कितना अक्षम्य अपराध किया मैंने। उफ! ऐसे तपस्वी का अपमान! कहते हैं भक्त का अपमान भगवान भी नहीं माफ करते। राजर्षि अम्बरीष का अपमान करने के बाद दुर्वासा ऋषि को तीनों लोकों में ठौर नहीं मिला। भागते फिरे कोई नहीं दे सका त्राण, आखिर अम्बरीष की शरण ने ही उन्हें त्रासदी से छुटकारा दिलाया। वह भी भक्त है और नहीं तो क्या? सचमुच का भक्त वही है जो विश्वात्मा में विलीन हो चुका हो। जिसका समूचा चिन्तन और प्रत्येक कर्म भगवान के कार्य हेतु समर्पित है। जिसका मन कामनाओं के कलुष से विहीन है जिसका व्यवहार कटुता से शून्य है और एक मैं अभिमानी, ज्ञान से गर्व से चूर क्या-क्या नहीं कह गया। शास्त्रों के मर्म को न जानकर भी इनकी दुहाई देता रहा।
सोचते-सोचते उसने अपनी दृष्टि सामने की ओर उठाई अरे! तो क्या वह आ पहुँचा है, शायद नहीं। अवश्य प्रत्यक्ष ने प्रमाण दिया। देखा सामने की कुटिया के बाहर एक विशाल चबूतरे पर मात्र कोपीन लपेटे नग्न बदन एक देवतुल्य पुरुष दोनों हाथ पीछे बाँधे टहल रहे हैं। कसा हुआ कसरती गौरवर्ण का शरीर चन्द्रमा के मन्द प्रकाश में झिलमिल कर रहा था।
देखकर सोचने लगा, मुझमें और इस महापुरुष में कितना अंतर हैं? मैं विद्वान हूँ पर उद्देश्यहीन, वह विद्वान है शिव संकल्पी योद्धा। जिसने महान सदुद्देश्यों के लिए विद्या उसका शस्त्र। मैं निर्जीव रूढ़िवादी हूँ परिवर्तन से घबराता हूँ। वह क्राँतिकारी है, जो समाज को सड़ाँध से निकालकर प्रकाशमय जीवन पथ पर लाना चाहता है, उसके मन में एक ज्वाला है जो उसकी कड़े जाड़े से रक्षा करती है, मैं उससे वंचित हूँ। निकट पहुँच कर वह उनके चरणों की ओर लपके। ऐसा करते ही उनकी दृष्टि उस पर गई। कुछ रुककर कहा कौन? ब्रह्मचारी जी? यह क्या करते हो भाई कह कर छाती से चिपटा लिया। “महाराज! मेरी आत्मा बहुत अधिक व्यथित है मैं क्षमा,”...
आगन्तुक का रुँधा गला आगे कुछ न कह सका।
नहीं भाई। आपने आत्मा की आवाज को सुन लिया यही क्या कम है। जो आपने पढ़ा है उससे में अनभिज्ञ हूँ। मैंने उस ओर ध्यान नहीं दिया इस कारण कि वह मनुष्य को जीवन के सौंदर्य से दूर करने वाला है, आत्मा में दुर्व्यसन उत्पन्न करती है। समाज का सर्वनाश असत्य और दुराचार से हुआ है। हम वह विद्या चाहिए जो इस तम को नष्ट कर सत्य का आलोक बिखेर सके। सृजन की अकुलाहट उमगा सके”।
“तो जो कुछ मैंने आज तक पढ़ा-उसने आश्चर्य से आँखें फाड़ीं।”
“क्षमा कीजिएगा- आपने अभी तक जानकारियों के बोझ को अपनी पीठ पर लादा है”। यदि “सा विद्या या विमुक्तये” का मर्म अनुभव किया होता तो उन रूढ़ियों-कुरीतियों, वृथा प्रथाओं का पक्षपात न करते जिनके लौह पाश में आबद्ध व्यक्ति और समाज छटपटा रहा है, पीड़ा से बेचैन है। कुछ रुककर उनकी ओर दृष्टि डालते हुए बोले कैसी विडंबना है—”मोक्ष को अपना आदर्श लक्ष्य मानने वाला समाज अपने को निरंतर इन वीभत्स रूढ़ियों के फंदे में फँसाता जा रहा है और सर्वाधिक आश्चर्य तो यह कि कसने वाले की हैं जो मुक्ति की महिमा का बखान करते नहीं अघाते।”
सुनने वाला चुप था उसने शब्दों में शत प्रतिशत सत्य अनुभव हो रहा था।
तो जानकारियों का अर्जन क्या है स्वामी जी। शिक्षा है। भले वह वेद शास्त्रों की ही क्यों न हों। जब इसे व्यक्ति की मनःस्थिति और समाज के परिवेश से तारतम्य बिठाकर कालक्रम के अनुरूप उच्चतर जीवन जीने में प्रयोग किया जाने लगता है तो इसे सम्यक ज्ञान कहते हैं। यही विद्या है जिसका एक ही लक्ष्य है शुद्ध बुद्ध मुक्त जीवन। समझ गया स्वामी जी मैं आपका महत्वपूर्ण उद्देश्य। अब मैं भी शिक्षा से ऊपर उठकर विद्या की ओर बढूँगा।
हाँ मित्र। मेरी यही एक चाहत है विद्या का विस्तार। जिसका परिणाम होगा हँसता मुस्कराता उल्लासपूर्ण जीवन। अपने दिल में यह चाहत सँजोने वाले विद्या के परमाचार्य थे स्वामी दयानन्द। जिनकी सारी आशाएँ अब हम पर टिकी हैं, सिर्फ हम पर।