उल्लास की रसानुभूति एवं शक्ति की सिद्धि

October 1991

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पाँचकोशों में पाँचवाँ व अन्तिम तथा सर्वोपरि सिद्धियों का अधिष्ठाता आनन्दमय कोश है। यही कारण शरीर का केन्द्र भी है तथा इसकी संगति षटचक्रों में सहस्रार-ब्रह्मरंध्र से सटीक बैठती है। इस कोश के जाग्रत होने पर जीव भवबंधनों से मुक्त हो जाता है। जीव इस केन्द्र की जाग्रति की स्थिति में अपने को ईश्वर का अविनाशी अंश,सत्यं-शिवं-सुन्दरं की साकार सत्ता मानने लगता है। आत्मज्ञान का यह सर्वोच्च सोपान है। हर घड़ी हर स्थिति व्यक्ति अपने को प्रफुल्लित, उल्लासित पाता है। उसकी संवेदनाएँ भक्तियोग,विचारणाएँ ज्ञानयोग तथा क्रियाएँ कर्मयोग जैसी उच्चस्तरीय बन जाती है। गायत्री साधना में शिव-शक्ति का संगम जिसे कुण्डलिनी जागरण की चरमतम स्थिति माना जाता है,यहीं पर होता है। यह भक्ति और भक्ति की समन्वित साधना संपन्न करने वाला चेतना का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम है।

हमारा स्थूल शरीर अपनी तत्परता के कर्मनिष्ठ के सहारे-विभूतियों का सुनियोजन कर अपने मनोरथ पूरे कराने में कल्पवृक्ष का काम करता है। समर्थता,के सहारे व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से वैभव-कीर्ति जो चाहे अर्जित कर सकता है। सूक्ष्म शरीर को कामधेनु कहा गया है। हमारी विचारणा आकाँक्षा, आस्था यदि उत्कृष्टता का अवलंबन पकड़े रहे तो हम हर पल स्वर्ग संवेदनाओं का रसास्वादन कर अपना संसार स्वयं बना सकते है। मस्तिष्क अपना इच्छित कल्पना लोक इतना सुन्दर गढ़ कि उसे वास्तविक जगत से किसी भी प्रकार कम प्रेरणा-प्रद नहीं कहा जा सकता। कारण शरीर की भाव अभिव्यंजना का तो अन्त ही नहीं है।

करुणा-आत्मीयता जैसी दिव्य संवेदनाएँ सदा उमगती रहें तो फिर मनुष्य अपने इसी आत्मानुदान की प्रतिक्रिया से हर घड़ी भाव-विभोर स्थिति में रह सकता है। आत्मबोध-आत्मजाग्रति की स्थिति वस्तुतः है ही इतनी उच्चस्तरीय। इस दृष्टिकोण को ही अमृत कहा गया है।

आनन्दमय कोश की साधना व्यक्ति की अनादिकालीन आकाँक्षा तृप्ति,तुष्टि,शाँति-उद्विग्नता से मुक्ति जैसे अनुदान सुलभ कराती है। वस्तुतः परमात्मा आनन्द स्वरूप है। जीवसत्ता के कण-कण में आनन्द भरा पड़ा है। आनन्दमय कोश के माध्यम से असीम मात्रा में, सहज रूप से प्रसन्नता-प्रफुल्लता का भाण्डागार मनुष्य को मिला हुआ है यह एक विडम्बना ही कि आनन्द अंदर भरा पड़ा है व व्यक्ति स्वयं निरानन्द स्थिति में, तेजाब के तालाब में रोती कलपती स्थिति में विक्षुब्ध-बेचैन पड़ा हुआ है। कोई व्यक्ति अपने घर का ताला कहीं बन्द करके चला जाय। लौटने पर ताली गुम हो जाने से बाहर बैठा ठण्ड में कष्ट पाए ठीक ऐसी ही स्थिति आज के मानव की है। आनन्दमय कोश की साधना इसी सुखद दुर्भाग्य को मिटाने के लिए की जाती है। इसके आधार पर उस ताले को खोला जा सकता है, जिसमें उल्लास का अजस्र भाण्डागार भरा पड़ा है।

पंचकोशी गायत्री उपासना की सर्वोच्च स्थिति में श्रेष्ठ संवेदनाएँ आत्मीयता, करुणा, उदारता, सेवा सद्भावना के रूप में आगे बढ़कर व्यावहारिक जगत विकसित होती हैं। इस स्थिति में निरन्तर ईश्वर दर्शन की अनुभूति होती है। भगवान सूक्ष्म है। उनका साक्षात्कार सदैव भावानुभूति के रूप में होता है। ईश्वर दर्शन सदैव अन्तःकरण में दिव्यता की झाँकी के रूप में होता है। इसके लिए श्रद्धा और भक्ति के दो पैरों के सहारे लम्बी यात्रा पूरी करनी होती है। ईश्वर मिलन के रूप में जिस अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति होती है, उसके संबंध में उपनिषद्कार कहता है-

एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति

- बृहदारण्यक (2/3/32)

अर्थात् “इस आनन्द के प्राप्त होने की आशा से ही समस्त प्राणी जीवित रहते हैं।”

केनोपनिषद में ऋषि कहते हैं-”रसौवैसः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।”अर्थात्-”भगवान रसमय या रस स्वरूप हैं। उसी रस को पाकर मनुष्य आनन्द का अनुभव करता है।”

परमेश्वर को रस कहा गया है। यह रस भौतिक नहीं, आत्मिक है। उसे उल्लास, सन्तोष, तृप्ति, शाँति जैसी दिव्य संवेदनाओं में अनुभव किया जाता है। इसकी उपलब्धि आँतरिक उत्कृष्टता के साथ जुड़ी हुई है। अन्तरात्मा जितना पवित्र व उदात्त बनता जाता है,उसी अनुपात से यह आनन्द बढ़ता जाता है। आनन्द के आकांक्षी हर व्यक्ति को आनन्दमय कोश की गहराई में उतर कर उस उद्गम स्रोत तक पहुँचना पड़ता है,जहाँ से दिव्य आनन्द की प्रकाश किरणें फूटती है।

आनन्दमय कोश की तीन महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं -समाधि स्वर्ग,और मुक्ति। चिन्तन की दिशाधारा का निर्धारण होकर आकाँक्षाओं और विचारणाओं का उत्कृष्टता की दिशा में बहने लगना ही समाधि है। समाधि मूर्च्छित हो जाने को नहीं कहते। विषय भोगों की चंचलता समाप्त होने पर जब स्थित मनःस्थिति प्राप्त कर ली जाती है व आत्मबल उपार्जित किया जाता है, उस स्थिति को ही समाधि कहते है। इस समाधि की फलश्रुति है अंतर्दृष्टि (इंट्यूशन)का प्रकाश उदित होना तथा विलक्षण आनन्द की अनुभूति होना। स्वर्ग से आशय है-परिष्कृत दृष्टिकोण का विकास। इमर्सन कहते थे, “मुझे नरक भेज दो, मैं वहाँ भी अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा” इस कथन में परिपूर्ण तथ्य है। परिष्कृत चिन्तन वालों को सत्यं, शिवं, सुंदरम् का दर्शन हर घड़ी होता है और सर्वत्र स्वर्ग की उपस्थिति प्रतीत होती है। स्वर्ग इसी दिव्य दर्शन का उत्कृष्ट चिन्तन का नाम है। तीसरा अनुदान है मोक्ष-कुसंस्कारों से, कषाय कल्मषों से मुक्ति। बंधन मुक्ति। मोक्ष का अर्थ है आत्मसत्ता को भौतिक न मानकर विशुद्ध चेतन स्वरूप में अनुभव करने लगना। प्रसन्नता-सुखानुभूति आँतरिक परिष्कार के आधार पर उपलब्ध होने के तथ्य पर विश्वास करना। मछली की तरह प्रचलनों की धार को चीरते हुए उल्टे प्रवाह में तैर सकने की क्षमता रखना। मोक्ष जीवन का परम फल बताया गया है। उसका सही रूप यही है। आनन्दमय कोश रूपी अमृत कलश का केन्द्र सहस्रार चक्र माना गया है, जो ब्रह्मरंध्र में स्थिति है। मनःसंस्थान के केन्द्र बिन्दु विद्युतीय भाण्डागार जो “रेटीक्युलर एक्टीवेटिंग सिस्टम”के रूप में विद्यमान है, को अध्यात्म की भाषा में सहस्रारचक्र या सहस्रदल कमल कहा गया है। योग विद्या के अंतर्गत ध्यान−धारणा द्वारा प्रवाह को अभीष्ट दिशा में मोड़कर सुधारा व अध्यस्त किया जाता है। इस ब्रह्मरंध्र की संरचना को देखते हुए उसे सहस्रदल कमल की आकृति से मिलता जुलता निरूपित किया जाता है।

देव सम्प्रदायों ने इस केन्द्र का चित्रण अपने-अपने ढंग से किया है। विष्णु उपासकों की ब्रह्म लोक व्याख्या में विशाल क्षीर सागर में सहस्र फन वाले शेषनाग की शैया पर भगवान विष्णु की शयन स्थिति का वर्णन है। क्षीरसागर ग्रेमैटर है। सहस्रार कमल रेटीक्युलर एक्टीवेटिंग सिस्टम है। उस पर अवस्थित ब्रह्मचेतना (कार्टीकल न्यूकलाई) भगवान विष्णु स्वयं है। साधारणतया यह सारा क्षेत्र प्रसुप्त स्थिति में


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