यह एकान्त की तपश्चर्या क्यों, किसलिए?

June 1990

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सुबह से ही लोग यही चर्चा कर रहे थे। जिधर देखो वही दो-चार लोग मिलकर इन्हीं बातों में मशगूल थे। जिसने सुना वही दौड़ा चला आया। वैसे भी नवम्बर का महीना दक्षिण भारत की यात्रा करने वालों के लिए सुखद माना जाता है। ये ही दिन हैं जब वहाँ “अति शीत न घामा” वाली उक्ति चरितार्थ होती है। फिर अपने “गुरु स्वामि सहायक मातु पिता” के अन्तिम चरण स्पर्श की लालसा भला क्यों न आत्मीय जनों को आकर्षित करती। हाँ वह एक ही शरीर में एक साथ सभी कुछ थे। इधर हर व्यक्ति के मन में हर्ष और विषाद एक साथ आ जुड़े थे। उनके पदों में माथा नवाने का हर्ष था तो बिछोह का दुःख भी।

वे दोनों आश्रम ब्लॉक के कोने में बैठे यही बात-चीत कर रहे थे। समझ में नहीं आता अचानक इस एकान्त वास की आवश्यकता कैसे आ पड़ी। उसने मित्र की बाँह पकड़ते हुए कहा-सुना है तप करेंगे। दूसरे का जबाब था। तप! तो अभी तक क्या कम तप किया है। तनिक गहराई से देखो, जन्म से ही सुरसरि प्रवाह की भाँति सतत् चलती आई है उनकी तपश्चर्या। इंग्लैण्ड का विद्यार्थी जीवन हो या बड़ौदा कॉलेज में प्राचार्य का समय, नेशनल कॉलेज का संचालन हो अथवा वंदेमातरम्, संध्या-युगाँतर आदि का संपादन। कितना कष्ट सहा, कैसा जीवन जिया यह घोर तप नहीं तो और क्या था? तुमने भी तो पढ़ी है, उनकी कारागार कहानी- उसने मित्र की ओर देखा। हाँ पढ़ी है। वह घटना याद हे न जब पुलिस सुपरिन्टैण्डैन्ट उन्हें फर्श पर एक कंबल बिछाए मात्र एक धोती पहने लेटे देखकर हत-प्रभ रह गया था। उसे समझ में ही नहीं आया कि कैंब्रिज का ग्रेजुएट आई.सी.एस. परीक्षा में उत्तीर्ण व्यक्ति सादगी भरा कठोर जीवन क्यों जीता है? उस बेचारे को तपश्चर्या का महत्व क्या पता? हाँ वही तो! तप तो महर्षि का स्वभाव ही है। सो तो है-मुझे भी उनके कठोर तप में पुनः संलग्न होने में तनिक भी आश्चर्य नहीं है। कि दो सवाल मेरे मन को उलझाए हैं। कौन से पूछने वाला भी जिज्ञासु हो उठा। पहला यह कि अध्यात्म जगत की सभी उपलब्धियों के बाद भी इस तरह का दुर्धषी तप किसलिए, वह भी जीव की सान्ध्य बेला में। दूसरा आश्चर्य यह हो रहा है कि जो व्यक्ति सभी से हँस डडडडड हम सभी को अपने पास बुलाकर कितना डडड नहीं की उनने, बच्चों जैसे निश्छल मजाक हँसी के वे फव्वारे.. इतनी मिलनसारिता के बाद एकान्त कुछ समझ में नहीं आता।

दोनों किसी सोच में डूब गये। स्वयं की चेतना की गहराइयों में खोने लगे। आने वाले आ जा रहे थे। क्रिया-कलापों के यथावत डडड रहने के बाद भी एक अभग्न शान्ति थी। पता नहीं कितनी देर तक वे दोनों इस तरह खोए से बैठे रहे। होश तो तब आए जब सफेद रंग का हाफ पैण्ट और शर्ट पहने एक आदमी ने आकर हल्के से उनके कन्धे पर स्पर्श करते हुए धीरे से कहा-माताजी ने बुलाया है तुम दोनों को, काफी देर से मैं ढूँढ़ रहा था, अभी तुरन्त चलो।

धीरे-धीरे चलते हुए एक के बाद अनेक सीढ़ियाँ चढ़कर वे उस कमरे में जा पहुँचे, जहाँ श्वेत परिधान में आवेष्ठित साक्षात् वात्सल्य की प्रतिमा बनी श्री माँ विराजमान थी। डडड प्रणति निवेदन करने के बाद माँ ने दोनों की ओर स्नेह भरी आँखों से देखते हुए पूछा-अरे! तुम दोनों तो कुछ उदास लग रहे हो? हाँ माँ! हम ही क्यों सभी के अन्दर एक व्यथा का बवंडर उठ रहा है। एक अनचाहे विछोह की कल्पना सब को विकल किए दे रही है। साथ ही उन्होंने अपनी दोनों उलझने कह सुनाई। सुनकर श्री माँ मुस्कराई अच्छा यह बात है उन्होंने कहना शुरू किया। उनके तप का प्रयोजन व्यक्तिगत स्वर्ग-मुक्ति नहीं है। सच पूछो तो उन्होंने सपने में भी इनकी कल्पना नहीं की वह तो एकान्तिक प्रचण्ड तप द्वारा समर्थ आत्म-शक्ति जुटा रहे हैं। किसलिए माँ? दोनों ने लगभग एक साथ पूछा देख नहीं रहे देश की वर्तमान परिस्थितियाँ, जराजीर्ण होता जा रहा समाज जिसमें नर रत्नों को पैदा करने की शक्ति नहीं रह गई। उनका तप वह वातावरण पैदा करेगा जिसमें अनेकों वरिष्ठ आत्माएँ आकर अपना विशिष्ट दायित्व निभा सकें। इतना ही नहीं सूक्ष्म और कारण शरीर की गहराई में प्रवेश करके उच्चस्तरीय प्राण चेतना का यह भण्डार संचित किया जायेगा, जो वर्तमान में दीखने वाली विषमताओं से लोहा लेगा, सूक्ष्म जगत में संव्याप्त विकृतियों को बुहार फेंकेगा। तभी तो नया इंसान, नया समाज, नई प्रणाली आ सकेगी।

