परम प्रेरणाप्रद, फलदायी दैनिक जीवन की गायत्री उपासना

October 1991

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गायत्री महामंत्र में असाधारण शक्ति है। प्रायः सभी प्रकार अवतार, ऋषि, योगी, मनीषी, तत्ववेत्ता गायत्री उपासना के माध्यम से आत्मबल संवर्धन और भावनात्मक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा करते रहे हैं। मंत्र साधना से भौतिक किंवा आध्यात्मिक सिद्धि के क्षेत्र में गायत्री मंत्र की गरिमा सर्वोपरि है। किसी भी भारतीय संस्कृति के अनुयायी को इस महामंत्र की उत्कृष्टता के संबंध में किसी प्रकार का संदेह न रख भावनापूर्वक दैनन्दिन उपासना कृत्यों में इसे स्थान देना चाहिए।

नियमित उपासना के लिए पूजा स्थली की स्थापना आवश्यक है। इसके लिए स्थान ऐसा हो, जहाँ अपेक्षाकृत अधिक एकान्त हो, आवागमन और कोलाहल कम हो। ऐसे स्थान पर एक छोटी चौकी को पीत वस्त्र से सुसज्जित कर उस पर माँ गायत्री का सुन्दर चित्र स्थापित किया जाय। गायत्री सब देवी देवताओं की शक्ति धाराएँ अपने में समाहित किए आद्यशक्ति-महाशक्ति है। अन्यान्य देवी देवताओं के चित्र भी पूजा स्थली में रखे जा सकते हैं पर वस्तुतः इनकी किसी की जरूरत है नहीं। यदि कोई और देवता किसी के इष्ट हों तो उनका चित्र या मूर्ति भी रह सकती है पर गायत्री का चित्र हर स्थिति में हो क्योंकि शास्त्रों के अनुसार गायत्री के बिना अन्य सभी साधनाएँ निष्फल हैं।

दैनिक साधना एवं अनुष्ठान उपक्रम में अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक मंत्रों का उपयोग लिखा गया है। गायत्री महाविज्ञान के तीनों भाग तथा गायत्री साधना विधि-विधान संबंधी छोटी-छोटी चौबीस पुस्तकों में इन्हें विस्तार से दिया गया है। शुद्ध रूप से इन मंत्रों को याद कर सकना सर्वसाधारण के लिए संभव नहीं है। अतः समय को देखते हुए यह उचित है कि एक गायत्री मंत्र के उच्चारण द्वारा ही विभिन्न प्रयोजनों की पूर्ति कर ली जाय। जिनकी स्मरण शक्ति मंत्रों को शुद्ध रूप से याद कर सकने की है, वे उनका उच्चारण करते हुए सभी विधि-विधानों को पूरा करते रह सकते हैं।

भारतीय धर्म में त्रिकाल संध्या का विधान है। पर अत्यन्त व्यस्त व्यक्तियों को भी प्रातः काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर एक बार तो उपासना करने के लिए समय निकाल ही लेना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिए कि आधा घण्टे से लेकर एक घण्टे तक का समय उपासना के लिए मिल सके। निःसंदेह इस प्रयोजन में लगा हुआ समय हर दृष्टि से सार्थक उपासना से होता है, आत्मिक प्रगति उसके फलस्वरूप व्यक्ति का समग्र विकास, उसके द्वारा सर्वतोमुखी समृद्धि की संभावना, यह चक्र ऐसा है, जिससे इस कृत्य में लगाया गया समय सार्थक ही सिद्ध होता है।

उपासना काल में हर घड़ी यही अनुभूति रहनी चाहिए कि हम भगवान के अति निकट बैठे है और साधक तथा साध्य के बीच सघन आदान-प्रदान हो रहा है। साधक अपने समग्र व्यक्तित्व को होम रहा है और वे उसे अपने समतुल्य बनाने की अनुकम्पा प्रदान कर रहे है।

अस्वस्थता की दशा में, सफर में, विधिवत उपासना कृत्य करने की स्थिति न हो तो आत्म शुद्धि, देवपूजन तथा जप, ध्यान आदि सारे कृत्य मानसिक उपासना के रूप में ध्यान प्रक्रिया के सहारे उन कृत्यों को करने की कल्पना करते हुए भी किये जा सकते हैं, उपासना में नागा करने की अपेक्षा इस प्रकार की मानसिक पूजा कर लेना भी उत्तम है। इससे संकल्पित साधना प्रक्रिया को किसी रूप में अनवरत चलती हुई तो रखा ही जा सकता है।

दैनिक साधना का क्रम इस प्रकार है-सबसे पहले आत्मशोधन-की संघ्या का विधान है। इसके पाँच अंग है (1) पवित्री करण (2) आचमन (3) शिखा बन्धन (4) प्राणायाम (5) न्यास इनका विधान बहुत सरल है।

