उपचार जड़ों का हो पत्तियों का नहीं

June 1990

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इन दिनों बढ़ती हुई सम्पन्नता और प्रचलनों की विकृति के कारण मनुष्य का समूचा व्यक्तित्व एवं चिन्तन ही गड़बड़ा गया है। अनीतिपूर्ण जीवन जीने और अचिन्त्य चिन्तन करने वालों की मनोदशा सदा विक्षुब्ध रहती है। जिस सही ढंग से सोचना नहीं आता। वह उलटा चलता और औंधे मुँह गिरता है। बढ़ती हुई शारीरिक व्यथाओं के कारण और निवारण में हमें इसी तथ्य को ध्यान में रखना और संकट उपजाने वाले केन्द्र का सुधार परिष्कार करना होगा।

“साइकोसोमेटिक मेडिसिन’ नामक अपनी कृति में चिकित्सा मनोविज्ञानी डॉ. ओ. एस. इंजिलिस ने कहा है कि शारीरिक रुग्णता के पीछे प्रायः मानसिक विक्षुब्धता ही कार्यरत देखी जाती है। मानसिक उद्विग्नता का दबाव क्षय एवं कैंसर जैसी घातक बीमारियों के रूप में फूलता है। जर्मन मनोचिकित्सकों ने इस संदर्भ में गहन खोजें की हैं और पाया है कि भीतरी अन्तर्द्वन्द्व के कारण कितने ही लोग असह्य मानसिक उत्तेजनाओं के दबावों को झेलते रहते हैं यह दबाव अनेकानेक रोगों का रूप धारण कर बाहर निकलने का प्रयास करता है।

अनैतिक आचरण अपनाने एवं पाप कर्म करने के कारण लोग अतिशय मानसिक त्रास सहते और परिणाम स्वरूप घातक रोगों के शिकार बनते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इसे लक्षण परिवर्तन-”सिम्पटम कर्न्वजन” कहते हैं। इसका सविस्तार वर्णन मूर्धन्य मनःचिकित्सक डैनियल टय़ूक ने अपनी पुस्तक “इन्फ्लुएन्स ऑफ दि माइण्ड ऑन दि बॉडी” में किया है। उनके अनुसार छद्म पाप कर्मों को करने और उन्हें छिपाने से अथवा दूषित भावनाओं के गहराई से जड़ जमा लेने पर सिर दर्द, माइग्रेन, एक्जिम जैसे कई लाक्षणिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि किन्हीं-किन्हीं रोगियों के शरीर में कभी एक जगह दर्द होता है, तो कुछ ही क्षणों पश्चात उस स्थान पर गायब हो जाता है और वैसे ही लक्षण अन्य जगहों पर प्रकट होने लगते हैं। इस प्रकार की व्याधियों एक स्थान से दूसरे स्थान पर, पैर से हाथ में और हाथ से अन्य अंग-अवयवों पर उछल कर प्रकट होती रहती हैं। विचारणाओं-भावनाओं का परिष्कार किये बिना यह व्यथा, विभिन्न बीमारियों के रूप में तब तक फूटती और जीवनीशक्ति को निचोड़ती रहती है, जब तक पापों का दुष्कर्मों का प्रकटीकरण नहीं कर दिया जाता और प्रायश्चित करके मन पर लदे उस बोझ को उतार कर फेंक नहीं दिया जाता।

विशेषज्ञों के अनुसार अधिकाँश बीमारियों की जड़ साइकोसोमेटिक हैं। सर्दी-जुकाम, त्वचा रोग, खुजली, एक्जिमा, एलर्जी आदि का कारण मन में छिपे दबाव आदि को ही माना गया है। त्वचा को उनने मानसिक एवं भावनात्मक अभिव्यक्ति का अंग माना और कहा है कि उनमें उपजी विकृति के कारण जीवनीशक्ति का क्षरण जिस तीव्रता के साथ होता है उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप त्वचा की बाह्य सतह पर चार प्रमुख लक्षण तुरंत उभर आंतें हैं। ये हैं रुबर-लाल पड़ जाना, ट्यूमर-सूजन आना, केलोर-ताप बढ़ जाना और डोलोर-दर्द होना। कामुकता, विद्वेष, अप्रसन्नता, कुढ़न आदि की विकृत मनोदशा सिर दर्द आधाशीशी जैसी व्यथाओं को जन्म देती है, अतिसार, कब्ज, कोलाइटिस, अल्सर, जैसी पाचन संबंधी गड़बड़ियाँ चिन्ता, विक्षुब्धता एवं दबावयुक्त मनःस्थिति की देन है। श्वसन संबंधी रोग तनाव, भय, असुरक्षा आदि भावनाओं के कारण पनपते हैं, तो दमा मानसिक उद्विग्नता से उपजा हुआ रोग माना जाता है। क्षय एवं कैंसर को मनोकायिक रोगों की श्रेणी में रखा जाना सुनिश्चित तथ्यों पर आधारित है। डॉ. किसेन एवं डॉ. बेटलहीम ने इस संबंध में हजारों रोगियों का लंबे समय तक गंभीरतापूर्वक परीक्षण और अध्ययन करने के पश्चात् निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए बताया है कि मनोविकृतियों एवं भावोद्वेगों का शरीर की प्रतिरोधी क्षमता पर आश्चर्यजनक रूप से प्रभाव पड़ता है और वे उसे विश्रृंखलित करके रख देते हैं। फलस्वरूप बीमारियों के विषाणु शरीर में संक्रमित कर जाते हैं।

अतः देखा यह जाना चाहिए कि रोग जिस कारण से उत्पन्न हुआ हो उसका ही निराकरण किया जाय पत्ते तोड़ने से नहीं, जड़ उखाड़ने से संकट का समाधान होता है, इस तथ्य को समझ लेने पर उपचार का मार्ग सरल हो सकता है।


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