युग सन्धि के अगले दिन

June 1990

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समझदार और दूरदर्शी अध्यापक, अपने सभी विद्यार्थियों का हित समान रूप से चाहते हैं और उज्ज्वल भविष्य की ही कामना करते हैं। इतने पर भी परिस्थितियों के अनुसार उन्हें पृथक्-पृथक् प्रकार के व्यवहार करने पड़ते हैं। उद्दण्डता के प्रति नाराजी और प्रताड़ना में रहते तथा जिम्मेदारीपूर्वक अपना काम करते हैं, उन्हें तदनुरूप उपहार देने की भी व्यवस्था करते हैं। इन दो प्रकार के व्यवहारों में अध्यापक का कोई स्वार्थ नहीं होता, वरन् हित कामना के अनुरूप काम देने वाले तरीके ही वह अपनाता है।

नियन्ता ने भी दो ऐसे ही माध्यम अपने हाथ में रखे हैं, ताकि उनके सहारे परिस्थितियों के अनुरूप व्यवहार किया और काम चलाया जा सके। पापी नरक का त्रास भोगते हैं और पुण्यात्माओं को स्वर्ग-सुख का रसास्वादन करने का अवसर मिलता हैं। दंड प्रक्रिया का एक नाम महाकाल भी है, जो प्रताड़ना की-दुष्प्रवृत्तियों की व्यवस्था करता है। दूसरा पक्ष है-सुखद संभावना। अनुशासन में रहने वाले, मर्यादाएँ पालने वाले और मानवोचित सत्कर्मों को अपनाने वाले सुखद संभावनाओं के पात्र होते हैं। आलंकारिक कथा-गाथाओं में उसके कई नाम दिये गये है-पारस, कल्पवृक्ष तो प्रसिद्ध नाम है ही, एक तीसरा भी है-विश्वकर्मा। इन सब नामों के मूल में उद्देश्य मात्र यही है कि कर्म का प्रतिफल मिल कर रहता है। भले ही उसमें कुछ कारणवश विलंब लग जाय।

पिछले दो हजार वर्षों में लोगों ने विशेषतया शक्तिशाली वर्ग ने अपनी क्षमताओं का दुरुपयोग किया है, उसे मूलतः अनीति में उद्दण्डता-दुष्टता आदि में नियोजित किया है। उसका प्रतिफल सामने है। हम में से अधिकाँश शारीरिक और मानसिक त्रास सह रहे हैं। दुरुपयोग के कारण दरिद्रता का भाजन बनना पड़ता है। दुर्व्यवहार के कारण द्वेष और विग्रह बढ़ता रहता है। ईश्वरीय मर्यादाओं का उल्लंघन करने के कारण उन दैवी विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है, जिन्हें प्रायः पापात्मा लोग भुगतते हैं। निन्दा, भर्त्सना, अप्रामाणिकता, अविश्वास आदि का भाजन और दुर्घटनाओं के शिकार प्रायः ऐसे ही लोग बनते हैं।

जिन दिनों अनाचार का प्रचलन बढ़ जाता है, उन दिनों की परिस्थितियाँ ऐसी बन पड़ती हैं, जिन्हें कलियुग कहा जा सके। दुष्कर्म करने वाले अपने किये का दण्ड भुगतते हैं पर मूकदर्शक बन कर अनीति को देखते रहने वाले, प्रतिरक्षा न करने वाले भी अपनी कर्तव्यहीनता, असामाजिकता एवं कायरता के कारण उसी वर्ग में आ जाते हैं भले ही उनने प्रत्यक्ष दुष्कर्म न किये हों। ऐसी घटनाएँ घटित होती ही रहती हैं। कभी-कभी इसमें देर भी लग जाती है। आज का दूध का दही बनता है। आज का बोया बीज कई दिनों के बाद अंकुर बनता है और उसको वृक्ष में तो और भी देर लग जाती है।

पिछली दो सहस्राब्दियों में सत्ताधारियों ने, धर्मोपदेशकों ने, चतुरजनों ने, धनाध्यक्षों ने, कलाकारों ने अपने समय की धूर्तताएँ करने में कमी नहीं छोड़ी है। इस भूल के कारण अनाचार बढ़ता रहा है और उसकी प्रतिक्रिया इस प्रकार सामने आती रही है कि व्यक्ति और समाज का ढाँचा बुरी तरह लड़खड़ाने लगा है। इसी का प्रतिफल है कि सर्वत्र असंतोष और असमंजस अपने बुरे रूप में सामने आता रहा है। अगले दिनों यह स्थिति और भी भयंकर होने की संभावना है। इसी कारण सर्वत्र असंतोष विग्रह और अनाचार की मात्रा असाधारण रूप से बढ़ रही है और असंख्यों कुसंभावनाएँ एक के बाद एक उभरती चली आ रही हैं। यदि क्रम यही रहा, तो अगले दिन ऐसे दुर्दिन देखने को मिल सकते हैं, जिससे मानवी सत्ता और महत्ता दोनों ही संकट में पड़ी हुई दिखाई देने लगें।

