से फलदायी सिद्धिदात्री साधना करने हेतु सहर्ष आमंत्रण है। वर्ष भर चलने वाले नौ दिवसीय अथवा एक माह के युगशिल्पी सत्रों में शाँतिकुँज हरिद्वार 249411 (उ.प्र.) के पते पर पत्र व्यवहार कर भागीदारी हेतु अनुमति प्राप्त की जा सकती है।