महान कौन?

June 1990

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“कुछ भी कही भाई! आजकल के जमाने में महान तो वही है जिसके पास धन है।”

“तो अब महानता भी जमाने के अनुसार बदलने लगी।” मित्र के इस कथन पर दूसरे से रहा न गया। वह कह रहा था “चलो एक क्षण के लिए यह बात मान ली जाय तब तो लुटेरे ही महान होंगे और शोषक उत्पीड़क लोक पूज्य” कहने के स्वर में व्यंग का पुट था। “नहीं भाई महान वह है जिसके पास अकल होती है। आखिर जितने बड़े-बड़े काम हुए हैं सब अकलमंदों ने ही किए हैं, अपने साथियों में बढ़ती जा रही बहस को समाप्त करने के उद्देश्य से उसने अपनी टिप्पणी दी थी। पर कुछ भी तो असर नहीं हुआ काटने वाले ने इस भी काटते हुए कहा, दुनिया में जितना ध्वंस हुआ है वह भी अकल वालों की ही देन है। अभी हाल की बात ही लो हिटलर कुछ कम अकल का था, और जापान में डाले गए बमों के आविष्कारक भी बुद्धिमानों की ही जमात में थे। मुझे तो कभी-कभी लगता है इन बुद्धिमानों से बड़ा बुद्धू कोई नहीं है।”

“जब आप धन वालों को भी महान नहीं मानते, अकल वाले भी आपके अनुसार महान नहीं हैं तो फिर महान है कौन? आप ही बताइए”। आज सुबह से ही उनमें महानता के ऊपर निष्कर्ष विहीन बहस चल रही थी। ये सभी हिमालय भ्रमण के लिए आए थे और इधर कई दिनों से उत्तर काशी में ठहरे हुए थे। कार्यक्रम एक ही था। सुबह गंगा में स्नान करना फिर किसी दिलचस्प चर्चा में मशगूल होना। दोपहर के भोजन के बाद तनिक विश्राम करके घूमने निकल जाना। हाँ इनके दल नायक की दिनचर्या कुछ भिन्न थी और शायद ये उन्हीं के कारण रुके भी थे। दलनायक जिन्हें उनके साथी काका साहब कहते थे प्रातः स्नान आदि से निबट कर अपना सारा समय या तो ध्यान में बिताते थे अथवा पास के पहाड़ी गाँवों में जाकर उनके जीवन के अनेकों पहलुओं को जानने में आज भी वह रोज की तरह निकल गए थे।

संध्या की इस चर्चा में एक ने पुनः बात छेड़ी “बताया नहीं आपने कौन महान है? आपके अनुसार” मेरे अनुसार उसने दोनों की ओर देखते हुए कहा तो तपस्वी महान है जिसने अपने दोषों कल्मषों को गला डाला है” उनमें से तीसरे ने उत्तर दिया।

चर्चा चल ही रही थी कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। खोलते ही काका साहब एक पंद्रह सोलह साल के पहाड़ी लड़के के साथ अन्दर आ गए। बैठते हुए पूछा “बहुत हँस रहे थे तुम लोग बात क्या थीं? बात यह भी हम लोग चर्चा कर रहे थे कि महान कौन है”? इस पर हमारे साथ रह रही हिमालय की आत्मा ने सारी बातों को काटते हुए कहा “कोई नहीं सिर्फ तपस्वी महान है—”।

अगर ऐसा नहीं है तो आप ही बताइए काका साहब तपस्वी को महान करार करने वाला बोल पड़ा। इसका कोई जवाब न देखकर वह बोले तुम्हारी किसी तपस्वी को देखने की इच्छा थी न इस बुद्धिसिंह के गाँव के पास एक साधु कठोर तपस्या में निरत हैं चलकर उनके दर्शन भी करेंगे रास्ते में महानता पर चर्चा भी कर लेंगे। तुम लोग भी चलो अन्य दोनों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा-घूमना भी हो जाएगा।

चारों एक साथ चल पड़े साथ में चल रहा पहाड़ी बालक बताने लगा। ज्ञानसू का पुल पार करके करीब दो मील किनारे-किनारे चलना पड़ेगा। वह लड़का काका साहब से बहुत घुल-मिल गया था। वह रोज उन्हें नए-नए स्थानों की सैर कराता बदले में वे भी उसे कुछ दे दिया करते किन्तु अब संबंध लेन-देन से ऊपर उठकर घनिष्ठ आत्मीयता में बदल चुका था। काका साहब उसी के द्वारा दी गई सूचनाओं के आधार पर साथ चल रहे नवयुवकों को बताने लगे-गंगा तट पर उनकी छोटी सी कुटिया है। शीतकाल में जब यहाँ बरफ पड़ती है यह श्यामला भूमि और पर्वतों पर लहराते चीड़ के वृक्ष भी श्वेत हिमवस्त्र ओढ़ लेते हैं। वे दिगंबर ही रहते हैं और मौन तो रहते ही हैं। इतना ही नहीं प्रतिदिन गंगा के बर्फीले पानी में तीन घण्टे नियमित खड़े रहकर जप करते हैं वर्षों से अबाध चल रही है उनकी साधना।

अनेकों तरह की चर्चा में पता नहीं चला, मार्ग कब समाप्त हुआ। पहुँच गए साधु के पास सचमुच उनके चेहरे पर साधननिष्ठता टपक रही थी। शीत ने शरीर के चमड़े को कठोर बना दिया था। कृष्ण वर्ण, अरुणाभी नेत्र बढ़ी जटाएँ प्रशाँत गम्भीर मुख तपस्या का तेज भाल पर धारण किए वह मौन थे। दर्शन प्रणाम के बाद जब वे सभी लौटने लगे तो बालक ने अनुनय की “पास में मेरा गाँव है मेरे घर भी चलें। रोज अपने माता-पिता से आपके बारे में बताया करता हूँ”।

