मानव मात्र एक समान

June 1990

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उन दिनों चीन में कम्युनिस्ट शासन नहीं था। समाज देवता की आराधना में लगे हुए एक मिशनरी परिवार की किशोरी अपने पिता से चीन की कहानियाँ बड़े चाव से सुना करती। अकाल, महामारी, बाढ़, और सूखा ग्रस्त किसान परिवारों की मर्मस्पर्शी कहानियाँ उसके मन में विचित्र-विलक्षण हलचलें पैदा करतीं। ऐसे ही एक किसान की कहानी ने उसके मन में डेरा जमा लिया था। दाई कहानी कहती जा रही थी, चिंग जब बीमार रहने लगा तो उसके पुत्रों ने सोचा जमीन का बंटवारा कर लिया जाय। इस पर वे किसी सवाल पर सहमत न होने के कारण झगड़ने लगे।

एक सवाल-बालिका ने बात को काटकर कहा-क्या जमीन भी बँटती है।

उसे यह अजीबोगरीब बात समझ में ही नहीं आयी। पिताजी को मिठाइयाँ बाँटते हुए देखा था। सहेलियाँ भी आपस में मिलकर खाने-पीने का सामान बाँट लेती थीं। पर भला जमीन कैसे बाँटी जाती होगी।

हाँ लोग जमीन बाँट लेते हैं, धाय माँ ने कहा। लोग अपनी सीमा बनाकर उस पर अपना हक समझ लेते हैं। तो क्या हवा, पानी, प्रकाश भी बाँटा जाता होगा। बाइबिल में तो लिखा है, यह सभी भगवान का है, उनके लिए नहीं लड़ना चाहिए फिर लोग क्यों लड़ते हैं?

बालिका के मन में यह चिन्तन चलता रहा। बड़ी होने पर उसने एक उपन्यास लिखा-”द गुड अर्थ”। यह इसी पृष्ठभूमि पर लिखा गया था। इसे आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली। श्रेष्ठ कृति के रूप में इसे नोबुल पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।

इस उपन्यास की लेखिका थी-पर्लबक। उन्होंने इसमें किसान की व्यथा, वेदना को चित्रित किया है। जो यह मानता है कि रुपया पैसा तो छीना जा सकता है पर धरती। वह तो सबकी माँ है, समृद्धिदात्री है। आगे चलकर बेटे बँटवारे के लिए लड़ते हैं। किसान दुःखी होता है, विपत्तियों से संघर्ष करता है। उसी की कहानी किसान की व्यथा के रूप में पर्लबक की सशक्त लेखनी से कागजों पर उतरी है। विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित इस पुस्तक के पाठक को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि धरती एक है। हमारे आपस में झगड़े मनुष्यता का अपमान हैं। यह कार्य अपनी माँ के शरीर को बाँटने जैसा ही गर्हित और नृशंस है।

अमेरिका में जन्मी, चीन में पली और पुनः अमेरिका में पढ़ी पर्ल ने मनुष्यता की पीड़ा को अपने दिल की धड़कनों में अनुभव किया था। पीड़ा किसी व्यक्ति विशेष की हो तो उसकी सेवा सुश्रूषा करने, साँत्वना देने से इसका निवारण संभव है। किन्तु जब एक, दो, चार, दस, सौ, हजार नहीं बल्कि समूचे मानव समुदाय का जीवन क्षत-विक्षत हो गया हो, सभी को एक साथ विवशता की जिन्दगी जीनी पढ़ रही हो तब? फिर तो एक ही बात समझ में आती है कि हम सब जिन्दगी की राहें नहीं पहचान पाए, उलटा और बेतरतीब जीवनक्रम अपना लिया। ऐसी दशा में एक ही उपाय रह जाता है उलटे की उलट कर सीधा करना, सही राह की पहचान कर उस पर चल पड़ना। उलटे को सीधा करने का बोध कराने, सही राह की पहचान करने की जिम्मेदारी मनीषियों की है। उनकी हे जो जीवन विद्या में निष्णात् हैं। बक इन्हीं में से एक थी।

उच्च शिक्षित पर्ल ने वैभव के अर्जन, शान-शौकत, ठाट-बाट के नशीले सपनों में उलझने की जगह इसी युगान्तरकारी काम के लिए अपना समूचा जीवन समर्पित कर दिया। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के पत्रकारिता स्कूल में भाषण देते समय उन्होंने अपने बारे में कहा-”मैं एक अजीबोगरीब किस्म की नारी हूँ, जो मनुष्यता के लिए अपने को तिल-तिल कर गलाए बिना सुखी नहीं रह सकती। यह तिल-तिल कर गलना ही चिन्तन के रूप में पुस्तकों की नदी में बहता है।

