भौतिक विज्ञानियों, समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों एवं भविष्यविज्ञानियों ने अपने-अपने ढंग से अपने क्षेत्र के तथ्यों के आधार पर आने वाले समय के संबंध में अपने-अपने प्रकार की कल्पनाएँ की हैं। किसी ने उसे “सुपर इण्डस्ट्रियल एज” की संज्ञा दी है, किसी ने उसे “क्रियेटिव ह्यूमन एज” कहा है, किसी ने कुछ अन्य नाम से संबोधित किया है पर डडड लगभग सभी ने स्वीकारी है कि वह मनुष्य की भावनात्मक विकास चरमोत्कर्ष पर होगा और प्रायः हर कार्य उसका विवेक पर आधारित होगा। ऐसे ही एक द्रष्टा मनीषी रूस में विक्तोर ग्रिगोयोविच अफनास्टोव हुए हैं। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है। वैज्ञानिक कम्यूनिज्म के मूल सिद्धान्त” जिसमें उनने भविष्य की लगभग मिलती-जुलती परिकल्पना की है।
“नये मानव को ढालना” एवं मानव जाति का उज्ज्वल भविष्य शीर्षक अध्यायों में वे कहते हैं कि उस काल में बौद्धिक विकास की सर्वोपरि नहीं होगा, बल्कि भावना एवं संवेदना के विस्तार की ओर तब विशेष रूप से ध्यान दिया जायेगा, क्योंकि मानव एक अत्यन्त संवेदनशील और भावुक प्राणी है और बिना इसके उन्नयन के समाज में परिवर्तन ला पाना असाध्य ही नहीं, असंभव भी है। इसे और स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं कि मानवीय भावनाओं के बिना सत्य के लिए न कभी कोई मानवीय खोज हुई है और न हो सकती है। अतः निकट भविष्य में व्यक्ति के मौलिक गुण इस रूप में विकसित होंगे, जिससे वह अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने एवं स्वस्थ मनोवेगों को विकसित करने की दिशा में चरण बढ़ायेगा तथा उन्हें अपने तथा समाज कल्याण में लगायेगा। जिससे पिछड़े हुए ऊँचा उठें, उठे हुए प्रतिभाशाली बने और प्रतिभाशाली अपनी क्षमताओं का सुनियोजन लोक मंगल में कर सकें। यही है, भावनाओं आकाँक्षाओं, मान्यताओं का आदर्शवादी उत्कृष्ट स्वरूप, जो अंतःकरण में भाव संवेदना बन कर रहता है एवं जिसके परिष्कृत होने पर कोई व्यक्ति देवमानव बनता है।
जिस सामाजिक वातावरण के प्रभाव के अंतर्गत मनुष्य का विकास होता है उसकी परिधि में भौतिक तत्वों के साथ-साथ आत्मिक तत्व भी आ जाते हैं। यद्यपि भौतिक तत्वों की तुलना में स्थूल दृष्टिकोण से आत्मिक तत्वों का महत्व कम है। फिर भी वे मनुष्य की समग्र प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अंतर्गत अपने आपको विश्व वसुधा का अभिन्न अंग मानना, सामाजिक तथा वैयक्तिक जीवन में ईमानदारी, जिम्मेदारी, सच्चाई, नैतिक शुद्धता, नागरिक कर्तव्य की उदात्त भावना, हरेक सबके लिए और सब हरेक के लिए, एवं सब अपने और अपने को सब में मानने की आस्था, जैसे तत्व सम्मिलित हैं। इनके विकास के बिना न तो सुख-शाँति सुरक्षित रह सकती है, न व्यक्ति चहुँमुखी विकास कर सकता है। अगले दिनों इन्हीं से भरा पूरा कर व्यक्ति दिखाई देगा।
शारीरिक और मानसिक कर्मठता के प्रति लोगों की आस्था बढ़ेगी। शारीरिक श्रम के प्रति तिरस्कारपूर्ण और मानसिक तत्परता के प्रति रुझान भी बदलेगा। क्योंकि विज्ञान की प्रगति के बाद भी रोबोट उन व्यक्तियों का स्थान नहीं ग्रहण कर सकेगा, जिनमें मानवीय उदारता, दयालुता, सौहार्द्र विनम्रता और कलात्मक सुरुचि की अभिव्यक्ति होती है। पिछली सदी में तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप मनुष्य के श्रम करने की शक्ति घटी है। जापान जैसे यंत्रीकृत देशों में तो शक्ति का यह अनुपात 15 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत हो गया है। इसके कारण बीमारियों की दर बढ़ी है और समय से पूर्व जीर्णता का खतरा पैदा हो गया है, जबकि मानसिक श्रम के साथ शारीरिक श्रम का संतुलन अवश्य होना चाहिए।
