बुद्धि नहीं, भावना प्रधान

June 1990

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मनीषियों के वचन एवं धर्मग्रन्थ मनुष्य को विचार करने का आधार प्रदान कर सकते हैं। विचारों को दिशा प्रदान करने में इनका स्थान महत्वपूर्ण है। तीक्ष्ण बुद्धि भौतिक प्रगति एवं प्रतिभा के विकास में विभिन्न समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने में योगदान दे सकती है, पर वह आधार प्रदान कर सकना इसके लिए असम्भव है जिसे अपनाने से कोई भी सद्गुणसंपन्न ही बन जाए। महानता को अपनाना तथा इसके पथ पर आगे बढ़ सकना जिससे संभव है वह है भाव भरा उत्कृष्ट चिन्तन। इसका उद्गम क्षेत्र है परिष्कृत अंतराल। श्रेष्ठता की ओर बढ़ पाने योग्य मनोबल जुटाना उदात्त भावनाओं की ही देन है।

बुद्धि भी उपयोगी है। इसका अपना महत्व है। इससे योग्यता प्रतिभा का विकास होता है। भौतिक प्रगति का आधार विनिर्मित होता है। अब तक के भौतिकता के विकास में, समृद्धि में बुद्धि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन इसके साथ यह भी एक सत्य है कि बुद्धि द्वारा जो भी विकास हुआ है उसका अस्तित्व भावनाओं के बल पर ही कायम है। यदि मनुष्य भावना शून्य होता तो प्रगति-समृद्धि कभी की गायब हो गई होती। अन्तःकरण की इन समुज्ज्वल भावनाओं ने मालाकार के सदृश संपूर्ण मानव जाति को एकता के सूत्र में पिरो रखा है। सहयोग सहकार का गुण इन्हीं की देन है। एक दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होना, आपत्ति संकट में सहायता करना तथा प्राणि मात्र के बीच सद्भाव की जो प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है उसका एक मात्र कारण उदार भावनाएँ ही हैं।

यही वह आधार हैं जिसका आश्रय लेकर वसुधैव कुटुंबकम् की कल्पना साकार हो सकती है। इसी के द्वारा मनुष्य संकीर्ण स्वार्थपरता की बेड़ियों को काट सकता है। उत्कृष्ट भावनाओं के अभाव में एकाँगी बुद्धि निपट स्वार्थी हो अनेकानेक समस्याओं की जनक ही सिद्ध हो सकेगी-पारस्परिक कलह सामाजिक विग्रह ही खड़े होंगे। उदात्त भावनाओं का आश्रय लेकर ही बुद्धि की प्रखरता मानव मानवता के हित में अनेकानेक नूतन अन्वेषण कर सकेगी और न केवल व्यक्तिगत उत्थान अपितु राष्ट्रीय सामाजिक प्रगति-कल्याण में सहयोगी सिद्ध होगी। भाव संवेदनाओं के अभाव में अकेली बुद्धि चाहे जितनी प्रखर और तीक्ष्ण क्यों न हो विभिन्न जटिलतायें ही पैदा कर सकेगी। इनकी महत्ता को जानने के कारण ही सभी चिन्तकों, धर्म ग्रन्थों ने हृदय की शुद्धि एवं अन्तःकरण के परिष्कार पर बल दिया है। साधना-उपासना की विभिन्न विधियों क्रिया पद्धतियों का आधार परिष्कृत अन्तराल ही है।

कोई भी व्यक्ति मानव मानवता के हित के लिए कोई महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में तभी सक्षम हो पाता है जबकि उसका हृदय विशाल हो। इसके अभाव में करने की तो बात दूर इस बारे में सोचना भी संभव नहीं बन पड़ता है। संत, ऋषि, महापुरुष अपने अंतराल की इसी उत्कृष्टता व विशालता के कारण ही महानता के पथ पर चल कर मानव जाति के कल्याण हेतु कुछ करने में सक्षम हो सके। भावनाओं के द्वारा ही मानव के हृदय की पीड़ा व्यथा को जाना समझा और उसके निराकरण हेतु प्रयत्न कर सके। मनुष्य के अंतःकरण की आस्थाओं का स्पर्श कर पाना और उसकी गति विधियों में आवश्यक परिवर्तन कर सकना भावनाशील पुरुष के लिए ही संभव है। बुद्धि का क्षेत्र वैचारिक जगत ही है। क्षणिक प्रभाव पैदा करना विचारणाओं की गाठों को सुलझाने का आधार तो विचार हो सकते हैं। पर जिससे मनुष्य के जीवन में आमूल चूल विधेयात्मक परिवर्तन परिवर्धन किया जा सके वह बुद्धि से नहीं अपितु भावनाओं से ही संभव है।

