उपासना का विज्ञान

October 1991

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उपासना का अर्थ है समीपता। भौतिक अर्थों में समीपता का तात्पर्य इतना ही है- किसी के पास जा बैठना, उसकी निकटता हासिल कर लेना। पर कोई भी वस्तु, घटना, परिस्थिति नितान्त भौतिक नहीं होती। भौतिक तो सिर्फ ऊपर से दिखने वाला खाँचा-ढांचा है। इसके पीछे विद्यमान क्रियाशील स्पन्दनों के रूप में ऐसा बहुत कुछ विद्यमान है, जिसे हमारी आंखें भले न देख पाएँ पर संवेदनशील अन्तःकरण उसे पल-पल अनुभव करता रहता है। इन अर्थों में समीपता एक छोटी सी घटना न होकर एक सूक्ष्म प्रक्रिया है। जिसे व्यक्तित्व के रूपांतरकारी प्रयोग के रूप में समझा जा सकता है।

मनोवैज्ञानिक थूलेस ने इसे कहीं अधिक सूक्ष्म और तीव्र मनोरसायन “साइको केमिस्ट्री” के रूप में जाना है। उनके ग्रन्थ “इंटररिवेक्शन्स विट्वीन पर्सनाल्टीज” के अनुसार इस प्रक्रिया की प्रभाविकता और तीव्रता का अनुपात उसी रूप में होता है, जिस रूप में समीपता की स्थिति है। समीप होने के लिए आवश्यक है एक के व्यक्तित्व का कोई पहलू दूसरे के व्यक्तित्व के किसी पहलू से मेल खाता हो। व्यक्तित्व के जितने अधिक पक्षों में पारस्परिक सामंजस्य होगा, निकटता उतनी ही अधिक होगी। इसके प्रभाव में दोनों के बीच ऐसी अन्त क्रिया घटित हो जाएगी कि वे एक दूसरे को अपने भावों-विचारों में साझीदार बनाने लगेंगे। धीरे-धीरे यह साझीदारी, प्रगाढ़ता, और एकात्मता में बदल जाती है। यहाँ तक कि सबल व्यक्तित्व का हलका सा स्पर्श, थोड़ा सामीप्य भी दूसरे व्यक्तित्व के सभी पहलुओं को बदल डालने वाला सिद्ध होता है। नारद के द्वारा बाल्मीकि के व्यक्तित्व का परिवर्तन, महात्मा बुद्ध के द्वारा अंगुलीमाल को बदल देना समीपता के इन्हीं मनोवैज्ञानिक प्रभावों को बताते हैं।

इन मनोवैज्ञानिक अर्थों में उपासना को आत्मा और परमात्मा के बीच सद्गुणों, सद्भावों और चित शक्ति के संवहन की अंतःक्रिया समझा जा सकता है। थियोलॅजियन अपटॉन सिक्लेयर के ग्रन्थ “साइकोलॉजी ऑफ रिलीजन” के अनुसार एक मात्र परम पुरुष ही है जिससे सर्वाधिक प्रगाढ़ और चिरस्थाई सम्बन्धों की स्थापना सम्भव है। इस कथन के पीछे उनका तर्क यह है कि परमात्मा का व्यक्तित्व अनन्त आयामी है। उसी से मानवी व्यक्तित्व के सभी आयामों के बीच ठीक-ठीक सामंजस्य सम्भव है। फिर यह मात्र व्यक्तित्व और व्यक्तित्व के बीच सामंजस्य स्थापना भर नहीं है बल्कि व्यक्ति का परम व्यक्ति से मिलन है।

यों यह कहा जा सकता है जब भगवान कण-कण में समाए हुए है तब मानवी काया और चेतना में समाए हुए क्यों नहीं होंगे। जो अपने में ओत-प्रोत हैं, वे दूर कैसे? जो दूर नहीं है उनकी विवेचना इस प्रकार हो सकती है कि यह समीपता उथली है, गहरी नहीं। माना कि शरीर में हलचलों के रूप में, मन में चिन्तन के रूप में विश्वव्यापी चेतना ही काम कर रही है तो भी स्पष्ट है मनुष्य की आकाँक्षाएँ, आस्थाएँ दिव्य सत्ता के अनुरूप नहीं है। उनमें निकृष्टता का आसुरी अंश भरा पड़ा है। मनुष्यता की सार्थकता तभी है, जब उसका स्थान और स्तर भी उसी के अनुरूप ऊँचा उठ सके। निम्न योनियों के जीवधारी भोजन और संतति संवर्धन के लिए जीते हैं। स्वार्थ सिद्धि ही उनकी नियति होती है। शरीरगत लाभ ही उनके प्रेरणा स्रोत होते हैं। दूसरों के साथ वे आत्म भाव बहुत थोड़ी मात्रा में मिला पाते हैं? परमार्थ परायणता के अंश उनमें नगण्यप्राय ही देखे जा सकते हैं। अन्तः संरचना की यही स्थिति यदि मनुष्य की बनी रहे, उसका व्यक्तित्व यदि निम्न प्राणियों की तरह भोंड़ा और भद्दा हो तो समझना चाहिए कि कायिक विकार हुआ चेतनात्मक नहीं।

