साधना कौन सी सच्ची?

June 1990

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सब एक-एक करके उन्हें प्रणाम करने लगे। परिव्राजकों का यह समूह एक लंबे अंतराल के बाद पुनः अपने गुरु का सान्निध्य पा प्रसन्न था। गुरु चरणों में माथा नवाने के साथ प्रत्येक अपने अंतर में इस प्रसन्नता को अनन्त गुणित अनुभव कर रहा था। मानो शिलासीन आचार्य के चरण आनन्द गंगा का उद्गम हों और प्रत्येक शिष्य स्वयं में भगीरथ। कुछ भी हो आनन्द अनेक धारा को प्रवाहित था। इस अद्भुत सरिता में उठ रही पुलकन की लहरों की थिरकन पास बह रही अलकनन्दा की जल उर्मिला की तीव्रता से भी कई गुना अधिक तीव्र थी।

बद्रीकाश्रम के समीप हिमालय के हृदय स्थल में बैठे आचार्य भी कम प्रसन्न न थे। अपनी एकान्त साधना के एक बड़े काल खण्ड के पश्चात् शिष्यों को वैसा ही सतेज प्रखर और सत्कर्म में तत्पर पा उनकी पुलकन का उमंगना स्वाभाविक था। प्रणाम के क्रम के अनन्तर आचार्य की दृष्टि सभी शिष्यों के मुखों से गुजरती हुई एक पर जा टिकी जिसके चेहरे पर जिज्ञासा के भाव घनीभूत हो रहे थे। “कहो कुछ पूछना है?” उनके प्रत्येक अक्षर से वात्सल्य टपक रहा था। “एक जिज्ञासा थी” सुनकर लगा जैसे नम्रता साकार हो उठी हो। “कहो”।

आपने हममें से प्रत्येक को अनेकों तरह की साधना प्रणालियाँ बताई हैं। प्रायः हरेक ने पर्याप्त अभ्यास भी किया है कहने वाले ने बैठे हुए गुरु भाइयों पर दृष्टि घुमाई। हरेक के मुख पर समर्थन के भाव पा वह आश्वस्त हो एक क्षण रुक कर बोला यों प्रत्येक प्रणाली का लक्ष्य भी एक है। किन्तु मैं जानना चाहता हूँ इनमें से सर्व श्रेष्ठ योग कौन सा है? साथ ही..।

स्वर की हिचकिचाहट को भाँप कर आचार्य ने कहा निःसंकोच अपनी बात पूरी करो।

आश्वासन पा उसने बात बढ़ाई प्रत्येक साधना मार्ग में मिलने वाली सफलताओं के स्वरूप भी अनेक हैं जिन्हें सिद्धि कहते हैं इनमें से परम सिद्धि क्या है?

तो तुम परमयोग और चरम सिद्धि जानना चाहते हो। “हाँ” “जिज्ञासा शमन हो इससे पहले अच्छा हो तुममें से प्रत्येक अपने साधनात्मक प्रयासों की प्रायोगिकता सिद्ध करे। प्रणाली के साथ तुममें से प्रत्येक की समीक्षा हो सकेगी साथ ही श्रेष्ठता का आकलन भी संभव बन पड़ेगा”। किसी को भला क्या आपत्ति होती सब सहज तत्पर थे। जैसी आज्ञा समवेत का स्वर उभरा। आचार्य के भृकुटि संकेत के साथ ही एक प्रौढ़ योगी आगे आए। उन्होंने डडड स्थिर किया। आधे क्षण में प्रत्याहार ध्यान डडड और ध्यान समाधि की भूमि में जा पहुँचा। स्थिर अर्धोन्मीलित दृग शिलासीन गुरु का दक्षिण कर उठा और योगी सविकल्प से निर्विकल्प पहुँचने के स्थान पर बहिर्चेतना में आ गया।

मनुष्य सदा समाधि में स्थित नहीं रह सकता! आचार्य के समीक्षा भरे शब्दों ने एक संदेश दिया। निर्विकल्प की शान्ति सामान्य जीवन में अवतरित करो वत्स! अनवरत कर्म के क्षणों में अभग्नशान्ति का बने रहना स्थितप्रज्ञता है समाधि की यह सहज स्थिति ही आदर्श है।

पोऽहं दीर्घ घण्आ निनाद। दूसरे साधक ने वह स्थान लिया पहले के उठ जाने पर और उनका प्रगाढ़ संयम-अनाहत उनके अंत से बाह्य में गूँजने लगा। शंख बंशी के स्वर उठे और लय हुए मेघगर्जन से ऊपर दिशा में प्रणव की पराध्वनि गूँजने लगीं।

वत्स! आचार्य के संकल्प के साथ साधक जाग्रत में आ गया वाद्यों का स्वर जगत में दुर्लभ नहीं है। मेघ गर्जन आकाश में बिना माँगे होता रहता है। शब्द साधना का लक्ष्य है जगत का कोलाहल में रहते हुए अविकंप शान्त बने रहना स्वधर्म में निरत रहना। “ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म ॐ।” अन्य साधक आ बैठे थे उस प्रयोगशिला पर। नेत्रकोणों के संवेदन स्नायु सूत्र का उन्होंने तनिक स्पर्श किया और स्थिर हो गए। डड अद्भुत अपूर्व रंगों की छटा जब अंतर से उमड़ संपूर्ण हिम प्रदेश पाटलपीत, हरित रक्तनील रंगों से रंजित होने लगा। दो चार क्षण रंगों की छटा और फिर दृश्य अद्भुत अपूर्व! जैसे समूची दिव्य सृष्टि साकार हो उठी हो। अंत में एक परमोज्ज्वल प्रकाश राशि।