यही रूस की प्रगतिशील का रहस्य है। एक सर्वेक्षण के दौरान पाया गया कि सोवियत जनप्रतिनिधियों की कुल संख्या 22 लाख है। वे मात्र वैज्ञानिक क्षेत्र में ही व्यस्त नहीं रहते, वरन् चाणक्य, राजा जनक, नसिरुद्दीन की तरह अपना निर्वाह स्वयं उपार्जित करते हैं। इन प्रतिनिधियों में अधिकांश पेशेवर राजनीतिक नहीं, अपितु सामूहिक और राजकीय, वैज्ञानिक तथा साँस्कृतिक संस्थानों में काम करने वाले लोग हैं। प्रतिनिधियों के रूप में वे अपने कर्तव्यों की पूर्ति अपने खाली समय में बिना पारिश्रमिक लिये करते है। पेरेस्त्रेइका व ग्लासनोस्त जैसी उदारवाद की ठण्डी हवाओं के झोंकों के साथ अब ऐसे समाचार रूस से बड़ी संख्या में मिलने लगे है। आगामी सदी के उज्ज्वल भविष्य में यही स्वरूप सम्पूर्ण विश्व का होगा, जिसमें निर्धारित शारीरिक श्रम के साथ मानसिक विकास के लिए भी हर नागरिक को अवसर मिलेगा, ताकि उसकी बहुमुखी योग्यता विकसित हो सके।
प्रत्येक व्यक्ति राफाएल, बाइकोव्स्की, गोर्की, अथवा पुश्किन जैसा ख्याति प्राप्त महामानव एवं सुधारक बने या न बने, किन्तु हर व्यक्ति के अन्तराल में महामानव बनने की सुनिश्चित संभावना विद्यमान है। इसे ही विकसित करने की नई प्रक्रिया महाकाल की प्रेरणा से प्रारंभ होगी, जिससे मानव भ्रामक विचारों और मिथ्या धारणाओं से सदा के लिए मुक्त हो जाएगा। अपने व्यापक ज्ञान के आधार पर अपनी नियति का स्वामी बन जाएगा। कुप्रचलनों, अंधविश्वासों, कुरीतियों का विरोध करने में उसका आत्मबल एवं मनोबल डगमगायेगा नहीं, तब वह इन्हें विवेक की कसौटी में कसकर नये प्रतिपादन प्रस्तुत करेगा। उस समय हर व्यक्ति ऐसी महानता प्राप्त कर लेगा जिससे वह मानवीय उदात्त नियमों का पालन करेगा। अपने विचारों, भावनाओं और व्यवहार को स्वतंत्रतापूर्वक समाज के हितों के अनुरूप नियंत्रित करना भी सीखेगा। मनुष्य चिन्तनशील और संवेदनशील प्राणी के रूप में विकसित होगा, जिससे समय की अनेकानेक आवश्यकताएँ अनायास ही पूरी होती रहेंगी। यही मानवीय योग्यताओं एवं प्रतिभाओं के अधिकाधिक उपयोग तथा उसके आधार पर उज्ज्वल भविष्य को सुनिश्चित बना पायेगा।
आने वाले समय में जब व्यक्ति की आध्यात्मिकता की उच्चतम अवस्था की स्थापना हो जाएगी, तब मनुष्य बल प्रयोग के बिना अन्तराल की प्रेरणा से निर्देशित होकर अपने कर्तव्यों को समझेगा और जिम्मेदारी पूर्वक उन्हें निबाहने में स्वयं को नियोजित करेगा। प्रत्येक मनुष्य अपनी योग्यतानुसार काम करेगा और औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में प्रसन्नता अनुभव करेगा। उस समय “व्यष्टि समष्टि के लिए और समष्टि व्यष्टि के लिए” जैसी भावना की अन्तराल में घुमड़ेंगी।
यूटोपिया जैसी लगने वाली इस वास्तविकता को कपोल कल्पना भर नहीं मान लेना चाहिए, वरन् इसमें सौ इंच सच्चाई को स्वीकारते हुए तदनुरूप तैयारी भी करनी चाहिए। प्रभातकाल जब निकट आने वाला होता है, तो विभिन्न माध्यमों से विभिन्न रूपों में हमें उसकी पूर्व सूचना मिलने लगती है। चिड़ियाँ चहचहाने लगती हैं, मुर्गे बाँग लगाने लगते हैं। युग-परिवर्तन के संदर्भ में आज ऐसा ही माहौल है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घटने वाले तीव्र और अप्रत्याशित घटनाक्रमों को देखकर हम यह सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि परिवर्तन का प्रभात समुपस्थित हो गया है और हमें अब भावनात्मक सुषुप्ति से जगने की तैयारी करनी चाहिए।