बहुतायत उन्हीं की है जो शरीर संरचना भर से मनुष्य हैं। उनके दृष्टिकोण में पिछड़ी योनियों जैसी निकृष्ट स्वार्थ परता भरी पड़ी है। आयु की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाने पर भी यदि सारा आचार-विचार बच्चों जैसा बना रहे तो उस अविकसित व्यक्तित्व पर चिन्ता व्यक्त की जायगी। ठीक यही दशा हममें से बहुतों की है जो इस देवदुर्लभ शरीर में प्रवेश तो पा गए पर उनने दृष्टिकोण में, क्रियाकलाप में वही पिछड़े कृत्य संजोए रखे।

व्यक्तित्व को इस दयनीय स्थिति से उबारने के लिए उपासना का उपक्रम अपनाना पड़ता है। यह समूची अन्तः संरचना को बदल डालने वाला महान-प्रयोग है, जिसे पूरा करने के लिए समय श्रम और मनोयोग के साथ अटूट धैर्य की आवश्यकता पड़ती है। जो इसे कर्मकाण्ड के कुछ कृत्यों के रूप में समझते हैं और उन्हें उल्टे-सीधे ढंग से पूरा करके लाभ बटोरना चाहते हैं, उन्हें परिणाम में निराशा मिलनी सहज है।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि कर्मकाण्ड निरर्थक है। इनकी अपनी उपयोगिता और आवश्यकता शरीर और मन को आदर्शवादी सीमाओं में बाँधे रखने में है। इस प्रयोग के दो पक्ष हैं। प्रथम में उन तैयारियों की गणना होती है जिसके द्वारा हम शरीर और मन को उपासना के लिए ईश्वर की समीपता पाने के लिए तैयार करते है। ये तैयारियाँ महत्वपूर्ण है और अनिवार्य भी। जब किसी उच्च पदस्थ अधिकारी अथवा किसी अन्य अति विशिष्ट व्यक्ति से मिलने के लिए हमें अपने को तैयार करना पड़ता है, आवश्यक मनोभूमि बनानी पड़ती हैं। अनेकों सावधानियाँ बरतनी पड़ती है। तब विश्व संरचना के सर्वोच्च अधिकारी, समस्त जीवन व्यापार के केन्द्र बिन्दु से घनिष्ठता पाने के लिए यदि सावधानी बरतनी पड़े तो आश्चर्य क्या?

तैयारियों का तात्पर्य उन बाधाओं, विघ्नों का निवारण, निष्कासन और निराकरण है जो उपासना में बाधक हैं। ये सारी बाधाएँ कहीं बाहर न होकर हमारे स्वयं के व्यक्तित्व में है। इनके निवारण का नाम ही तप है। बाह्य परिस्थितियाँ हमारी इन तैयारियों में साथ दें इसी की पूर्ति के लिए कर्मकाण्ड हैं। व्यक्तित्व की संरचना भेद, समय और परिस्थितियों के बदले रूप के अनुसार इनके प्रकार अनेक हो सकते हैं, पर प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय आचार्य इस तथ्य से सहमत हैं कि इन सबके पीछे एक ही मूल तत्व है, स्वयं के अस्तित्व को परम अस्तित्व से जोड़ने, मिलाने, समीप ले जाने के लिए तैयार करना।

तैयारियाँ उपासना का प्राण है। इस महाविद्या में निष्णात् होने के लिए अनिवार्य शुल्क, जिसको चुकाए बिना इसमें प्रवेश मिलना सम्भव नहीं। योगदर्शन के सूत्रकार महर्षि पतंजलि ने इन्हीं को यम-नियम का नाम दिया है। गाँधी जी के एकादश व्रतों का तात्पर्य यही है। बुद्ध के आर्य अष्टांगिक मार्ग और भगवान महावीर के पंच महाव्रतों का रहस्य यही है। लाओत्से ने अपने स्वर्ण सिद्धाँत में इसी सत्य को उजागर किया है।

ठीक-ठीक तैयारी के बाद ही वे क्षण आते है जब हम भौतिक जीवन से ऊपर उठ जायँ? महामिलन के इन क्षणों में आत्मा का स्वरूप जीवन लक्ष्य एवं परमात्मा सान्निध्य के अलावा और कुछ सूझ ही न पड़े। यही उपासना है। इसकी पहचान इतनी ही है कि उन क्षणों में मन के ऊपर आत्मिक स्तर का चिन्तन छाया रहा या भौतिक स्तर का। यदि साँसारिक मनोकामनाओं की भीड़ उथल-पुथल मचाए रही तो समझना चाहिए यह कृत्य भी विशुद्ध रूप से भौतिक ही हैं। इसमें आत्मिक प्रगति जैसे किसी लाभ की कोई सम्भावना नहीं। यदि उतने समय में शरीर रहित भौतिक प्रभावों से मुक्त ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उस महाज्योति के साथ समन्वित हो जाते ही दीप-पतंग जैसी आकाँक्षा उमड़ रही है तो समझना चाहिए कि उपासना का सच्चा स्वरूप अपना लिया गया।

मनोवैज्ञानिक थियोडर रेक ने इन क्षणों में घटने वाली मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को एक खास नाम दिया है पर्टिशिपेशन मिस्टीक। उनके अनुसार इस समय


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