1- पवित्रीकरण- बाँए हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से गायत्री मंत्र पढ़कर उस जल को सिर तथा सारे शरीर पर छिड़कें। पवित्रता रोम रोम में कण-कण में संव्याप्त हो रही है, यह भावना करें।

2-आचमन- जल से भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर तीन बार आचमन करें। प्रत्येक आचमन के पहले पाँच गायत्री मंत्र पढ़े। हाथ का स्पर्श मुख से न हो। हो जाय तो उसे ठीक से धो लें। आचमन करते समय काया, विचारणा व भावना इन तीनों क्षेत्रों में शाँति, शीतलता, सात्विकता के समाविष्ट होने की भावना करें।

3-शिखा-बन्धन-आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गाँठ लगानी चाहिए जो सिरा खींचने से खुल जाय, इसे आधी गाँठ कहते हैं। गाँठ लगाते समय गायत्री मंत्र का उच्चारण करते जाना चाहिए। शिखा-बन्धन का प्रयोजन ब्रह्मरन्ध्र में स्थित शत-दल चक्र की सूक्ष्म शक्तियों का जागरण करना है। जिसके शिखा स्थान पर बाल न हों, वे तथा महिलायें जल से उस स्थान को स्पर्श कर लें।

4-प्राणायाम-तीसरा नियम प्राणायाम है। वह इस प्रकार करना चाहिए।

(अ) स्वस्थ चित्त से मेरुदण्ड सीधा करके बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिए, नेत्रों को बन्द या अधखुला रखिये। अब साँस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिए, ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इस मंत्र का मन ही मन उच्चारण करते चलिये। भावना कीजिए कि विश्व व्यापी, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राणशक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूँ, इस भावना और इस मंत्र के साथ धीरे-धीरे साँस जितनी वायु भीतर भर सकें,भरिये।

(ब) अब साँस को भीतर रोकिये और ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इस मंत्र भाग का जप कीजिए। साथ ही भावना कीजिए कि नासिका द्वारा खींचा हुआ प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान तेजस्वी उसका तेज मेरे अंग प्रत्यंग में भरा जा रहा है। इस भावना के साथ पहले की अपेक्षा आधे समय तक वायु को रोके रखें।

(स) अब नासिका द्वारा वायु धीरे-धीरे निकालना आरम्भ कीजिए और ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ इस मंत्र भाग को जपिये तथा यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है, ऐसा मनन कीजिए वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगाना चाहिए जितना खींचने में लगा था।

(द) जब भीतर की वायु बाहर निकल जावे तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था उतनी ही देर बाहर रोक रखें अर्थात् बिना साँस लिए रहें और ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ इस मंत्र भाग को जपते रहें, साथ ही भावना करें कि ‘भगवती वेदमाता गायत्री हमारी सद्बुद्धि को जाग्रत कर रही है।’

यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए, जिससे काया के, वाणी के, मन के विविध पापों का संहार हो सके।

5-न्यास—न्यास कहते है धारण करने को, अंग-प्रत्यंग में गायत्री की सतोगुणी शक्ति धारण करने, भरने, स्थापित करने, ओतप्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है, बाँये हाथ में गायत्री मंत्र पढ़ते हुए जल लें। पाँचों उँगलियों को मिलाकर उन्हें हर बार जल में डुबोते हुए विभिन्न अंगों का स्पर्श इस भावना से करना चाहिए कि मेरे यह अंग गायत्री शक्ति से पवित्रतम एवं बलवान हो रहे हैं। नीचे लिखे अनुसार मंत्र बोलते हुए उनसे संबंधित अंगों का स्पर्श पहले बाँयी और फिर दाँयी ओर का स्पर्श किया जाना चाहिए।

1-ॐ भूर्भुवः स्वः (मस्तक को)2- तत्सवितुः (नेत्रों को) 3-वरेण्यं (कानों को) 4-भर्गो (मुख को) 5- देवस्य (कण्ठ को ) 6-धीमहि (हृदय को ) 7-धियो यो नः (नाभि को) 8- प्रचोदयात् (हाथ पैरों को ) 9-शेष जल गायत्री मंत्र पढ़ते हुए सारे शरीर पर छिड़क लें।

इतना उपक्रम करने के बाद देवपूजन किया जाता है। उपास्य गायत्री को अपना इष्ट मानते हुए जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप व नैवेध इन पाँच प्रतीक समर्पणों के माध्यम से पंचोपचार करें। एक-एक करके एक छोटी तश्तरी में इन पाँचों को पूजा- अभ्यर्थना के उद्देश्य से समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है नम्रता-सहृदयता। अक्षत से भावार्थ है- श्रमदान, अंशदान। पुष्प का अर्थ है- प्रसन्नता, उल्लास, प्रगति। धूप-दीप अर्थात् स्वयं जलकर सुगन्ध का आलोक का वितरण, पुण्य परमार्थ। नैवेध अर्थात् स्वभाव, चरित्र एवं व्यवहार में सज्जनता का माधुर्य। पाँच उपचारों-कृत्यों के द्वारा व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से सुसम्पन्न करने का संकल्प उभारा जाता है और विश्वास किया जाता है कि परमात्मा के साथ घनिष्ठता स्थापित करने के लिए इन्हीं पाँच सत्प्रवृत्तियों को अपनाना आवश्यक है।

