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June 1990

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वचनों का बवण्डर भले ही समुद्र जितना विस्तृत क्यों न हो उससे आत्मा की प्यास नहीं बुझती। इसके लिए कर्म के चुल्लू का उपयोग करना पड़ेगा। भले ही वह आकार में छोटा हो।

प्रकार से सुनिश्चित बनकर रहता है। आसानी से बदलता नहीं, उसके अनुरूप व्यवहार भी बन पड़ने लगता है। भले और बुरे व्यक्ति इसी आधार पर राह पकड़ने और उसे अपनाकर निरन्तर चलते रहते हैं। यह चलना ऐसा होता है जो अभीष्ट गन्तव्य तक पहुँचे बिना रुकता नहीं।

तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण के आधार पर मन्तव्य बनता है। विचारों को विश्वास के रूप में परिणत होने का अवसर मिलता है। किन्तु जब इसे संकल्प का रूप अपनाने की स्थिति तक पहुँच सकना बन पड़ता है तो उसे दृष्टिकोण की परिपक्वता कहते हैं। इसी आधार पर मनुष्य का भविष्य बनता है और उसका मूल्याँकन होता है। आज की परिस्थितियों में इसी चिंतन को अपनाना ही अभीष्ट है।


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