सही अर्थों में जीवनमुक्ति की परिभाषा

June 1990

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अद्वैत कहते हैं एकात्मा को। जब दो सत्ताओं का विलय-विसर्जन एक में हो जाता है, तो यह अद्वैत की स्थिति कहलाती है। भक्त का भगवान में, नर का नारायण में आत्मा का परमात्मा में मिलन-संयोग ही एकात्मा की स्थिति है। यह स्थिति प्राणी, पदार्थ और प्रकृति में समान रूप से पायी जाती है, जो आवश्यक और उपयोगी भी है।

सूर्य, प्रकाश बाँटने में कभी भेद-भाव नहीं करता। वह यह नहीं सोचता कि अमुक व्यक्ति महान है या क्षुद्र, ऊँच है या नीच, राजा है या रंक। वरन् सभी को समान रूप से प्रकाश प्रदान करता है। इसी प्रकार स्थान-भेद भी उसमें नहीं पाया जाता। यह नहीं विचारता कि कौन स्थान अच्छा है और कौन खराब, कौन गंदा है और कौन स्वच्छ, अपितु समदृष्टा भाव से हर वातावरण पर रोशनी बिखेरता है। यह समता भाव ही अद्वैत की स्थिति है। जिस दिन सूर्य संकीर्ण और कृपण बन कर ताप और प्रकाश देना संसार को बन्द कर देगा, उसी दिन वह जल कर भस्म हो जायेगा उसकी प्रचण्ड ऊर्जा उसे ही जला कर राख कर देगी। पर ऐसा होता अब तक देखा नहीं गया। वह संसार-सृष्टि की आवश्यकता को समझते हुए निरंतर जलता रह कर अपनी ऊर्जा का अजस्र अनुदान लुटाता रहता है।

हवा जब बहती रहती है, तो वह सुगंधित, सुरभित बनी रहती है, किन्तु जब वह एक कमरे में बन्द होकर सीमित-संकुचित हो जाती है, तो सीलनयुक्त बदबूदार बन जाती है। वायु का द्वैत भाव जाग्रत होकर जैसे ही औरों की उपेक्षा आरंभ करता है, उन्हें अपनी शीतलता व सुख से वंचित करता है, वैसे ही हाथों हाथ इसका दुष्परिणाम भी उसे भुगतना पड़ता है। वह दूषित हो जाती है।

परमाणु के मूल कण यदि उससे विलग रहना चाहें तो क्या वह संभव है? इस स्थिति में तो वे अपना अस्तित्व भी सुरक्षित नहीं रख सकेंगे। वस्तुतः मिलकर रहने में अद्वैत भाव में ही सब की सुरक्षा है। बूँद समुद्र-सरोवर के लिए है। उनके साथ एकाकार रहने में ही उसका श्रेय, सौभाग्य और जीवन है। पत्थर यदि इमारत की नीम में लगने के लिए तैयार न हो, तो वह कौड़ी मील का रह जाता है। ऐसे रोड़े तो यत्र-तत्र हजारों पड़े रहते हैं, और नित्य कुचले-रौंदे जाते रहते हैं। पर वे ही जब भवन, अट्टालिकाओं में प्रयुक्त होते हैं, तो हजारों लाखों के बन जाते हैं। यह एकात्मता का परिणाम है। पत्थर अपने पृथक् अस्तित्व रखते हुए भी इमारत बन कर रहते हैं। यह अद्वैत का लाभ है। इसी को अनेकता में एकता कहा गया है।

यह एकता और एकात्मता न सिर्फ प्रकृति और पदार्थ के लिए आवश्यक है, वरन् मनुष्य के लिए भी समान रूप से जरूरी है। मनुष्य समाज में रहता है, वह उसकी रचना करता और उन्नति-प्रगति की बात सोचता है। बदले में समाज भी उसकी देख-रेख शिक्षा-दीक्षा, जीवन-यापन आदि का प्रबंध करता है। प्रकारान्तर से इसमें भी एकत्व का भाव है। मनुष्य यदि स्वयं की ही चिन्ता करने लगे और समाज की परवाह करना छोड़ दे, उससे पृथक हो जाय, तो क्या वह जिन्दा रह सकेगा? फिर उसे भोजन, वस्त्र, शिक्षा, साधन कौन देगा। जीवन की अन्य अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति में उसकी मदद कौन करेगा? निस्संदेह इसके लिए उसे समाज का अभिन्न अंग बन कर रहना पड़ेगा। परस्पर शरीर और मस्तिष्क का संबंध अनुभव करना पड़ेगा। जैसे ही उसके मन में व्यक्ति और समाज के अस्तित्व के प्रति दो पृथक् भाव पैदा होंगे, उसका जीवन संकट में पड़ जायेगा। इससे बचने का एक ही उपाय है कि वह समाज में घुल-मिल कर रहे, उसे अपने शरीर का एक भाग समझे और उसी के अनुरूप उसके अभ्युदय व विकास की बात सोचे। इसी में उसकी स्वयं की गति-प्रगति और समाज का कल्याण है, अन्यथा जिस दिन उसमें सड़न पैदा हुई, व्यक्ति अपने को भी सुरक्षित नहीं रख पायेगा, उससे प्रभावित होगा और विनाश के गर्त में समा जायेगा।

