मनस्वी-तेजस्वी

June 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बल्ब, पंखा, हीटर, कूलर आदि उपकरणों के साथ जुड़ जाने पर बिजली के गुण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। इसमें उपकरणों का जितना महत्व है, उससे अधिक उस बिजली का हे जो शक्ति संचार करती और उपकरण को वैसी ही क्रिया करने के लिए विवश करती है, जिसके लिए उसे बनाया गया है।

मनुष्य में उच्चस्तरीय चेतन बिजली तो वह है जिसे प्राण कहते हैं। उसके साथ बने रहने पर शरीर के सभी अंग अवयव अपने-अपने काम करते रहते हैं। शक्ति भी बनी रहती है और वे सभी लक्षण विद्यमान रहते हैं, जिनकी देखते हुए किसी को जीवित या मृतक कहा जाता है। यह दिव्य चेतना ही पंच तत्वों के साथ जुड़े हुए शरीर के माध्यम से विविध प्रकार के क्रिया-कलापों का संचालन करती है। प्राणी में जीवन ही उसका सार तत्व है। यदि वह न रहे तो मृत शरीर को ऐसा कूड़ा करकट माना जाता है जिसे थोड़ी ही देर रखे रहने पर सड़न दुर्गंध और विषाक्तता फैलनी आरंभ हो जाती है।

दूसरी एक और भी चेतना जीवन में काम करती है जिसे उत्साह कहते हैं। उसकी जितनी मात्रा जिस किसी में होती है, वह उतने ही बढ़-चढ़ कर पुरुषार्थ कर सकने में समर्थ होता है। किन्तु यदि उत्साह शिथिल पड़ गया हो, उसकी गतिशीलता घट गई हो, तो समझना चाहिए कि जीवित होते हुए भी मनुष्य लगभग मरे हुए के समान है। अनुत्साही को आलस्य-प्रमाद जैसे अनेकों दुर्गुण घेरे रहते हैं, जिनके कारण उपयुक्त सामर्थ्य रहते हुए भी आधी-अधूरी मात्रा में बहुत धीमी गति से काम हो पाता है और जो होता है वह भी लगता है मानों शक्ति सामर्थ्य का भण्डार ही चुक गया हो। जो बन पड़ता है वह अस्त-व्यस्त, कुरूप और घटिया स्तर का होता है। इससे कर्म और कर्ता दोनों की हानियाँ होती हैं। जिस प्रकार यंत्र उपकरणों में बिजली काम करती है उसी प्रकार मनुष्य के समस्त शारीरिक-मानसिक अंग-अवयवों को उत्साह के आधार पर शक्ति और प्रेरणा मिलती है।

निराशा, उदासी, चिन्ता, लगभग एक दूसरे पर आश्रित हैं। जहाँ एक रहेगी, वहाँ दूसरी भी जा पहुँचेगी। यदि तीनों का समावेश हो गया तो समझना चाहिए कि मनुष्य मानसिक दृष्टि से अशक्त हो गया भले ही वह शारीरिक दृष्टि से समर्थ ही क्यों न दिखाई पड़े। ऐसे लोग कुछ काम करना ही नहीं चाहते। चाहते भी हों तो वह बन नहीं पड़ता। पड़ता भी हे तो आधा-अधूरा बन कर रह जाता है। अस्त−व्यस्त और काना कुबड़ा बनकर रह जाता है। जितने समय और श्रम में उसे होना चाहिए, उसकी तुलना में वह कोई अधिक विलंब लगा लेता है और जो कुछ बन पड़ता है, वह कुरूप, अव्यवस्थित स्तर का बन कर रह जाता है।

शक्ति वस्तुतः साहस पर केन्द्रित रहती है। साहस न हो तो फिर हाथों से जो करते बन पड़ता है वह निस्तेज निरर्थक बन कर रह जाता है। बिजली का करेन्ट कम होने पर कोई उपकरण पूरी तरह काम नहीं करता। मात्र टिमटिमाता भर रहता है। उसके द्वारा जा काम होते दीखते हैं, उसे चिह्न-पूजा स्तर का ही गिना जा सकता है। साहस की कमी का परिणाम भी यही होता है। उत्साह के अभाव में उदास मन से किये गये काम भी ऐसे ही होते हैं। मन की उदासी किये गये कामों की कुरूपता अधूरेपन के रूप में दीख पड़ती है।

मनस्विता, तेजस्विता अपने हाथ की बात है। मन की उदासी कहीं बाहर से नहीं आती। किसी घटना से भी संबंधित नहीं होती। वह मनुष्य के अपने स्वभाव पर निर्भर है जिसे इच्छानुसार घटाया या बढ़ाया जा सकता है। यह एक प्रकार का आत्मविश्वास है। आत्मनिर्भर मनुष्य उज्ज्वल भविष्य के सपने देखते हैं। उन्हें हाथ में लिए काम की सफलता पर विश्वास होता है।

इन्द्रियों को शक्तितंत्र माना जाता है। पैनी दृष्टि सूझबूझ से काम लेने पर यह वरदान जैसी प्रतीत होती है और उनके द्वारा बन पड़े कामों को सौभाग्य स्तर का गिना जाता है, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। आत्मविश्वासी मनुष्य की एक ही पहचान है-उसका उत्साह। उत्साह रहने पर साहस बढ़ता है और उसी उत्साह के सहारे शरीर के अंग-प्रत्यंग बढ़-चढ़कर काम करने लगते हैं। उनसे सफलता का बोध होता है। जो मनस्वी नहीं है उसे एक प्रकार से अशक्त, निस्तेज और असंयमी भी कहा जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118