एक साधु से एक सर्प ने दीक्षा ली। दीक्षा का समय कुछ त्याग करने के नियम है। साधु ने सर्प से क्रोध न करने की दक्षिण माँगी और उसने वह दे भी दी।
सर्प एक पगडंडी के किनारे पड़ा रहता। जो घास-पात मिलता उसी से अपना पेट भर लेता। उसी रास्ते कुछ नटखट लड़के भी गुजरते। साँप को अपने स्वभाव के विपरीत पगडंडी पर चुपचाप पड़ा देखा, तो उनने आये दिन छेड़ना कभी-कभी कंकड़ फेंकना आरंभ कर दिया। इस स्थिति में बेचारा सर्प घायल होने लगा। लड़कों की शरारत और भी अधिक बढ़ती गयी। सर्प को अपनी प्रतिज्ञा का ध्यान था, सो वह न तो क्रोध करता और न किसी से बदला लेने की कोई चेष्टा करता। फलस्वरूप इस दुर्दशा में पड़े हुए उसे बहुत दिन हो गये।
एक दिन सर्प के वही गुरु उधर से निकले। शिष्य देव ने उनको पहचान लिया ओर साष्टाँग दंडवत करके अपनी दुर्दशा का हाल बताया और कहा क्रोध छोड़ देने का ही यह फल हुआ। आपकी गुरु दीक्षा लेने पर तो मेरी उन्नति होनी चाहिए थी। वैभव और प्रताप बढ़ना चाहिए था। पर यहाँ तो सब कुछ उलटा हो रहा है। कृपया कहीं भूल हुई हो तो बताएँ। आपका आशीर्वाद निष्फल क्यों जाना चाहिए?
साधु ने कहा-मैंने क्रोध छोड़ने-किसी को न काटने भर के लिए कहा था। एक बात अधूरी रह गई वह यह कि नटखटों के प्रति फुफकार लगाना मत छोड़ना। यह भी समझना चाहिए कि “भय” के बिना प्रीति नहीं होती। आजकल सज्जनों को दुर्बल और कायर समझा जाता है। उनके बारे में यह समझा जाता है कि वे अशक्त हैं कुछ कर नहीं सकते हैं। यह भ्रम किसी को नहीं होने देना चाहिए। सज्जनता का बाना पहन कर कायरता को नहीं छिपाना चाहिए।
सर्प की समझ में बात आ गई और दूसरे दिन से ही उधर आने वाले पर फन फैलाकर क्रोध दिखाने लगा। फुफकार सुनते ही नटखट लड़के ही नहीं, उधर से गुजरने वाले बड़े भी डरने लगे और छेड़खानी करने की अपेक्षा डर कर बचने और दूसरे रास्ते निकलने लगे।
गुरु साधु-सर्प शिष्य जहाँ रहता था, उस ओर बड़े। जिस पेड़ के नीचे बैठे, उसकी डाली पर बर्र का एक छत्ता था। उसमें पीली बर्रें सैकड़ों की संख्या में भिनभिना रही थीं। साधु ने उनसे पूछा-तुम लोग भी दीक्षा लोगी क्या? हम सिद्ध पुरुष हैं। अनेक मंत्रों के ज्ञाता। हमने अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ उपलब्ध कर ली हैं। जो शिष्य हमसे दीक्षा लेता हे, उसे हम निहाल, कर देते हैं। तुम भी यदि चाहो तो यह लाभ प्राप्त कर सकती हो। दीक्षा तुम्हें भी मिल जायगी। बिना कुछ दिये इस प्रयास का लाभ यदि तुम चाहो, तो प्राप्त कर सकती हो।
बर्रे उसी पेड़ पर बहुत दिनों से रहती थीं। सर्प की दुर्गति वे एक वर्ष से देख रही थीं। यह भी देखा कि सर्प का संकट तभी टला था, जब उसने फन फैलाने और फुफकार लगाते रहने की कला सीख ली थी। जब तक वह दया धर्म का पालन करता रहा, तब तक उस बेचारे की दुर्गति ही होती रही थी। अतः उनने साधु से दीक्षा न लेकर क्षमा माँग ली। कहा कि हम इसी स्थिति में अच्छी हैं।
पेड़ की जड़ में एक बिच्छू रहता था। देखने में सुन्दर किन्तु डंक में हलाहल जहर भरे हुए। दीक्षा की चर्चा उसने भी सुनी, साथ ही छत्ते वाले बर्रों का उत्तर भी। बिच्छू मन ही मन हँसा और साधु से कहा-”भगवन्! आप शिक्षा तो बड़ी मार्मिक देते हैं पर यह भूल जाते हैं कि शिक्षा देने से पहले विद्यार्थी की परिस्थितियाँ भी जाननी चाहिए। आपके उपदेशों पर मेरे जैसा कोई चले, तो उसका एक दिन जीना भी मुश्किल हो जाय।” वस्तुतः शिक्षा वही सार्थक है जो व्यावहारिक हो, परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही जा रही हो। सबको एक लाठी से भी तो हाँका नहीं जा सकता।