अद्वैत का अर्थ है-अहंकार नाश। जब तक व्यक्ति अपने अहं को नहीं मिटाता, तब तक उससे द्वैत भाव का परित्याग नहीं बन पड़ता। इस स्थिति में दूसरों के प्रति स्नेह-श्रद्धा का विकास नहीं हो पाने के कारण सामने वाला व्यक्ति सदा तुच्छ जान पड़ता है। उपेक्षा भाव भरा रहने के कारण समाज में घुलना-मिलना भी संभव नहीं हो पाता, फलतः ऐसा कोई कार्य नहीं बन पड़ता, जिससे उसे समाज का शुभचिन्तक कहा जा सके। पर जैसे-जैसे उसका अहं गलता जाता है, सेवा कार्यों के प्रति रुचि बढ़ने लगती है, वह तदनुरूप प्रवृत्ति अपनाने लगता है। जनता में जनार्दन की, विराट ब्रह्म की झाँकी होने लगती है और वह उनसे ऐक्य का अनुभव करने लगता है।

अद्वैत अर्थात् प्रेम। यह प्रेम ही वह माध्यम है, जो एक को अनेक से जोड़ता है, दूसरों में अपनत्व का अनुभव कराता एवं परायेपन का भाव मिटाता है। जिस दिन मनुष्य प्रेम तत्व का परित्याग कर देगा, उस दिन से सारा संसार उसके लिए नीरस अरुचिकर, उबाऊ प्रतीत होने लगेगा। यहाँ तक कि घर-परिवार से, स्नेही कुटुम्बियों के प्रति भी रुचि समाप्त हो जायेगी और उसका स्वयं का जीवन ही भारभूत बन जायेगा। फिर उससे समाज के लिए तो क्या, अपने लिए भी कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा और समाज में रहते हुए भी एकाकीपन अनुभव करेगा। यह स्थिति प्रेम के विकास से ही समाप्त हो सकती है। तभी व्यक्ति स्वार्थ के सीमित दायरे से निकल कर अपना आत्म-विस्तार कर सकता और समाज से, विराट ब्रह्म से गहन तादात्म्य अनुभव करता है। ऐसी दशा में सारे लोग उसे स्वजन और समस्त विश्व अपना परिवार महसूस होता है। फिर उससे जो कार्य बन पड़ता है, उसमें अपने-परायेपन का कुछ भेद-भाव होता ही नहीं। समस्त कार्य अपने निजी जान पड़ते हैं और वैसी ही तत्परता व निष्ठा से वह उसे पूरा करता है। महापुरुषों, महामानवों में यही विशेषता होती है। वे इतना प्यार लुटाते अपना बन जाता है। वे स्वयं में उनकी और उन में स्वयं की अनुभूति करने लगते हैं। यही समर्पण विलय, विसर्जन है। आत्मसत्ता का विराट ब्रह्म सत्ता से एकाकार। इसी स्थिति में कार्य उच्चकोटि के बन पड़ते हैं।

प्राचीन चीन में चित्रकारों को जब किसी वृक्ष, गुल्म या झाड़ी का चित्र बनाना होता था, तो वे उसके निकट तब तक बैठे रहते थे, जब तक उसकी अनुभूति न हो जाती। जब वे स्वयं अपने को उसके साथ एकाकार अनुभव करने लगते, तभी तस्वीर बनाना आरंभ करते थे। इस अवस्था में जो भावाभिव्यक्ति होती, वह ऐसी सजीव होती, मानो साक्षात् उस गुल्म को उखाड़ कर कागज पर रख दिया गया हो।

अद्वैत भाव की इसी स्थिति में सच्ची सेवा भी बन पड़ती है। जब तक व्यक्ति दूसरे की पीड़ा व वेदना की स्वयं अनुभूति नहीं कर लेता तब तक उसके अन्दर वह कसक भी पैदा नहीं हो पाती कि उससे किसी की सहायता बन पड़े। ऐसा मनुष्य जाति से गहन एकात्मता का अहसास करने पर ही संभव है और यह स्थिति तभी उत्पन्न हो सकती है, जब हमारे अन्दर प्रेम का विकास हो समाज प्रेम, राष्ट्र प्रेम, विश्व प्रेम, तथा मानव प्रेम। इससे कम में मन का तार मन व मानवता से जुड़ ही नहीं सकता, अपनत्व का अनुभव हो ही नहीं सकता। इसीलिए ऋषियों ने भी इसकी आवश्यकता को समझते हुए इसे विकसित करने का निर्देश किया है-

सहनाववतु सह नौ भुनक्तु सहवीर्यम् करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

निश्चय ही, स्नेह-सौजन्य के विकास से ही परायेपन और द्वैत भाव का पलायन हो सकता है। नदी अपने भीतर कितने ही प्रवाहों को उदारतापूर्वक समेट कर समभाव हो जाती है। यदि वह इनसे घृणा करे और इनके मिलन-समागम पर आपत्ति करने लगे, तो उसका स्वयं का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है, असमय सूख सकती है। अतः नदी की गति प्रवाहों को अपने में समन्वित कर लेने और प्रवाहों का विकास नदी से आत्मसात् हो जाने में ही है। इसी को द्वैत भाव का नाश और अद्वैत में अवस्थित होना कहा गया है। कार्ल मार्क्स के शब्दों में “बन फॉर ऑल एण्ड ऑल फॉर वन” की यही स्थिति है। स्वर्ग-मुक्ति का आनन्द इसी में है। मनुष्य-समाज का यही चरम लक्ष्य है।


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