इस संसार में जितनी गतियाँ हैं, सब चक्रवत् हैं अथवा इसे यों भी कहा जा सकता है कि सृष्टि की हर वस्तु की गति वर्तुलाकार है। मनुष्य को लें, तो वह जन्म लेता है, इस भौतिक जगत में निर्धारित अवधि बिताने के बाद दिवंगत हो जाता है और पुनः शरीर धारण करता है। बीज मिट्टी में गलकर पौधे बनते हैं। पौधे से कालक्रम में विशाल वृक्ष, फिर उनमें फूल-फल लगते, बीज बनते और बीज से पुनः पौधा। जल का, मौसम का भी अपना-अपना एक चक्र है।
इसी प्रकार समय का भी एक चक्र है-कालचक्र। यह सदा अपने वर्तुल पथ में ग्रह नक्षत्रों की भाँति गतिमान है। जो समय अभी है, वह अवश्य ही पहले कभी रहा होगा, और जो बीत गया। वह निश्चित रूप से फिर आयेगा। यदि अभी बुरा समय चल रहा है, तो कालचक्र का दूसरा भला और उदात्त सिरा भी कभी न कभी अवश्य उपस्थित होगा और संभवतः तत्काल इसी के बाद, क्योंकि उसमें भले और बुरे दो ही सिरे हैं। इसी आधार पर मनीषियों ने आने वाले समय को उज्ज्वल बताया है और उस समय के समाज का भिन्न-भिन्न प्रारूप प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में 91 वीं शताब्दी के महान मनीषी रूस के अफनास्येव “वैज्ञानिक कम्युनिज्म के मूल सिद्धान्त” पुस्तक में सेंट साइमन दे रुग्रुआ के व्यक्तित्व एवं कर्तव्य का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि उन्होंने मानव जाति के लिए भविष्य में एक वास्तविक ‘स्वर्ण युग‘ की कल्पना की है, जिसमें शोषण उत्पीड़न अहिंसा अत्याचार, अनाचार का सदा-सदा के लिए अंत हो जायेगा और लोग प्रकृति का संतुलन बनाते हुए उसका अपने लाभार्थ उपयोग करने के लिए एक होकर प्रयासरत होंगे।
सेंट साइमन ने संगठित और सचेत ढंग से संचालित भावी समाज की जो रूपरेखा प्रस्तुत की है उसमें उन्होंने मनुष्य तथा उसकी आवश्यकताओं और योग्यताओं को प्रमुख स्थान दिया है। उनके विचार में वह सामाजिक प्रणाली सबसे अच्छी है, जो संपूर्ण मानवजाति को सुखद और शान्तिमय जीवन प्रदान करती हो और उसकी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा सारी उपयोगी योग्यताओं के विकास के उद्देश्य अधिक से अधिक सुअवसरों की व्यवस्था करती हो वह यह मानते थे कि समूची मानव जाति के एक होना अपने को छोटे परिकर तक न सीमित रखकर विश्व मानव मानने और संयुक्त प्रयास के साथ नवसृजन के निमित्त मानव की क्षमताओं को पूर्ण रूप से उजागर एवं विकसित करने की वचनबद्धता ही भावी समाज की नव संगठन का सबसे महत्वपूर्ण आधार होगा उन्होंने ‘विश्व परिवार’ की भी परिकल्पना की है जिसे संघ का नाम दिया, जो सारे सामाजिक और राष्ट्रीय विरोधों का उन्मूलन करके शाँति और संपूर्ण मानव जाति की निरन्तर प्रगति सुनिश्चित बनायेगा उनका विश्वास था कि समय और समाज का विकास विचारों पर विश्व दृष्टिकोण पर आधारित होता है और यही आने वाले नवयुग का मूल मंत्र होगा। ऐसा वे मानते हैं।
धनी व्यापारी के पुत्र होने के बाद भी मजदूरी एवं गरीबी स्वयं ओढ़ने वाले फ्राँसीसी समाजवादी फ्राँसुआमरीशार्ल फुरिये की भी भविष्य द्रष्टा के समकक्ष मान्यता है। उन्होंने नया समाज बनाने को लक्ष्य रखकर एक ऐसे शान्तिपूर्ण तरीके का समर्थन किया है जिसमें भौतिक ललक लिप्सा को गौण समझा गया है एवं परमार्थ में मिलने वाले सुख को मुख्य। नगर और देहात के बीच अंतर मिटाने की भी बात उन्होंने कही है। जब हर व्यक्ति शहरों के चकाचौंध के साथ रहने वाली उदासीनता अन्यमनस्कता स्वार्थांधता, प्रदूषण अत्याचार से इतना ऊबा होगा कि वह पुनः छोटे से आदर्श ग्राम में रहना पसन्द करेगा। इस तरह बड़े-बड़े शहरों की संस्कृति बिखर कर छोटे कस्बों में बँट जायेगी, जहाँ व्यक्ति की संकीर्णता ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में परिवर्तित होकर मुक्त गगन में श्वास लेगी।
हमें इस कल्पना और फिलहाल यूटोपिया लगने वाली वास्तविकता को स्वीकारने के लिए तैयार रहना चाहिए और न सिर्फ तैयार रहना चाहिए। वरन् स्वागत-थाल सजाकर उसकी अगवानी के लिए भी मन बनाना और उपक्रम अपनाना चाहिए।