अलं! आचार्य के एक शब्द से उत्थित हो गया साधक। रंग और रूप समूची सृष्टि में बिखरे पड़े हैं। तुम आँखें बन्द करके संकल्प न भी करो भुवनभास्कर का अपरिमित तेज सहज सुलभ है। अनेकों रंग रूप वाले इस संसार में बिना चौंधियाए कर्तव्य निरत रह सको तो समझना कि यह साधना सफल हुई।

लं सिर्फ बीज का उच्चारण किया अब आसन पर आए साधक ने। शीघ्र दिशाएँ सौरभ से भर गई। क्षण-क्षण सुरभि का परिवर्तन और अंत में तुलसी मंजरी का अपार सौरभ।

गुरु ने उत्थित करके साधक को समझाया कहीं भी कोई जाय, गंध आयेगी ही, असगंध में स्थित रहना है।

इसी प्रकार रस का साधक आया। खेचरी मुद्रा तो की उसने किन्तु उसे उठाते हुए मार्गदर्शक मुस्कराए-रस तो इस लोक में भी प्राप्त है इनके आकर्षण से ऊपर उठ सको, तो समझो साधना सफल हुई।

स्पर्श का साधक कुछ अंग चालन की क्रियाएँ करके स्थिर हुआ था कि हिमप्रदेश में उष्णता अनुभव होने लगी। त्वचा ने सुकोमल स्पर्श अनुभव किया। पथ प्रदर्शक ने संदेश दिया सभी प्रकार के स्पर्शी को सहन करते हुए स्वयं में अवस्थिति होने का प्रयत्न करो।

अब पुनः सभी की दृष्टि आचार्य पर स्थिर हो गई थी। हरेक के अन्तर में यही उमड़ रहा था इनमें से कौन प्रणाली को श्रेष्ठ बतायेंगे गुरुदेव? कौन सिद्धि अपनी श्रेष्ठता का आकलन करा पाएगी। इतने में सामान्य कद काठी वाला युवक उन सबकी ओर आता दिखाई दिया। उसके सलोने चेहरे पर भोलापन था। उसे देख प्रायः सभी ने उपेक्षित किया सिवा आचार्य के जिनके मुख पर पुनः वात्सल्य उमड़ पड़ा था। स्नेह भरी दृष्टि से देखते हुए प्रणाम करते रहे उससे पूछा-कहाँ गए थे तोटक?

“प्रभु! पास के गाँव में एक वृद्ध बीमार था उसे दवा आदि देने उसके वस्त्रों को साफ करने में देर हो गई”। आजकल यह प्रायः इधर-उधर रहता है मण्डली एक धीमा स्वर उभरा।

कहाँ जाते हो वत्स! आचार्य की वाणी में पूर्ववत् करुणा थी। भगवन्! गाँव वाले सफाई स्वच्छता नहीं जानते सो पथ की सफाई कर देता हूँ कोई हारी-बीमारी हो तो उसकी सुश्रूषा करने लगता हूँ।

“तुम्हें किसी से कोई शिकायत तो नहीं” नहीं देव! ये सभी लोग विद्वान हैं, योगी हैं, मैं ठहरा मूर्ख इनका कुछ कहना मेरे लिए आशीर्वाद है फिर सभी अपने ही तो हैं। “इनके जैसी सिद्धियाँ प्राप्त करने की चाह नहीं उठती? तोटक”! “मेरे लिए आपकी आज्ञा ही सिद्धि है और सेवा करना ही योग। उसी में मेरा मन खूब शाँत रहता है।” कहकर वह आचार्य की ओर ताकने लगा।

“ठीक कहते हो फिर सबकी ओर देखते हुए कहा सेवा परम योग है और कामनाओं के कलुष से मुक्त मन चरम सिद्धि है”। सबके अंतर के प्रश्नों को एक साथ परखकर समाधान करते हुए बोले यही वह निरापद प्रणाली है जिसका अवलंबन तमस को सत्व में बदल देता है। इससे मन सिद्धियों की चाहत से उबर कर सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव में निमग्न रहता है। है न यह परमयोग कहकर उन्होंने शिष्य समुदाय की ओर देखा फिर कुछ रुककर वे बोले—”अन्य योगियों को ये स्थितियाँ कब मिलेगी, पता नहीं। पर सेवा योग का साधक तो इसी जीवन में मुक्ति ही क्यों जीवन मुक्ति विदेह मुक्ति का परम लाभ प्राप्त करता है। लोभ, मोह, अहंकार से छुटकारा मिला कि उक्त स्थिति आयी।” “हाँ! एक बात जरूर है “ सुनकर सभी तनिक और सावधान हुए “सेवा सिर्फ रोगी की सुश्रूषा तक सीमित नहीं है इसकी परिधि का विस्तार लोकहित में प्रव्रज्या करने, ज्ञान दान करने, जीवन विद्या का शिक्षण करने तक भी है यह ध्यान रहे।”

परिव्राजकों के समूह में सभी को शंकाएं शमित हो चुकी थीं। शिष्य उपदेष्टा को मस्तक नवाकर उठ रहे थे। उपदेष्टा किसी अन्य गहन चिन्तन में खोने लगे थे। यह उपदेशक थे आदि गुरु शंकराचार्य। लगभग डेढ़ हजार वर्ष बीज जाने पर भी जिनकी वाणी पहले से कहीं अधिक समीचीन है।


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