दृष्टिकोण की परिपक्वता

June 1990

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धन वैभव बल, पराक्रम, सौंदर्य, श्रेय, यश आदि सम्पदाओं का उपलब्ध होना बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर है। अनुकूलता रहने पर सफलताएँ मिलती हैं किन्तु यदि प्रतिकूलताएँ आड़े अड़ जायें, व्यवधान खड़े हो जायें, सहयोग के स्थान पर विरोध का सामना करना पड़े तो यह भी हो सकता है कि सही निर्णय करने वाले और सही मार्ग पर चलने वाले को भी असफलता मिले।

बहुत से महामानव लौकिक दृष्टि से असफल भी हुए हैं। कष्ट सहते और प्राण गँवाते रहे हैं। कृष्ण को बहेलिये के बाण ने परलोक पहुँचाया। कितने ही देश भक्त फाँसी पर चढ़े कितने ही महामानवों को विरोधियों के हाथों प्राण गँवाने पड़े। ईसा, सुकरात, जोन ऑफ आर्क मेजीनी, भगत सिंह आदि को आदर्शवादी होने का पुरस्कार जीवन गँवा बैठने के रूप में हाथ लगा। गाँधी, मार्टिन लूथर जैसों को अकारण ही मृत्यु के मुख में जाना पड़ा। इतिहास में ऐसी अन्यान्य घटनाएँ भी हैं जिनमें अभीष्ट सफलताओं के निकट पहुँचते-पहुँचते स्थिति उलट गई और पराक्रम निष्फल हो गये।

किन्तु दृष्टिकोण के संबंध में यह बात लागू नहीं होती। यह स्वनिर्मित होता है। इसलिए उसे बदलना और किसी के हाथ में नहीं होता। उसे स्वयं ही सृजा जाता है और कोई चाहे तो उसे स्वयं ही अस्त-व्यस्त नष्ट-भ्रष्ट भी कर सकता है। इसमें मनुष्य की धारणा, मान्यता, भावना और विचारणा ही सब कुछ होती है। यदि चिन्तन में आदर्शवादिता का समावेश हो तो दृष्टिकोण उच्चस्तरीय बन जाता है। उसमें कच्चापन तभी तक रहता है जब तक बात सोचने-विचारने, कल्पना करते रहने तक सीमित रहती है। पर जब उसे व्यवहार में उतारना आरंभ कर दिया जाता है तो विचारणा और क्रियाशीलता का सम्मिलित स्वभाव बन जाता है। यदि उसे लगातार व्यवहृत होने दिया जाय। विक्षोभों को आड़े न आने दिया जाय। डगमगाने वाले अचिन्त्य चिन्तनों से जूझते रहा जाय तो स्थिति ऐसी बन जाती है कि उसमें परिपूर्ण दृढ़ता समाविष्ट रहे और उसे विचलित कर सकना किसी भी प्रतिकूलता के लिए संभव न रहे।

दृष्टिकोण उत्कृष्ट हो या निकृष्ट, अपना निजी संसार उसी प्रकार बनाकर खड़ा कर लेता है। आँखों पर जिस रंग का चश्मा पहना जाय समूचे दृष्टि क्षेत्र को उसी रंग में रंगा हुआ देखा जाता है। दृष्टिकोण के अनुरूप ही अपनी दुनिया का ढाँचा खड़ा होता है और उसे क्रिया का सँयोग होते रहने से निर्धारणों को विकसित होने का अवसर इसी प्रकार मिलता रहता है जैसे बोई हुई फसल में खाद पानी लगाते रहने से।

