आस्तिकवाद का विज्ञान सम्मत आधार

June 1990

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भारतीय संस्कृति की मान्यताएँ पूर्णतः वैज्ञानिक हैं। कर्मफल की सुनिश्चितता एवं पुनर्जन्म की मान्यता हमारी संस्कृति की एक सबसे बड़ी विशिष्टता है। इसमें ऋषियों ने मनुष्य के नैतिक-चारित्रिक एवं आत्मिक उत्थान के जिन महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश किया है वे निश्चय ही संपूर्ण मानवजाति के लिए समान रूप से हितकारी हैं। यह मान्यता जहाँ आत्मा की अमरता का-जीवन को अनवरत रूप से गतिशील रहने का विश्वास दिलाती है और प्रगति प्रयासों को तनिक सा विराम लेने के उपराँत फिर से गतिशील बनने का उत्साह उत्पन्न करती है, वहीं यह मनुष्य को अपने जीवनक्रम में नीतिमत्ता को अनिवार्य रूप से अपनाये रखने को भी बाध्य करती है। प्राचीनकाल में जब भारतीय संस्कृति चहुँ ओर संव्याप्त थी तब समस्त संसार इन मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का अनुकरण करके गौरव की अनुभूति करता था।

जीवन की अविच्छिन्नता एक सच्चाई है और पुनर्जन्म उसका प्रत्यक्ष प्रमाण। मरने के बाद दूसरा जन्म मिलने का तथ्य हिन्दू धर्म में सदा से माना जाता रहा है। चार्वाक के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शन कर्म एवं पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। पुराणों में इसका पग-पग पर वर्णन मिलता है। धर्मशास्त्रों में, अगणित आप्त वचनों में आत्मा के पुनर्जन्म लेने की बात कही गई है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपराँत मनुष्य जन्म मिलने, पुण्य और पाप का फल भोगने के लिए फिर से जन्म मिलने की बात को धर्मग्रन्थों में अनेकानेक उदाहरणों के साथ समझाया गया है। जैन एवं बौद्ध मतावलम्बियों ने इसे अपने ढंग से प्रतिपादित किया है।

वस्तुतः पुनर्जन्म का सिद्धान्त अकाट्य है। ऋग्वेद सूत्र 4।18।1 में कहा गया है कि ‘यह मार्ग अनादिकाल से चलता आ रहा है जिसके द्वारा विभिन्न भोगों और एक दूसरे को चाहने वाले सभी पुरुष ज्ञानी जन आदि उत्पन्न होते हुए जीवन यात्रा पर अग्रसर होते हैं। उच्चपद वाले समर्थ व्यक्ति भी इसी परंपरागत मार्ग द्वारा ही उत्पन्न होते हैं।” बृहदारण्यकोपनिषद् 1। 4।10 में ऋषि पुनर्जन्म का समर्थन करते हुए कहते हैं “शुभ कर्म करने वाला शुभ होता है और पाप करने वाला पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्म से अगले जन्म में पुण्यात्मा बनता है और पाप कर्म से पानी होता है।”

कोई-कोई कहते हैं कि यह पुरुष काममय ही है। वह जैसी कामना करता है, वैसा ही संकल्प करता है, जैसे संकल्प वाला होता है वैसा ही कर्म करता है और जैसा कर्म करता है वैसा ही फल प्राप्त करता, जन्म ग्रहण करता है। वृहदारण्यक उपनिषद् के ही 4।4।5 6।8।1।14 सूत्रों में जन्म ग्रहण करने तक की विस्तृत विवेचना की गई है। छांदोग्योपनिषद् में भी पुनर्जन्म का प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया गया है। प्रश्नोपनिषद् का कथन है-”वहाँ जो लोग अभीष्ट पूर्ति को ही कर्म मानकर उपासना करते है वह चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं, वही जब लौट कर आते हैं तब संतान की इच्छा वाले वे ऋषि दक्षिण में जाते हैं। ऐतरेयोपनिषद् (2।1।4।5) में उल्लेख आता है पिता के पुण्य कार्यों के निमित्त पिता की ही आत्मा पुत्र रूप में प्रतिनिधि बनती है तब पिता रूप आत्मा अपना कर्तव्य पूरा हो जाने पर मृत्यु को प्राप्त होकर संसार से गमन करती है और जाकर फिर जन्म लेकर लौट आती है। यही इसका तृतीय जन्म है।”

