माँ प्रज्ञा अवतरित हुई क्या, सद्गुण का भण्डार मिल गया। विकृतियों से क्लान्त मनुज को, संस्कृति का संसार मिल गया॥1॥
फटे स्रोत गुप्त वैभव के। पथ प्रशस्त, नूतन उद्भव के॥ जगा सुप्त-देवत्व मनुज का। कण कण स्वर्ग धरा की रज का॥
परिवर्तन के महापर्व को, अब सुदृढ़ आधार मिल गया। माँ प्रज्ञा अवतरित हुई क्या, सद्गुण का भण्डार मिल गया॥2॥
श्रद्धा, भक्ति हुलसती मन में। सेवा की तत्परता तन में॥ मन में वह विश्वास बढ़ रहा। नित नूतन संकल्प कर रहा॥
अब श्रद्धा विश्वास युगल को, जन-जन में विस्तार मिल गया। माँ प्रज्ञा अवतरित हुई क्या, सद्गुण का भण्डार मिल गया॥3॥
चिन्तन लोक मंगलोन्मुख है। चरित्र दिव्यता का आमुख है॥ टलने लगा आस्था-संकट। छलक उठा आशाओं का घट॥
स्वर्ग सृजन के दिव्य शिल्प को, अब तो और निखार मिल गया, माँ प्रज्ञा अवतरित हुई क्या, सद्गुण का भण्डार मिल गया॥4॥
इन विभीषिकाओं के बादल। फला नहीं सकेंगे आँचल॥ माँ प्रज्ञा आलोक पिलाती। उकसाती प्राणों की बाती॥
स्नेहविहीन मनुज को अब तो, स्नेह छलकता प्यार मिल गया। माँ प्रज्ञा अवतरित हुई क्या, सद्गुण का भण्डार मिल गया॥5॥
—मंगल विजय