जिस व्यक्ति या वस्तु पर अपने पन की भावना का आरोपण किया जाय, वह परम प्रिय लगने लगती है। अपना कुरूप बच्चा भी दूसरों के सुन्दर बच्चों की तुलना में अधिक मनोरम लगता है। स्वजन संबंधी भी साधारण मनुष्यों की तरह ही होते हैं। पर उनके प्रति जितनी गहरी आत्मीयता सँजो ली जाय उसी अनुपात में वे अधिकाधिक प्रिय लगने लगते हैं। उनके बिछुड़ने पर उतना ही अधिक दुःख भी होता है। पड़ोसी के धर में किसी की मृत्यु हो जाय तो उस समाचार का कौतूहल मात्र होता है। श्मशान में अनेकानेक मुर्दे आये दिन जलते देखे जाते हैं पर उनके प्रति उपेक्षा भाव रहने से उनका अन्त्येष्टि क्रिया देखते हुए भी कोई आघात नहीं लगता। पर जब अपने परिवार का कोई स्वजन संबंधी बिछुड़ जाता है तो शोक संताप का ठिकाना नहीं रहता। मृत्यु सभी की एक जैसी होती है। अन्त्येष्टि कर्म में भी समानता रहती है, पर शोक की न्यूनाधिकता इसी अनुपात में होती है कि मृतक के साथ अपनी कितनी घनिष्ठता थी। यदि वह न हो और उपेक्षा की मनःस्थिति हो तो शोक होने, आघात मानने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता। अपना सामान चोरी चले जाने पर बेचैनी एवं वेदना होती है। पर उतना ही पैसा या सामान किसी अन्य का चला जाय तो समाचार को सुनकर अपने को कोई व्यथा नहीं होती। यह वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति आत्मभाव की गहराई एवं उथलेपन की ही प्रतिक्रिया है जो एक दूसरे से सर्वथा भिन्न रहती है।

कुदृष्टि से देखने पर दीख पड़ने वाली सभी युवतियों के प्रति कामुकता के भाव जगते हैं और वे रमणी, कामिनी, वेश्या जैसी प्रतीत होती है। उनके प्रति अनैतिक व्यवहार करने को जो मचलता है, भले ही अवसर के अभाव में प्रत्यक्षतः वैसा करते न बन पड़े। इसके विपरीत यदि दृष्टि पवित्र रहे तो सभी युवतियों भगिनी, पुत्री जैसी पवित्र दीखती हैं। सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा जैसी देवियों की प्रतिमाएँ युवतियाँ जैसी होती हैं। वे मातृवत् देवी स्तर की लगती हैं। पर वैसे ही चित्र यदि किसी नारी नर्तकी के हों तो उन्हें देखकर कुविचार मन में उठते हैं। यह दृष्टिकोण के परिवर्तन का ही प्रभाव है।

झाड़ी में भूत दीख पड़ना या पाषाण प्रतिभा में देवता के दर्शन होना वस्तुतः द्रष्टा की मनोदशा पर ही निर्भर है। जीवन के स्वरूप का निर्धारण दृष्टिकोण के अनुरूप ही होता है। एक व्यक्ति विलासी, लालची, निष्ठुर संकीर्ण, स्वार्थी स्तर का हो सकता है। दुर्व्यसनों दुष्प्रवृत्तियों में जुटा रह सकता है। पर दूसरा व्यक्ति जिसने जीवन को ईश्वर की परम पवित्र धरोहर माना है, उसे हर समय अपने व्यक्तित्व को परम पवित्र बनाने की आकाँक्षा रहती है। पुण्य परमार्थ की योजना बनाने में ही कल्पना एवं आकाँक्षा नियोजित रहती है। बुद्धि भी उसी दिशा में काम करती है और शरीर की गतिविधियाँ भी उसी प्रकार के क्रिया–कलापों में संलग्न रहती हैं। निकृष्टता अपनाना या उत्कृष्टता के मार्ग पर चल पड़ना एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। यह भिन्नता दृष्टिकोण की भिन्नता से ही उपजती है।

उथली कल्पनाएँ पानी के बुलबुले की तरह उठती और बैठती रहती हैं। उनमें स्थायित्व नहीं होता। किन्तु उन्हें यदि निरन्तर अपनाये रखा जाय, गंभीरतापूर्वक विचार करते रहा जाय तो उनमें परिपक्वता आती है और स्थिति सुदृढ़ बन जाती है। दृष्टिकोण में अनुभव भी होता है और अभ्यास भी। उसके पीछे चिन्तन भी काम करता है और मनन भी। इन सब के समन्वय से उद्देश्य लक्ष्य की एक दिशाधारा विनिर्मित होती है। संकल्प बनता है और वह गहराई में उतरकर व्यक्तित्व को एक विशेष ढाँचे में ढालता है जिसके कारण विचारणा और क्रिया का सुनिश्चित स्वरूप बनता है। यही दृष्टिकोण है। उसमें इतना बल होता है कि सैद्धान्तिक निश्चय और व्यवहारिक क्रिया−कलाप में सुनिश्चित रूप से एकीकरण हो जाता है यह एकात्मता ही व्यक्तित्व है। वह जैसा भी कुछ बन जाता है एक


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