तप का मकसद बहुत कुछ समझ में आ रहा था। इतने में मन में विचार उठा और विचार वह तो शब्दों के द्वारा शारीरिक गति करते हैं। पूछें या न पूछें इसी ऊहापोह में था वह इसी बीच माताजी ने पूछ ही लिया-कुछ और यद्यपि अप्रासंगिक है किन्तु फिर भी.. क्या हुआ बता?

यह अव्यवस्था उपजी कैसे? दुर्भिक्ष, युद्धोन्माद, राजनीतिक विग्रह, अपराधों की बाढ़ विचार विकृति का तूफानी सिलसिला कैसे चल पड़ा?

यह मानवीय इतिहास विशेषतया भारतीय इतिहास की उस दुर्घटना की उपज है जिसमें आत्मा, मन और शरीर के विकास से संतुलन टूट गया। जब तक यह सन्तुलन पुनः नहीं बैठ जाता तब तक समस्याएँ कभी एक, कभी दूसरा रूप धारण करती रहेंगी। मनुष्य चैन से नहीं बैठ पाएगा। इस एकान्तिक साधना का प्रयोजन उस महाकाली को अवतीर्ण करना है जो समस्त आसुरी शक्तियों को परास्त करके लोक जीवन का खोया गौरव वापस दिला सके। परन्तु हम लोग, दोनों ने आपस में एक-दूसरे की ओर देखा। मुख्यतः यही तो कहना चाहते थे वे। अरे! तुम सब बिछुड़ने के लिए थोड़ा ही जुड़े हो। हम लोगों के आपसी संबंध चिरस्थायी हैं। हम में से किसी का स्थूल शरीर रहे या न रहे फिर भी संबंधों की शाश्वत रज्जु टूटेगी नहीं। महर्षि भले ही एकान्त वास में चले जाएँ, किन्तु अपने परिजनों को जिनको उन्होंने अपने शरीर का अंग माना है-कैसे भुला सकते हैं। श्री माँ की वाणी भावों की अधिकता से रुंधने लगी। मुश्किल से गला साफ करके बोलीं मैं तो मिलती ही रहूँगी। उनकी घनिष्ठता अब पहले से अधिक अनुभव होगी। “पहले से अधिक” दोनों का आश्चर्य गैरवाजिब नहीं था। निश्चय ही श्री माँ के स्वरों में करुणा थी। पक्षी सुदूर आकाश में कितनी ही दूर क्यों न उड़ जाए, खुली आँखों से भले ही न दीख पड़े पर अपने दुधमुंहे बच्चों का ध्यान कहीं भूल सकता है? बछड़ा और गाय बिछुड़े हुए दीखने पर भी नहीं बिछुड़ते। बिछोह तो काल्पनिक है, घनिष्ठता ही सहज है। तुम दोनों ही क्यों सभी परिजन उन्हें हर मौके पर अपने नजदीक पायेंगे। उनकी लेखनी सतत् सन्देश देती रहेंगी। सोते-जागते उनकी प्रेरणाएँ अनुभव होंगी। दुखी क्यों होते हो मेरे बच्चे। माँ ने उन दोनों के सिर पर हाथ फेरा आँखों में ढुलक आए आँसुओं को अपने रूमाल से पोंछा।

अब उन्हें ऐसा अनुभव हो रहा था, जैसे सारा बोझा उतर गया हो। अन्दर से एक उल्लास फूटता महसूस हो रहा था। आखिर सारी शंकाओं का शमन जो हो गया था। इसी बीच माँ की वाणी पुनः सुनाई दी-जाओ उन्हें प्रणाम कर आओ।

आज के प्रणाम ने उन्हें सभी कुछ दे डाला। गुरु के पदों में प्रणाम करते समय उन्हें ऐसा लगा जैसे वह परावाणी से हृदय को झंकृत करते हुए कह रहे हों-”तुम मेरे अपने हो, आत्मीय स्वजन, तुम्हें मेरे महान उद्देश्य में सहयोगी बनना है। बिना रुके बिना टिके उस राह पर चलना है, जहाँ मैं ले चल रहा हूँ। भावों से परिपूरित सक्रियता ही जीवन का मर्म है।” पैरों से माथा उठाने पर एक क्षण के लिए आँखें मिलीं, जैसे सारे शरीर में बिजली दौड़ गई। साकार हो गया उनका वह कथन तुम सिर्फ कार्य करो, मैं शक्ति की कमी न पड़ने दूँगा। आज कल वही तो एकत्र करने में लगे थे। वही क्यों समूचा शिष्य समुदाय धन्य हो उठा। धन्य करने वाले महामानव थे-श्री अरविन्द जिनकी तप-साधना ने मानवीय चेतना में नयी फेर बदल की।

वर्तमान के क्षणों में फिर से चल पड़ा है-प्राण ऊर्जा का एक नया संयंत्र-जिसकी संचालक युगान्तर चेतना है, स्वयं महाकाल है।


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