श्रीमद्भगवद्गीता में दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-जिस तरह इस जीवन में बचपन, यौवन और वृद्धावस्था आते हैं इसी तरह आगे दूसरा शरीर प्राप्त होता है। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए इसी ग्रन्थ के 2।22 में वह कहते हैं कि—जिस तरह कोई व्यक्ति अपने पुराने कपड़ों को उतार कर नये वस्त्र धारण करता है। ठीक उसी तरह आत्मा पुराने शरीर को छोड़ कर नये शरीर को ग्रहण करती है। क्योंकि जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु की गोद में अवश्य जाना पड़ेगा और जिसकी मृत्यु हुई है उसका जन्म लेना सुनिश्चित है। अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वे अर्जुन को समझाते हैं कि-मेरे और तेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं। उनको तो मैं जानता हूँ पर तू नहीं जानता। पुनर्जन्म का उद्देश्य समझाते हुए और पूर्ण विकास का आश्वासन देते हुए वे कहते हैं कि “प्रयत्नपूर्वक परिश्रम करते-करते पापों से पवित्र होता हुआ कर्मयोगी अनेक जन्मों के बाद सिद्धि पाकर अंत में उत्तम गति को पा लेता है।”

मृत्यु के समय जैसी गति जीव की रहती है वैसी गति और जन्म को वह प्राप्त होता है। इसी को स्पष्ट करते हुए आपस्तम्ब धर्म सूत्र (2। 1। 2।-3। 5। 6) में कहा गया है कि विभिन्न वर्णों के लोग अपने व्यवस्थित कर्तव्यों के संपादन से सर्वोच्च एवं अपरिमित स्वर्गीय सुखों का भोग करते हैं। कर्मफल शेष होने के कारण पुनः लोट आते हैं और यथोचित जाति या कुल, रूप, वर्ण, बल, बुद्धि, प्रज्ञा, सम्पत्ति के साथ जन्म लेते हैं, कर्तव्य पालन का लाभ उठाते हैं और यह सब आनन्द में परिणत होता है जो चक्र के समान दोनों लोकों में होता है। यही नियम दुष्कर्म करने पर भी लागू होता है और दुष्परिणाम नारकीय यातनाएँ भुगतने के रूप में भी सामने आता है। यही बात गौतम धर्मसूत्र (11।21।30) के भी कहीं गई है। गीताकार ने 1 वें अध्याय इसी तथ्य का उद्घाटन किया है।

आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता भारतीय दर्शन का प्राण है। इसकी अमिट छाप अन्यान्य धर्मों एवं दर्शनों पर भी पड़ी है। उसे उसी न किसी रूप में उन्होंने स्वीकारा और अपनाया है। जातक कथाओं में भगवान बुद्ध के सैकड़ों पिछले जन्मों की कथाओं का संग्रह है। ईसाई एवं मुस्लिम धर्मों में तो पुनर्जन्म की मान्यता स्पष्ट नहीं है पर उनके यहाँ भी आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बने रहने और न्याय के दिन’ ईश्वर के सम्मुख उपस्थित होने की बात कही गई है। ईसा का यह कथन कि जब तक मनुष्य पुनः जन्म नहीं लेता, वह ईश्वर के दर्शन नहीं कर सकता। पुनर्जन्म का ही संकेत है यहूदी लोग भी इस सिद्धान्त को मानते हैं। दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका के निवासी पुनर्जन्म की मान्यता पर विश्वास रखते हैं। तिब्बत में दलाई–लामा की नियुक्ति ही इसी सिद्धान्त के आधार पर की जाती है। इस प्रकार विश्व के प्रायः समस्त धर्मों के अनुयाइयों ने किसी न किसी रूप में पुनर्जन्म की मान्यता को स्वीकार किया है।

पुरातन काल में अनेक देश पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। मिस्र एवं यूनान के निवासियों में यह विश्वास था कि मानव आत्मा अमर है और शरीर की मृत्यु हो जाने पर यह किसी अन्य जीवित वस्तु में, जो जन्म लेने वाली होती है, प्रवेश कर जाती है। मिस्र की पूजा पद्धति इसकी साक्षी है। हिरोडोटस के अनुसार यूनानी दार्शनिकों ने भी इस सिद्धान्त को अपनाया था। यही कारण है कि पाइथागोरस की रचनाओं में इसका विशद वर्णन मिलता है। हाप्किन्स एवं मैकडोनेल प्रभूति विद्वानों ने पाइथागोरस के ऊपर पड़ने वाले इस भारतीय प्रभाव की पुष्टि की है। एम्पीडाकिल्स एवं प्लेटो जैसे ग्रीस के प्रख्यात दार्शनिकों ने आत्मा के पूर्वजन्म और उत्तर जन्म में विश्वास किया है। जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर, गेटे फिश आदि ने भी इसका समर्थन किया है। केनेथवाँकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “दि सर्किल ऑफ लाइफ” में लिखा है कि ईसा के काल में पुनर्जन्म का सिद्धान्त भारत में प्रसिद्ध था। सुविख्यात जर्मन दार्शनिक कान्ट ने नैतिक चेतना के लिए मृत्यु के उपरान्त जीवन की निरन्तरता एवं अमरता को आवश्यक एवं स्वयंसिद्ध माना है।

