क्रमबद्ध अनुष्ठान की व्यवस्था (Kahani)

October 1991

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शतपथ ब्राह्मण में एक आख्यायिका आती है जिस में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि एक पुरोहित गायत्री के मर्म से वंचित रहने के कारण साधारण उपासना करते रहने पर भी समुचित सत्परिणाम प्राप्त न कर सका।

संस्कृत की ऋचा का भाव यह है कि राजा जनक का पूर्वजन्म का पुरोहित वुडिल अनुचित दान लेने के पाप से मरकर हाथी बन गया। किन्तु राजा जनक ने गायत्री का तप किया, जिसके फल स्वरूप वह राजा बने। राजा ने हाथी को उसे पूर्वजन्म का स्मरण कराते हुए कहा-”आप तो पूर्व जन्म में कहा करते थे कि मैं गायत्री का ज्ञाता हूँ। फिर अब हाथी बनकर क्यों बोझ ढोते हो?” हाथी ने कहा “मैं पूर्वजन्म में गायत्री का मुख नहीं समझ पाया था। इसलिए मेरे पाप नष्ट न हो सके। जैसे मुखाग्नि डाले गए ईंधन को भस्म कर देती है, इसी तरह गायत्री का मुख जानने वाला आत्मा अग्नि मुख होकर पापों से छुटकारा पाकर अजर अमर बन जाता है।” बाद में पुरोहित को मुक्ति मिल गयी।

विशेष रूप से युगसंधि की इस अवधि में तो वह विशिष्ट फलदायी होता है। त्रिपदा के रूप में इसकी तीन सिद्धियाँ अमृत-चिरयौवन, पारस-सत्साहस, कल्पवृक्ष परिष्कृत चिन्तन, आप्तकाम होने का सौभाग्य अनुदान प्राप्त होते हैं। इस बार के नवरात्रि आयोजनों से सारे भारत में शक्तिसाधना का बीजारोपण करने वाले कार्यक्रमों का शुभारंभ हो रहा है। जहाँ भी व्यवस्था बन सकें, वैयक्तिक व सामूहिक स्तर पर क्रमबद्ध अनुष्ठान की व्यवस्था की जाए ताकि परोक्ष जगत से बरसने वाले देवी अनुदानों से सब लाभ उठा सकें।

गायत्री की उच्च स्तरीय साधना-1


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