शाह अशरफअली (kahani)

June 1990

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शाह अशरफअली संत स्वभाव के थे। एक बार वे सहारनपुर से रेलगाड़ी द्वारा लखनऊ जा रहे थे। उसके साथ निर्धारित वजन से अधिक सामान था। साथ के परिजनों से जो उन्हें स्टेशन छोड़ने आये थे, उनने कहा कि “जितना सामान अधिक है, उसे तुलवा कर बुक कराई और नियम से पैसे भुगतान कर दे।”

निकट में ही गाड़ी का गार्ड खड़ा था। वह शाह को पहले से जानता था। वह उनसे विशेष रूप से प्रभावित डडडड बोला सामान बुक कराने की आवश्यकता नहीं। मैं तो साथ में ही चल रहा हूँ।” शाह ने चकित होकर पूछा “तुम कहाँ तक जाओगे?” गार्ड ने कहा-”मैं बरेली तक चल रहा हूँ, पर आप सामान की चिन्ता न करें। मैं बरेली से दूसरे गार्ड से कह दूँगा जो लखनऊ बिना किसी व्यवधान के पहुँचा देगा।” “फिर आगे क्या होगा?” अशरफअली ने पूछा। प्रश्न अटपटा था। असमंजस को दूर करने के लिए गार्ड ने पूछा। किन्तु आपको तो लखनऊ तक ही तो जाना है न? मुसकराते हुए शाह ने उत्तर दिया- “बरखुरदार! जिन्दगी का सफर बहुत लंबा है। यह खुदा के पास जाने से ही समाप्त होगा। तुम्हारी थोड़ी सी हमदर्दी के लालच में मेरा ईमान यदि डोल गया तो जुर्म की सजा से यहाँ बच भी गया किन्तु खुदा के यहाँ कौन बचायेगा। गार्ड यह सुनकर मुँह की तरफ देखता रह गया और उसने तुरन्त सामान का टिकट बना दिया। इसे कहते हैं-नीतिनिष्ठा, प्रामाणिकता।


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