भारतीय ऋषियों दार्शनिकों ने अपनी प्रखर बुद्धि योगशक्ति और तर्क प्रणाली से यह सिद्ध किया था कि आत्मा की मृत्यु कभी भी नहीं होती यह वह एक अजर अमर अविनाशी तत्त्व है जो दैवी नियमानुसार—कर्मफल की सुनिश्चित विधि व्यवस्था के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती रहती है। आधुनिक काल के कुछ पाश्चात्य मनीषियों ने भी पुनर्जन्म और कर्मफल के मर्म को समझा है द “फ्यूचर ऑफ फेथ” में परसी कोल्सन ने कहा है कि—’पुनर्जन्म, सत्य या कल्पनात्मक’ इस भ्रमकारी विश्व ब्रह्मांड की एक बहुत ही प्रशंसनीय और कई अर्थों में संतोषप्रद व्याख्या है। विख्यात दार्शनिक वाँकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रिइनकार्नेशन’ में लिखा है कि ‘केवल पुनर्जन्म ही मानव जीवन की समस्याओं को क्रमशः हल करता है।

‘द सुपर फिलिकल’ नामक पुस्तक में आँसबार्न ने कहा है—पुनर्जन्म एक उच्चस्तरीय संभाव्य एवं समीचीन कल्पना है जो जीवन की असमानताओं को समझने की इच्छा का समाधान प्रस्तुत करती है तथा सन्तोष प्रदान करती है। इसी में आगे कहा गया है कि “मैं ऐसे किसी अन्य सिद्धान्त से अवगत नहीं हूँ जो दैनिक अनुभव की समस्याओं का इस तरह संतोषप्रद उत्तर प्रस्तुत करता है।

“द प्रॉब्लम ऑफ रिबर्थ” नामक अपनी पुस्तक में सुप्रसिद्ध विद्वान रॉल्फशर्ले ने कहा है कि विश्व की जटिल गुत्थियों के जितने हल सोचे जा सकते है उनमें से पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करने में सबसे कम कठिनाइयाँ है। वह कहते है कि इस सिद्धान्त में आस्था रखने वाला अपनी कल्पना के आधार पर उन सभी दशाओं और अवस्थाओं की व्याख्या कर सकता है जिसमें मनुष्य जाति के विभिन्न सदस्य पृथ्वी पर जन्म लेते है। उनके अनुसार पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाला कम से कम शाश्वत न्याय में सर्वव्यापी सामान्य अवस्था के नियम में किसी असंगति का अपराध किये, विश्वास कर सकता है। भविष्य के जीवन के बारे में आस्था रखने वाला व्यक्ति थोड़े में बिना किसी निराश के हेतुवादी हो सकता है। पुनर्जन्म उन कई बातों की स्वतः व्याख्या कर देता है जिनकी आनुवांशिकता स्पष्ट नहीं कर सकती। विकास जैसी उलझी हुई अत्यन्त जटिल समस्याओं का समाधान जिस सरलता से पुनर्जन्म की मान्यता प्रस्तुत करती है, वैसा समाधान अब तक कोई अन्य परिकल्पना प्रतिपादित करने में सफल नहीं हो पायी है।

अध्यात्म तत्वज्ञान की आधारशिला समझी जाने वाली पुनर्जन्म की मान्यता को अब वैज्ञानिक अनुसंधान का विषय स्वीकार कर लिया गया है। इस पर नित नूतन खोजें हो रही है। इस संदर्भ में जो प्रमाण सामने आये है उनमें पुरातन असमंजस की स्थिति धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। प्रत्यक्ष—प्रच्छन्न नास्तिकवाद को इस प्रस्तुत प्रमाणों के सम्मुख अपने पूर्वाग्रहों की छोड़ना या शिथिल करना पड़ रहा है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त जीवनक्रम में न केवल नीतिमत्ता को अपनाने पर बल देता है वरन् इसे मानने से यह आत्म और विश्वास जाग्रत होता है कि जीवन अखण्ड और अनन्त है। इसका अंत पंच भौतिक कायकलेवर के नष्ट हो जाने पर ही नहीं होने वाला है। जो इच्छाएँ, कामनाएँ एवं योजनाएँ इस जन्म में अधूरी रह जाती है वह अगले जन्मों में पूरी होंगी क्योंकि जीवात्मा अपने पूर्व जन्मों में सूक्ष्म संस्कार साथ लेकर जाती है। जीवन की निरन्तरता पर विश्वास रखने वाले सदैव आस्तिक बने रहते है, मृत्यु से कभी भयभीत नहीं होते।


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