स्रष्टा संतुलन का ध्यान रखता है। वह यह सब तभी तक सहन करता है, जब तक कि खेल-खिलवाड़ की प्रतिक्रिया सहनशक्ति की मर्यादा के भीतर रहती है। जब बात आगे बढ़ जाती है, तो उसे भी बड़े कदम उठाने पड़ते हैं। अस्पताल में जिस प्रकार भयंकर दुर्घटनाग्रस्त रोगी को उपचार क्रम में सबसे आगे रखा जाता है। ‘इन्टेन्सिव केयर’ की जाती है उसी प्रकार जहाँ अधिक भयंकर दुर्घटना की संभावना रहती है। वहाँ पहले हाथ डाला जाता है।

अन्याय करने और सहने वाले दोनों ही पातकी माने गये हैं। अनीतिपूर्वक प्राणहरण करने वाला और अन्याय के सामने सिर झुका देने वाला समान रूप से पाप का भागीदार माना गया है। साध ही वह भी पाप का भागीदार होता है, जो सब समझते हुए भी दूर से देखता रहता है प्रतिरोध का प्रयास नहीं करता।

भगवान तीनों पर ही नाराज होते हैं बिगड़ते को-बिगड़ने देना-यह मूकदर्शकों का-गैर जिम्मेदारी का काम है। भगवान ऐसा नहीं है। लोग भरा ही बिगाड़ करते हों, पर भगवान अन्ततः सब को सँभाल लेते हैं। बूढ़ा होने पर शरीर भर जाता है। घर वाले, कुटुम्बी उसे जला देते हैं, पर भगवान उसे नया जन्म देता है और फिर उसे हँसने- खेलने की स्थिति में पहुँचा देता है। पिछले दिनों बिगाड़ बहुत हुआ। प्रताड़ना का समय बीत चुका है। जो शेष रहा है, वह सन् डडडड से लेकर 2000 के बीच दस वर्षों में बीत जायेगा। इन दस वर्षों में महाकाल की दोहरी भूमिका संपन्न होगी, प्रसव-जैसी स्थिति होगी। प्रसव काल में एक ओर जहाँ प्रसूता को असह्य कष्ट सहना पड़ता है, वहाँ दूसरी ओर सन्तान प्राप्ति की सुन्दर सम्भावना भी मन ही मन पुलकन उत्पन्न करती रहती है।

युग संधि के यह दस वर्ष ठीक ऐसे ही दुहरी भूमिकाओं से भरे हुए हैं। पिछले दो हजार वर्षों में जो अनीति चलती रही है, उसकी प्रताड़ना स्वरूप अनेकों कठिनाइयाँ भी इन्हीं दिनों व्यक्ति के जीवन में, समाज की व्यवस्था में तथा प्रकृति के अवाँछनीय माहौल में दृष्टिगोचर होती रहेंगी। लोग अनुभव करेंगे कि पिछले दिनों जो बरता गया है, उसका समुचित दण्ड मिल रहा है और सिद्ध किया जा रहा कि भविष्य में ऐसी भूलें नहीं बरती जानी चाहिए। मनुष्य आपस में धोखेबाजी कर सकता है, पर स्रष्टा के नियम-विधान को झुठलाया नहीं जा सकता। स्रष्टा की आँखों में धूल झोंकना भी किसी के लिये संभव नहीं है। “जैसी करनी-वैसी भरनी” का उपक्रम सदा से चलता रहा है और सदा चलता भी रहेगा। इन दिनों की कठिनाइयों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिये।

साथ ही यह भी स्मरण रखने योग्य है कि माता एक आँख जहाँ सुधार के लिए टेढ़ी रखती हैं, वहाँ उसकी दूसरी आँख में दुलार भी भरा रहता है। उसकी प्रताड़ना में भी यही हित-कामना रहती है कि सुधरा हुआ बालक अगले दिनों गलतियाँ न करे और सीधे रास्ते को अपनाते हुए सुख-सुविधा भरा जीवन जिये। वर्तमान युगसंधि काल इस दुहरी प्रक्रिया का सम्मिश्रण है।

अगले दिन सुन्दर संभावनाएँ भी अवतरित हो रही हैं। युगसंधि के वर्तमान दस वर्षों में ऐसा माहौल बन रहा है, जिसमें मनुष्य शाँति और सौजन्य के मार्ग पर चलना सीखे, कर्मफल की सुनिश्चित प्रक्रिया से अवगत हो और वह करे जो करना चाहिए उस राह पर चले, जिस पर कि बुद्धिमान को चलना चाहिए।


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