मानवी दायित्वों का गरिमापूर्ण निर्वाह

June 1990

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मनुष्य अन्य प्राणियों की तरह मात्र पेट प्रजनन तक की चिन्ताएँ करने तक सीमित नहीं है। उसके साथ कितनी ही जिम्मेदारियाँ भी जुड़ी हुई हैं। यह दायित्व बहुमुखी है। समझदारी के साथ-साथ इनकी भी अभिवृद्धि मनुष्य की समझदारी बढ़ने के साथ हुई है। यह इसलिए कि अन्य प्राणियों की तुलना में जो अतिरिक्त ज्ञान मिला है उसका सदुपयोग होता रहे। व्यक्ति स्वयं लाभान्वित होता रहे और दूसरों को उस प्रभाव से प्रभावित करते हुए सर्व साधारण के अभ्युदय का सुयोग बनाता रहे।

पशु-पक्षियों को अपने आपे तक का ही ध्यान रहता है। वे उसी परिधि में रहते हैं। प्रकृति उन्हें अपने अनुशासन में चलाती है। उसी प्रेरणा के सहारे वे अपना जीवनक्रम चलाते हैं। उनमें चिन्तन करने की कोई मौलिक क्षमता तो नहीं होती, पर स्वभाव अवश्य होता है जिसके सहारे अपना काम करते और निर्वाह चलाते रहते हैं। उनकी संरचना और व्यवस्था के बीच भी तालमेल है। समय का खालीपन प्रतीत न हो, इसलिए वे अपने बड़े पेट और छोटे मुँह के कारण पर्याप्त आहार खोजने और उदरस्थ करने में ही अपना सारा समय लगा देते हैं। कुछ बचता है तो प्रजनन के फेर में उसका उपयोग हो जाता है। एक दूसरे पर आक्रमण भी करते रहते हैं इसलिए आत्मरक्षा के लिए सींग, दाँत, नुकीले, पंजों, तेज चोंच का उपयोग भी उन्हें भी प्रकृति के प्राणियों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर पूरा किया है। सर्दी-गर्मी से बचने के लिए बाल, पंख या मोटे चमड़े की ऐसी परत लगाई गई है कि किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव न हो। पशु-पक्षी कीट, पतंग प्रकृति के मार्गदर्शन में चलते हैं। उसके निर्देशन में रहते हैं। फलतः न तो उन्हें अतिरिक्त जिम्मेदारी उठानी पड़ती है और न सोच विचार करने के तंत्र का विकास करना पड़ता है।

किन्तु मनुष्य की स्थिति उनसे भिन्न है। उसकी संरचना में ऐसी विशेषताएँ घुली हुई हैं जिनके कारण उसे आहार उपार्जन, वस्त्र व्यवस्था, भवन आच्छादन परिवारगत निर्वाह आदि की जरूरतें पूरी करनी होती हैं। उसका निर्वाह सामाजिक लोक व्यवहार के सहारे संभव होता है। प्रगति का आधार भी इसी माध्यम से बन पड़ता है। प्रथाएँ, परिपाटियाँ, रीति-नीति, कानून-व्यवस्था आदि का सिलसिला भी इसी कारण शुरू हुआ है कि प्रकृति ने बहुत से उत्तरदायित्व उसके जिम्मे छोड़ दिये हैं। पशुओं की तरह उसे अपने पूर्ण नियन्त्रण में नहीं रखा है वरन् यह अवसर दिया है कि वह अपनी मौलिक सूझ-बूझ का सहारा ले। ऐसी रीति-नीति अपनाये जिससे अपने लिए तो सुविधा हो, किन्तु दूसरों से टकराने की जरूरत न पड़े।

विकसित बुद्धि बल के सहारे मनुष्य ने आहार-विहार की इतनी सुविधाजनक इतने प्रकार की सामग्री एकत्रित कर ली है कि उन सभी का आकर्षण अपने-अपने ढंग का अनोखा है। ललक लिप्सा का आकर्षण यह रहता है कि इनमें से अधिकाधिक प्रकार की, अधिकाधिक मात्रा में वस्तुएँ हस्तगत करें। उनके उपभोग का रस लें, किन्तु इस प्रकार का अतिवाद अपनाने पर उसकी प्रतिक्रिया अवाँछनीय होनी स्वाभाविक है।

