जब बोल उठा महाकाल

June 1990

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“इतने समय कौन?” उन्होंने अचकचा कर इधर-उधर देखा न दिखाई देने पर भी पदों की आहटें, शरीरों के रगड़ खाने से उठी पत्तों की सरसराहट साफ सुनाई दे रही थी, वह सोचने लगे इस धुँधलके में यहाँ कौन भटक गया? सामान्यतया यहाँ तो कोई आता भी नहीं जानवर चराने वाले लड़के भी दिवस के तीसरे प्रहर तक वापस चले जाते हैं। इतने में कुछ सुनाई पड़ा, आवाजें क्रमशः साफ होती गई। वह भी कान लगाकर सुनने लगे। एक अपने साथियों से कह रहा था, “अरे! यहाँ कहाँ आ फँसे इस बियावान जंगल में रात हो चली है, कुछ सूझ भी नहीं रहा, अच्छा हो हम लौट चलें।

कोई और कुछ कहे, इसके पहले सभी की आँखें नजदीक आती जा रही मशाल की ज्योति शिखा की ओर जा टिकी, कौन? कौन मार्गदर्शक, देवदूत, आश्रयदाता सभी के मनों में अलग-अलग भाव उभरे। धीरे-धीरे मशाल के प्रकाश में एक आकृति स्पष्ट हुई अरे! यह तो साधू है-एक साथ कई कंठ स्वर बोल पड़े, हाँ भाई! मैंने आप लोगों की आवाजें सुनी, मुझसे रहा नहीं गया, मशाल जलाई और इधर-उधर चला आया। कौन है आप लोग? आने वाले ने सहज भाव से पूछा। “मैं ब्राह्मण हूँ” वृद्ध दिखने वाले व्यक्ति ने कहा। “साधु और ब्राह्मण, एक कर्महीन दूसरा विचारहीन।” कहकर ठठाकर हँस पड़ा सुनने वाले सकपका गए अपने को संभालते हुए एक ने कहा-”महाराज! एक के बाद अनेक असह्य दुःखों ने आचार्य जी को व्यथित कर दिया है, उनके कथन का बुरा न मानें।”

नहीं भाई इसमें बुरा मानने की क्या बात? यह तो कठोर सच्चाई हे, जजीरेत समाज की दुरावस्था का प्रधान कारण है-साधु ने सौम्य स्वर में बात आगे बढ़ाई, अच्छा हो आप सब यहीं पास में मेरी कुटिया तक चलें। थोड़ी ही देर से पच्चीस-तीस लोगों का समूह कुटिया के सामने था। सभी ने हाथ, पैर, मुँह धोए। इतने में गैरिक वस्त्रधारी संत ने भुने हुए कन्दों का एक छोटा ढेर सबके सामने लगा दिया, कुछ अन्य जंगली फल भी थे। सभी धीरे-धीरे खाने लगे, आज अनेक दिनों के बाद उन्हें तृप्ति अनुभव हो रही थी। तृप्ति सत्कार की, अपनत्व की, प्यार की सम्मान की। सिर्फ भोजन से भला कौन कब तृप्त हुआ है?

भोजन के बाद बातों का क्रम चल निकला। फूट पड़ी व्यथा कथा सिन्ध के राजा दाहिर पर आक्रमण की, किसी ने तो उसका साथ नहीं दिया। हे मानव! तूने पड़ोस में लगी आग बुझाने को कब सोचा है। मेरी नींद तो खुद के जल रहे घर को देखकर भी नहीं टूट रही। महिलाएँ कुचली-मसली गई। बच्चे भालों की नोंक पर उछलने के लिए मजबूर हुए। पुरुषों की रक्तधार से मेदिनी सिक्त हुई और आप लोग इतने पर भी भाग कर चले आए। साधु के शब्द बताने वाले के वाणी प्रवाह के सामने बाँध बन कर खड़े हो गये। एक क्षण के लिए वह सहमा फिर प्रकृतिस्थ होकर बोला-”भागे-भागते क्यों? नहीं हम सावधान करने आए हैं यह बताने आए हैं कि हम तो जल गए अब तुम्हीं झुलसने से बचो।” कहते-कहते वह तमतमा उठा। तमतमाहट सिसकियों में घुलने लगी। साधु ने सभी को आश्वासन दे जैसे-तैसी उन्हें सोने के लिए प्रेरित किया। वह भी कुटिया के अन्दर चले गए।

सोने की कोशिश की पर आँखों में नींद कहाँ? सोचने लगे आज समाज में चारों ओर छिद्र ही छिद्र हो गए हैं। जन अज्ञान, अभाव और आत्म चिन्तन से जर्जर है, कुरीतियों की सर्पमालाएँ रूढ़ियों के वृश्चिक दंश उसे मूर्छित और विकल कर रहे हैं, अनन्तधा विदीर्ण हो उठा है। जन जीवन। क्या करूं? तुम्हीं कुछ कर्तव्य सुझाओ। एकलिंग कहकर उसने सामने प्रतिष्ठित शिवलिंग की ओर कातर भाव से ताका। सोचते-विचारते पता नहीं उसे कब नींद आ गई। स्वप्न में देखा ज्योतिर्लिंग साकार हो उठा है। धीरे-धीरे उसने एक ज्योति पुरुष का रूप लिया। ज्योति रेखाओं से इसका शरीर बना है, मानो, अग्नि शिक्षा को छानकर स्वर्ण शलाकाओं से बाँधकर विद्युत शिखाओं से खरीदकर और सूर्यकान्त मणियों को गलाकर ही यह अपूर्व ज्योतिर्मंडल तैयार किया गया है। अहा यह अकारण दयालु परमदेव कौन हैं?