बात ठीक भी थी सभी एक साथ उसके घर पर पहुँचे। एक सरल पर्वतीय घर के आतिथ्य ने सभी को विभोर कर दिया। आज की कृत्रिम सभ्यता में कहाँ मिलता है ऐसा अकृत्रिम प्रेम। अचानक उन्हें कुछ ध्यान आया, पूछ पड़े अरे बुद्धू तुम्हारा वह पगला कहाँ है? मैं उससे जरूर मिलना चाहता हूँ। उसके संबंध में बुद्धिसिंह अनेक बार चर्चा कर चुका है। जो रात वर्षा में बढ़ी नदी को, वन्य पशुओं के भय को भी भूलकर किसी के लिए चाहे जब उत्तरकाशी भेजा जा सकता है। किसी के लिए चाहे जब उत्तरकाशी भेजा जा सकता है। किसी का कोई काम करने से कभी इन्कार नहीं करता।

पता लगाता हूँ बाबू जी। बुद्धिसिंह के पिता ने अपनी कन्या को पर्वतीय भाषा में कुछ कहा और बच्ची घर से चली गई।

बुद्धिसिंह के पिता उस पगले के बारे में बताने लगे उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं। वह दिन भर काम में जुटा रहता है कुछ भी न हो तो सारा दिन रास्ते के पत्थरों काँटों को कटाने में बिता देगा। गाँव की सफाई करने लगेगा बीमार की टहल करने बिना बुलाए जा पहुँचता है। इस पर भी सबसे बड़ा आश्चर्य है कि वह मन्दिर में नहीं जाता। बुद्धिसिंह ने बताया-मन्दिर में जाने को कहने पर कहता है उसके तो बहुत नौकर हैं। मैं क्यों करूं उसकी नौकरी? तेरी नौकरी करूंगा मैं।

सहसा एक फटे, चिथड़े पहने कुछ ठिगना गोरे रंग का अधेड़ पर्वतीय आ पहुँचा। उसके पैर बिवाइयों से फटे हुए थे। उसकी अँगुलियाँ मोटी और कठोर थीं। उसका शरीर भी मैला सा किन्तु उसके निर्मल नेत्र बालसुलभ हास्य और चमकता चेहरा बरबस अपनी ओर खींच लेते थे।

पगला है। बुद्धिसिंह हँस पड़ा।” आइए बैठिए-”! उन्होंने उसे कंबल पर बैठने को कहा और वह बिना किसी संकोच के उनके सामने बैठ गया। बैइने पर उससे पूछा “सुना है तुम मन्दिर नहीं जाते। वह अचकचा कर बोला जीते जागते इंसानों में जो भगवान नहीं खोज सका वह इमारतों और मूर्तियों में कहाँ ढूँढ़ पाएगा बाबू?” उसके कहने का स्वर कुछ ऐसा था कि अंतर पिघल उठा “एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़ः वाली श्रुति जैसे साकार हो उठी।

वे सभी अपनी धर्मशाला की ओर लौट रहे थे, बुद्धिसिंह अपने घर में रह गया था। उन्होंने साथी नवयुवकों की ओर देखते हुए कहा-”ढूँढ़ पाए महानता कहाँ है कौन महान है? धनवान या अकलमंद अथवा वह साधु जो अपनी साधना में तनिक सा विघ्न उपस्थिति करने वाले को पत्थर मार कर भगा देते हैं।”

सुनने वाले चुप थे किसी को जवाब नहीं सूझ रहा था। एक ने कहा “हम लोगों की अकल नहीं काम कर रही काका साहब यह पहेली आप ही सुलझाइए।”

तो सुनो वह बोलने लगे महानता न धन में है और न अकल में यह तपस्या में भी नहीं है। इसका निवास तो संवेदनशील हृदय में है। जनहित के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाली वृत्ति में है। जिसके दिल में ये भाव छलक रहे हैं तो लोक कल्याण के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहने में नहीं हिचकिचाता वही महान है। धन बुद्धि और तप के तीनों तो अलग-अलग प्रकार की शक्तियाँ भर हैं। भाव संवेदना से अलग होने पर धन अपने वैभव का कीड़ा ले गरीबों दीन हीनों पर कहर बरसाता है, बुद्धि विनाश के सरंजाम जुटाकर भी अपने ठसके में अकड़ी चलती है और तप तो सिद्धि, चमत्कार के घमण्ड में शाप वरदान की शेखी में पड़ा रहता है। जबकि भाव संवेदना से जुड़कर धन भामाशाह जमना लाल बजाज, बिड़ला पैदा करते हैं, अक्ल सुकरात और जगदीश चंद्र बसु और तप महात्मा बुद्ध ऋषि दयानंद तैयार करता है।

वे आगे बोले-”जिसके पास इन तीनों में से एक भी न हो, वहाँ जनसेवा में निरत भोले भाले पगले के रूप में महानता जन्म लेती है। क्या उसकी अंतः सम्पदा किसी तपस्वी से कम है? सभी एक साथ बोल पड़े- निश्चित ही नहीं।

महानता की खोज में मंथन कर रहे नवयुवकों को अब वह निष्कर्ष मिल गया था, सूत्र हाथ लग गया था, जीता जागता उदाहरण देखकर अपनी हिमालय यात्रा के दौरान महानता का यह तत्वज्ञान समझाने वाले सज्जन थे-गाँधी जी के अन्यतम सहयोगी- दत्तात्रेय-बालकृष्ण कालेलकर।


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