सन् 1932 में वह भारत आयीं। यहाँ के मनुष्यों में गहरे छपे संस्कारों ने उन्हें प्रभावित किया। ग्रामीण जीवन को देखकर वह विभोर हो उठीं। भारत के प्रवास के दौरान उन्होंने विशाल भारत के संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी से कहा-”आज लंबे अर्से से चली आ रही मेरी खोज पूरी हुई। किस बात की खोज? मैं यह सोच रही थी कि अगली सदी तक साफ झलकने वाली डडडड केन्द्र कौन सा देश बनेगा, अब समझ में आ गया, वह यही देश होगा। पर कैसे? चतुर्वेदी जी ने आश्चर्यचकित हो पूछा। यहाँ की धरती, यहाँ के मनुष्यों और सबसे अधिक यहाँ के साँस्कृतिक चिन्तन में वह संस्कार हैं। इनके उभरते ही हर किसी को मेरी बात की सत्यता नजर आने लगेगी।

लंबे समय तक समाज का गहरा अध्ययन करके उन्होंने अपनी प्रत्येक रचना को समाधान के रूप में प्रस्तुत किया। यद्यपि साहित्यकार की कल्पना बहुत ऊँची उड़ती हैं। इस उड़ान से उसकी रचनाएँ बहुत दूर जाकर स्वप्नों की दुनिया बसा लेती हैं। यथार्थ और कल्पना में सामंजस्य का अभाव साहित्यकार को भटका देता है। इस भटकन के कारण भूल-भुलैया में फँसा वह वास्तविक उद्देश्य व साहित्य की सार्थकता से दूर जाकर गिरता है। पर्लबक ने स्वयं को इस भटकन में फँसने नहीं दिया। उन्होंने समाज का दुखी पीड़ितों का जो मार्मिक हृदयस्पर्शी चित्रण किया साथ ही उनके समाधान भी सुझाए उसके कारण वे सार्थक और मूल्यवान साहित्य की स्रष्टा बन सकीं।

इतने अमूल्य और दिशा परक साहित्य का सृजन ही काफी नहीं है। जन-जन तक वह पहुँच सके यह भी जरूरी है। इसके लिए उन्होंने अपनी पुस्तकों के सस्ते संस्करण भी तैयार कराए। एक स्थान पर लिखती हैं-”मैं अपनी किताबों के सस्ते संस्करण देखकर खुश हूँ। क्योंकि मैं सोचती हूँ इन्हें गरीब तबके का आदमी भी पढ़ सकता है। निश्चय ही पुस्तक हर आदमी की पहुँच के भीतर होनी चाहिए। अन्यथा उत्कृष्ट साहित्य भी महंगा होने के कारण पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने वाला बनकर रह जाता है।

अमेरिका में रह कर उन्होंने रंग भेद नीति से लेकर पूँजीवादी शोषण तथा सामाजिक अत्याचार के विरोध में कदम उठाए। इन समस्याओं का समाधान उन्होंने मानवतावादी जीवन मूल्यों में देखा। प्रेम, सहानुभूति, सौहार्द्र और आपसी भाई-चारे का सन्देश अपनी रचनाओं के माध्यम से जनजीवन को सुनाया।

यही नहीं पेनीसिल्वेनियों में चार सौ एकड़ जमीन लेकर नागरिक बस्ती से दूर विश्व संस्कृति की प्रयोगशाला की नींव डाली। यहीं उन्होंने विभिन्न राष्ट्रीयता, खून, जाति व रंग के अनाथ बालक बालिकाओं को गोद ले उनकी माँ बन छोटे रूप में विश्व को एक सूत्र में सँजोने का काम शुरू किया। उनके इस सेवा कार्य के पीछे मूलभावना इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ही है कि मानव मूल रूप से समान है।

विश्व संस्कृति व विश्व व एकता में पूर्व व पश्चिम का विभाजन सबसे बड़ी बाधा है। उन्होंने सर्वप्रथम इस बात का ध्यान दिया व सारे संसारवासियों से अनुरोध किया कि वे बात-चीत, व्यवहार में धरती का पूर्व व पश्चिम नाम से विभाजन न करें। उनकी हार्दिक इच्छा यही रही कि विश्व एक सूत्र में बंधे।

वह स्वयं में एक संस्था थीं-मानवतावादी संस्था। वे स्वयं के द्वारा स्थापित पूर्व पश्चिम संघ की अध्यक्ष रहीं। वे एक लंबे समय तक जान सेजस के छद्म नाम से अमेरिकी जीवन का भी चित्रण करती रहीं। इसमें भी उन्हें असाधारण सफलता मिली। 50 से अधिक कृतियों में उनके भाव मुखर हुए। 6 मार्च 1973 को 80 वर्ष की अवस्था में वह सदा के लिए अपनी इस प्यारी धरती से एक हो गयीं। उनके द्वारा प्रतिपादित मूल्यों आदर्शों से आपकी पीढ़ी प्रेरणा ग्रहण कर विषमता की खाई को पाटने हेतु तत्पर हो सकती है।


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