आत्मशोधन व देवपूजन के बाद गायत्री जप का क्रम आता है। जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाय। अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम। माला का उद्देश्य घड़ी से भी पूरा हो सकता है। होंठ, कण्ठ, मुख हिलते रहें या आवाज इतनी मन्द हो कि दूसरे इस उच्चारण को ठीक तरह सुन न सकें। जप को एक प्रकार की मल शोधक रगड़ माना जाय। जिस तरह बार-बार घिसने पर वस्तुएं चिकनी हो जाती हैं, साबुन रगड़ने से कपड़े व शरीर का मैल छूट जाता है। बर्तनों की सफाई के लिए उन्हें माँजना पड़ता है। कमरे की सफाई के लिए बुहारी लगती है। इसी प्रकार ईश्वर का नाम बार-बार लेने की जप-प्रक्रिया को कषाय−कल्मषों, कुसंस्कारों का निवारण उपचार मानें। अन्तराल में जीवनक्रम में घुल जाने के लिए ईश्वर को आग्रहपूर्वक आमंत्रित करना ही जप का प्रयोजन है।

जप से अधिक महत्वपूर्ण है उपासना का अगला चरण “ध्यान” जो जप के साथ चलना चाहिए, शरीर के अंग अवयव जपकृत्य करते चलें। मन को खाली न छोड़े। ध्यान वस्तुतः परम तत्व में नियोजित रखे रहने के लिए जप के साथ किया जाता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उसका सुधार भरा प्यार अनवरत रूप से पाने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में प्रभाव कालीन स्वर्णिम सूर्य की किरणें द्वारा शरीर में श्रद्धा, मस्तिष्क में प्रज्ञा, काया में निष्ठ के दिव्य अनुदान उतरने की मान्यता परिपक्व की जाती है। इन दोनों में से जो भी प्रिय लगे, अनुकूल पड़े उसे जप के साथ-साथ उथले मन से नहीं, वरन् सघन विश्वास के साथ यथार्थता भरी अनुभूति के साथ करना चाहिए। जग और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र रहता है और आत्मसत्ता पर उस कृत्य का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

जप एवं ध्यान की समाप्ति पर विदाई का नमस्कार प्रार्थना करें। गायत्री का कोई स्तोत्र गायत्री चालीसा अथवा सामान्य भाषा में ही भावपूर्वक माँ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाय।

अन्त में सूर्यार्घ्यदान-के साथ पूजा उपक्रम समाप्त होता है। गायत्री का देवता सूर्य है। गायत्री को सूर्य का मंत्र भी कहा जाता है। जप के समय जलकलश जो एक छोटे लोटे के रूप में स्थापित किया जाता है, समाप्ति पर उसी के जल की धार सूर्य के सम्मुख खड़े होकर उनको चढ़ायी जाती है। यह पूर्णाहुति है, छोटी सी पर इसका महत्व बहुत है। जल अपनी आत्मसत्ता का प्रतीक है और सूर्य समष्टिगत-सर्वगत ब्रह्मसत्ता का प्रतिनिधि जल को अर्थात् अपने व्यक्तित्व को अनवरत गति से भगवान के चरणों पर लोकमंगल के निमित्त समर्पित होने का भाव इस अर्घ्यदान में है। यह समर्पणों की योग-साधना है। चढ़ाया हुआ जल भूमि पर गिरकर सूर्य की गर्मी से भाप बनकर अनन्त आकाश में बिखर जाता है। पीछे वह ओस, बादल आदि बनकर भूमि के वनस्पतियों की आवश्यकता पूरी करते हुए अपने को धन्य बनाता है। सविता देवता से यही अनुदान-वरदान माँगा जाता है कि हमारा व्यक्तित्व अर्घ्य रूप में स्वीकार कर वे हमें बादल बनकर अनंत में बिखरने की शक्ति एवं सिद्धि सामर्थ्य हमें प्रदान करें।

इतना सब कृत्य पूरा करने के बाद पूजा स्थल पर आकर विदाई का करबद्ध नमन कर सब वस्तुओं को समेट कर यथा स्थान रख दिया जाय। पूजा-संध्या का यह उपक्रम घर के अन्य लोगों द्वारा भी नित्य संपन्न किया जाय इसकी प्रेरणा देनी चाहिए। कम से कम बच्चे एक माला तो गायत्री मंत्र की जप ही लें। इतना न


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