मानव का चिरपुरातन और चिरनवीन मार्गदर्शक अन्तः स्थित और बहिर्व्याप्त महाकाल। एक गुरु गम्भीर स्वर उभरा। समाज जर्जर है तो सिर्फ इस कारण कि हर कोई अपने स्वार्थों का घरौंदा बनाने के फेर में है। यहाँ तक कि तेरा भी जगत प्रवाह से विच्छिन्न होकर व्यक्तिगत साधना के कचुँक से निरंतर संकुचित होते रहकर स्वयं के मुक्ति लाभ की आशा करना और क्या है? समाज की रक्षा का अर्थ है-स्वार्थी का बलिदान। धरती पर स्वर्ग वही लाएगा, जिसके पास सहज जीवन का कवच होगा, सत्य को तलवार होगी, धैर्य का रथ होगा, साहस की ढाल होगी, मैत्री का पाश होगा, धर्म का नेतृत्व होगा, उठो, रौंदो इन स्वार्थों को तुम्हारे बलिदानों का प्रत्येक कण भावी पीड़ियों को साहस और निर्भीकता का संदेश देगा, प्रचण्ड सुधा की तरह बरसो, कायरों और निकम्मों के गढ़ पर धक्का मारो। उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ने वाले प्रत्येक निःस्वार्थ कदम के साथ मैं स्वयं हूँ।

टूट गई उसकी झपकी, सोचने लगा कैसी सारगर्भित भी उद्बोधक वाणी, स्वप्न होने पर भी जाग्रत से कहीं अधिक सजीव, यही तो वह सन्देशा है जिसे सुनने के लिए मेरा अंतर तर व्याकुल था। सचमुच कहाँ समाज को स्तब्धता, अवमानना, भय कातरता और परमुखा पेक्षित्य से बचाने का महान सन्देश और कहाँ व्यक्तिगत चौखटों में छटपटाने वाली मुक्ति साधना के मेरे प्रयल! उपास्य के निर्देश ने उसके अंग-अंग में स्फूर्ति, उल्लास और प्रसन्नता भर दी थी।

लक्ष्य स्पष्ट था धरती पर स्वर्ग उतार कर रहूँगा। राह सुस्पष्ट थी- महाकाल का सहधर बनने की। योजना दिमाग में कौंध गई। कौन देगा मेरा साथ? धनिक! जो वैभव के मद में चूर हैं, विद्वान! बुद्धि के तिकड़में की पट्टी जिनकी आँखों में कस कर बंधी है, फिर कौन? शासन करने वाले, पर उन्हें शोषण और उत्पीड़न से फुरसत कहाँ? तब फिर? साधारण जन, भील, आदिवासी हर व्यक्ति जिसके कान निकलता की मर्म भेदी पुकारों को सुनने के लिए बहरे नहीं हुए हैं, जिनका सम्वेदनशील हृदय हर किसी छटपटाहट और तड़पन के साथ धड़क उठता है, और योजना के प्रथम चरण में वह जा पहुँचा भीलों की बस्ती में उनके तरुण नायक बप्पा के मन में अपनी सारी व्यथा उड़ेल दी। सहज जीवन को अपनी सम्पत्ति मानने वाले भील कह उठे हम तैयार है महाराज किन्तु.. किन्तु क्या? हम अनगढ़ और अशिक्षित माने जाते हैं, बुद्धिमान हमें उपेक्षित, तिरस्कृत समझते हैं, तैयार होने पर भी हम आपके अनुगामी बन सकेंगे सन्देह है। अनुगामी हमारे नहीं, भगवान एकलिंग के उस परा चेतना के जिसने मुझे झकझोर कर उठाया है अपना यंत्र बनाना चाहा है। वहीं तुम्हें, तुम जैसों को अपना यंत्र बनाना चाहते हैं। परवाह नहीं, यदि तुम बहुत नहीं हो, धन का अभाव हे, रहने के लिए गगनचुंबी अट्टालिकाएँ नहीं हैं, वर्तमान के जराजीर्ण समाज में तुम्हारा स्थान नहीं है। हमें नया समाज रचना है, नया समाज जिसका हर स्पन्दन मनुष्य में दिव्यत्व को उभार सके। जिसके समस्त मान दण्डों के आधार धन और बुद्धि न होकर संवेदनशील मानवीयता होगी। बोलो तैयार हो? हाँ शताधिक कंठस्वर गूँज उठे। ये शब्द सुनकर साधु भी हर्षपूर्वक बोला, “भीलो तुम्हारे काले शरीरों में उजले दिल हैं, तुम्हारी आत्माएँ महान और पवित्र हैं, आज के तुम्हारे ये संकल्पित स्वर आने वाली मानवता का दिग्दर्शन करेंगे। तुम्हारा कर्तृत्व प्रचलित दीपशिखा की तरह अनेकों के थके पावों को बल देगा। उसके ये शब्द हारीत मुनि की जय, बप्पा रावल की जय की प्रचण्ड ध्वनि के साथ फैल गए।

प्रचण्ड गति से बढ़ चला परिवर्तन का चक्र जिसकी धुरी हारीत मुनि थे। बप्पा रावल लोक नायक बने। उनकी प्रचण्ड कर्मनिष्ठा ने इतिहास में एक स्वर्णयुग रचा। बीतते समय में महाकाल के स्वर पुनः गूँजे हैं पहले की अपेक्षा कहीं अधिक सतेज सूरज की तपन हवा का बहाव, जल की लहरें एक ही गीत गा रही है-किसी भी स्थिति में लोक नायक चाहिए।


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