स्वाद की लोलुपता, बहुविधि व्यंजनों को भूख से कहीं अधिक मात्रा में उदरस्थ कर लेने की उत्कंठा उत्पन्न करती है। महँगे प्रीतिभोजों में परोसा भी ऐसा ही जाता है जो पेट की सीमा और शरीर की आवश्यकता का दायित्व अनुभव नहीं करते हैं। वे मुँह के रास्ते अभक्ष्य कर अतिमात्रा में उदरस्थ करते नशे पीते हैं, फलतः बीमार पड़ते और अकाल मृत्यु मरते हैं। इस विपत्ति से बचने का एक ही उपाय है कि इन्द्रिय संयम बरता जाय। न केवल जिह्वा इन्द्रिय को, वरन् जननेन्द्रियों को उत्तेजना को भी नियंत्रण में रखा जाय। वस्त्रों की सीमा मर्यादा का ध्यान रखा जाय। स्वच्छता हर प्रसंग में ध्यान रखा जाए। इस प्रकार का विवेक और संयम अपनाये बिना कोई व्यक्ति निरोग नहीं रह सकता। आये दिन बीमार पड़ता और अपनी कार्यक्षमता गँवा बैठता है। यद्यपि मनुष्य उद्धत आचरण में भी स्वतंत्र है। इन्द्रिय परायण होकर कोई भी आहार-विहार में कितना ही व्यतिरेक कर सकता है। इसे रोकने के लिए ईश्वर ने उसे विवेक, बुद्धि दी है। उचित-अनुचित का विश्लेषण करके प्रकृति प्रेरणा के स्थान पर स्वास्थ्य संबंधी दायित्वों को निबाहने की समझ दी है इसे अपनाना उसका कर्त्तव्य है।

मस्तिष्क को कल्पना शक्ति मिली है, उसे किसी भी दिशा में दौड़ने दिया जा सकता है। कोई चाहे तो अचिंत्य चिन्तन की आदत डालकर मस्तिष्क को विकृत-विक्षिप्त स्तर का बना सकता है और ऐसे निर्णय-निर्धारण करता रह सकता है, जिन्हें आचरण में उतारने पर उद्धत, असभ्य या अपराधी स्तर का बना जा सके। इस उपलब्ध स्वतंत्रता का दुरुपयोग न होने देने के लिए मानसिक संयम की, चिन्तन क्षेत्र पर बड़ा अंकुश रखने की मनुष्य की जिम्मेदारी है। जो इसे निबाहते हैं केवल वे ही लोग सुख-शाँति से रहते हैं, दूसरों को चैन से रहने देते हैं।

धन मनुष्य कमाता है। उद्धत तरीकों से तो वह तुर्त-फुर्त अत्यधिक भी कमा सकता है। उपयोग करने की उसे छूट है। इस कमाई को वह दुर्व्यसनों में भी खर्च कर सकता है। इस स्वेच्छाचार से व्यक्ति बदनाम होता है, दरिद्र बनता है और अपने लिए विष बीज बोता है। यों ऐसा करने पर कोई बड़ा प्रतिबंध नहीं है तो भी इसे विवेकपूर्वक अपने को उस अनीति से रोकना, बचाना पड़ता है। जो इस जिम्मेदारी को नहीं निभाते वे विविध विधि दुःख पाते हैं।

परिवार कितना बढ़ना चाहिए इसका पूर्व निर्णय करके ही यह कदम उठाना चाहिए कि कितनों की खेलने-कूदने की सोने-खाने के लिए घर में उपयुक्त जगह है। प्रस्तुत आजीविका में से कितनों का गुजारा हो सकता है। उनकी शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका शादी आदि का खर्च चल सकता है। बिना इन सब बातों को विचार किये सन्तानोत्पादन में लगे रहना, ऐसा ही है जैसा कि कुत्ता, बिल्ली आदि का अत्यधिक प्रजनन। उन सबकी दुर्गति ही होती है। ठीक तरह पालन-पोषण तो कुछ का ही हो पाता है। यही अनौचित्य मनुष्य भी अपनाये तो इसे गैर जिम्मेदारी ही कहा जायगा। मनुष्य के बालक प्यार, मनोरंजन आदि भी चाहते हैं। संख्या अधिक हो तो सभी को वह सब दे सकना शक्य नहीं होता। बिना खाद पानी के पौधे जिस प्रकार सूखते, मुरझाते और नष्ट होते रहते हैं वैसे ही मनुष्य के बालकों को भी दुर्गति हो तो इसे मानवी मर्यादाओं का उल्लंघन ही कहा जायगा।

देश, धर्म, समाज, संस्कृति के प्रति भी मनुष्य के कुछ कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व हैं। यदि वो न बन पड़े और केवल स्वार्थ संजोने में ही जिन्दगी के दिन गुजरें तो यही कहा जायगा कि मानवी गरिमा के उत्तरदायित्व को जिस प्रकार निभाया जाना चाहिए था, उस प्रकार वह निभाया नहीं गया या उस संबंध में जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, उतना नहीं दिया गया।

ईश्वर ने मानव जीवन जैसी महती कलाकृति किसी उद्देश्य विशेष के लिए धरोहर रूप में दी हैं। इसके पीछे जन्म-जन्मान्तरों के संगृहीत कुसंस्कारों को घटाते-मिटाते हुए पूर्णता प्राप्त करना है। साथ ही यह भी जिम्मेदारी है कि ज्येष्ठ पुत्र के नाते युवराज की भूमिका संपन्न करनी है। सृष्टा के उद्यान को सुविकसित, समुन्नत बनाने के लिए उस प्रकार का आचरण करें, जैसा कुशल माली मालिक के बगीचे को फला-फूला बनाने के लिए तत्परतापूर्वक संलग्न रहता है।


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