बँटवारा करके अलग-अलग रखने की नीति अव्यावहारिक है। धरती कितनी बड़ी है, यह अपने ही पिता की बनाई है। इसलिए अपना हक बाँटने और उसे अलग-अलग रखने से सारी धरती के टुकड़े कट जायेंगे और अपने हिस्से का टुकड़ा इतना छोटा रह जायगा जितने पर जरूरत की सभी चीजें न उगाई जा सकेंगी न सँभाल कर रखी जा सकती हैं।
नदी, पर्वत, उद्यान सभी तो अपने पिता के बनाये हुए हैं। इनका बँटवारा करने पर इतने छोटे हिस्से में आवेंगे कि या तो उतने में काम न चलेगा या बँटवारा हो जाने पर वे किसी के काम न रहेंगे। पक्षी आकाश बाँट लें तो उतने भर से उड़ने का क्या आनन्द रहेगा। सरोवर का पानी बाँट कर रहें तो उतने भर से किसका काम चलेगा। बँटवारे को लेकर आये दिन का कलह खड़ा होता रहेगा।
बँटवारा सम्भव नहीं। इस विश्व वैभव की उपयोगिता उसी में है कि सब मिल बाँटकर खायें। सब मिलकर इसे संजोयें और अपने महान वैभव की प्रचुरता का आनन्द उठायें। संसार एक है, सबका है। जितना अपने लिए आवश्यक है उतना उपयोग करके शेष दूसरों के लिए छोड़ दें, इसी में दूरदर्शिता है। संग्रह से तो कलह और विग्रह ही हाथ लगेगा। ब्राह्मण सही अर्थों में वही कहलाता है जो संग्रह से दूर रहता है, अपरिग्रह की रीति-नीति अपनाता है।