मात्र बुद्धि ने मनुष्य की प्रकृति बदली है। ऐसे प्रमाण नहीं मिलते हैं। जबकि भावनाशील महापुरुषों ने अपने परिष्कृत अन्तःकरण के कारण दुराचारी पातकी व्यक्तियों को न केवल प्रभावित ही किया अपितु उनके जीवन को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया और पहले के कुकर्मी व्यक्ति अपने परवर्ती जीवन में संत-भक्त हो गए। जधाई, मधाई जैसे डाकुओं का सुधार चैतन्य देव की उदात्त भावनाओं के कारण ही हो सका। श्री गिरीश चन्द्र घोष जैसे शराबी व्यसनी व्यक्ति भी परमहंस रामकृष्ण के संपर्क में आकर संत बन गए। इसी तरह एक नहीं अनेकों ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे जिनमें अनेक व्यक्तियों ने तत्कालीन महामानवों के संपर्क में आकर अपने जीवन को धन्य बनाया। इनमें उनके विचारों की शक्ति नहीं अपितु भावनाओं की उत्कृष्टता ही प्रधान कारण रही। जबकि कोरे बुद्धिवादी-भावसंवेदना से शून्य व्यक्तियों ने संसार का विकास कम विनाश ही अधिक किया है। हिटलर, चंगेज खाँ तैमूरलंग मुसोलिनी कम बुद्धिमान नहीं थे। परंतु इस एकाँगी बौद्धिक प्रखरता ने उनके अन्दर लिप्सा-स्वार्थ, संकीर्णता ही पैदा की और मानव जाति को विकास के पथ से सैकड़ों वर्ष पीछे कर दिया। वस्तुतः मनुष्य को सद्गुण संपन्न बनाने उसके व्यक्तित्व को सहयोग सद्भाव से अलंकृत करने में एकाँगी बौद्धिकता उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती। इसे भाव सम्वेदनाओं द्वारा ही अलंकृत कर सकना संभव है।

सभी धर्म संप्रदाय संत महात्मा एक स्वर से हृदय की शुद्धता, पवित्रता, विशालता की महिमा का गायन करते हैं। इन सब का एकमात्र उपदेश है आत्मोत्कर्ष की आधारशिला हृदय की विशालता। श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे “जिसका हृदय छोटे से शिशु जैसा निश्छल और पवित्र है वह शीघ्र ही परमात्मा को पा सकेगा।”

बुद्धिवादियों की एक कमी है वह तुरंत हो सकने वाले लाभ को ध्यान में रखते हैं। महानता और श्रेष्ठता के कष्टमय कंटकाकीर्ण पथ से विरत होने की ही सोचते हैं। तर्क से परे महानता के मार्ग पर चल सकना परिष्कृत अंतराल वालों के लिए ही संभव है। परिष्कृत अंतराल ऐसे निर्मल सरोवर की तरह है जिसमें सूर्य के सदृश परमसत्ता का बिम्ब चमकता है।

बौद्धिकता से जीवन संबंधी सुख सुविधाओं का अंबार तो लगाया जा सकता है पर चेतना की ऊंचाइयों को पा सकना भावनाशील के लिए ही संभव है। हृदय शून्य व्यक्ति भौतिक जीवन में वह कितना ही सक्षम क्यों न हो आत्मिकी के क्षेत्र में पूरी तरह से अक्षम ही सिद्ध होगा। जबकि अल्पबुद्धि वाला भावनाशील व्यक्ति भी ईश्वर सान्निध्य पा सकता है। संत रैदास, कबीर, दादू आदि के जीवन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

आज बुद्धि की प्रखरता की कोई कमी नहीं परन्तु भावनाओं से शून्य होने के कारण उच्च कोटि के बुद्धिवादी अधिकाँश वैज्ञानिक मानवता के विनाश की सामग्री जुटाने में लगे हैं। इस बुद्धिवाद को दिशा देना तभी संभव है जब उत्कृष्ट भावनाओं तथा बुद्धि का सुनियोजित सामंजस्य स्थापित हो सके।

भावनाशीलता को अपनाकर व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित कर के ही जिन के व्यक्तित्व को सेवा, दया, करुणा प्रेम से अलंकृत करना तथा कोरे बुद्धिवाद को दिशा प्रदान कर मानव जाति को एक सूत्र में पिरोकर “वसुधैव कुटुंबकम्” के स्वप्न को साकार करने के प्रयत्न कर सकना सम्भव है। उत्कृष्ट तथा उज्ज्वल भावनाएँ ही मानव की गरिमा महानता की उपलब्धि का सबल आधार हैं?


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