कौन अपना, कौन पराया?

June 1990

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इंजन ने सीटी दी। गार्ड ने हरी झण्डी लहराई और गाड़ी सरकने लगी। शनैः-शनैः किन्तु तेजी से अनगिनत पहियों की लोहे की पटरियों पर फिसलन बढ़ती जा रही थी। साथ ही बढ़ रही थी मायूसी उनके चेहरों पर जो भीड़ के कारण नहीं चढ़ पाए थे। किन्तु वह पायदान पर पैर रखे अपनी दुर्बल अंगुलियों से दरवाजे की छड़ को पकड़े लटका था। इसी प्रयास में कि शायद अन्दर जा सके। मरियल सी सूखी वृद्ध काया को दरवाजे का लौह दण्ड कब तक थामे रहेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।

उसकी निस्तेज आँखें देख रही थीं, एक-एक को परख रही थीं प्रत्येक की मानवीयता को। शायद किसी को तरस आ जाए और उसे अन्दर घुसने की राह मिल जाय। ऐसा नहीं था कि डिब्बे के अंदर बिल्कुल जगह नहीं थी। थी तो पर किसी न किसी के कब्जे में। कोई पैर फैलाए बैठा था, किसी ने सामान जमा रखा था। भावनाशून्य निष्ठुरों का व्यवहार, इससे अधिक और हो भी क्या सकता है। वह कहीं भी रहें, अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति प्रदर्शित करने से बाज नहीं आते। इस संकीर्णता का शिष्टता, शालीनता परदुखकातरता से क्या रिश्ता? ये गुण तो मानवों के लिए हैं। फिर रेल के कंपार्टमेंट में घुसे ये सब कौन थे? होंगे कोई, पर कम से कम मानव तो नहीं। बूढ़े की आँखें अभी निराश नहीं हुई थीं। वह ताक रही थीं-तलाश रही थीं किसी इन्सान को जिसकी अपनी विशिष्टतापरक रीति-नीति हो- परमदुःख कातरता।

इतने में खिड़की के सहारे सीट पर बैठे एक युवक ने बाहर की ओर झाँका। हवा में लहराते कपड़े दिखे। उसने अपनी ही सीट में बैठे अन्य युवक की बाँह हिलाते हुए कहा लगता है कोई बेचारा लटका हुआ है। तो? चलो देखते हैं कौन है? कह कर युवक उठा अपने साथी को उठाया। यदि सीट चली गई तो? भला यह कैसे जायेगी? इसके पैर तो हैं नहीं ज्यादा से ज्यादा कोई बैठ जायेगा। उठो! दोनों युवक भीड़ चीरते हुए आगे बढ़े-दरवाजे तक पहुँचे। बूढ़ा अभी भी जैसे-तैसे लटका हुआ था। शरीर की सारी ताकत अँगुलियों में निचोड़ कर लाने के बाद भी अब दरवाजा थामने की दम नहीं बची थी। एक-दो क्षण बाद वह गिर ही पड़ता कि युवक की बलिष्ठ बाँहों ने उसे थाम लिया। उसकी जान में जान आयी। सजल नेत्रों से उसने कई बार युवक को देखा। मानो स्वयं को विश्वास दिलाना चाहता हो कि इन्सान अभी बाकी हैं, इंसानियत जिन्दा है।

युवक उसका हाथ थाम कर बढ़ा भीड़ चीर कर अपनी सीट पर पहुँचा और बूढ़े को अपनी सीट पर बिठा दिया। उसके रोम-रोम से युवक के प्रति आशीर्वाद झर रहा था। बड़ी मुश्किल से उसके कण्ठ से वाणी फूटी तुम दोनों चिरंजीवी हो, तुम्हारा यह अहसान हमेशा याद रहेगा।

इसमें अहसान क्या यह तो फर्ज है। फर्ज? बूढ़े ने प्रश्नवाचक निगाहों से युवक की ओर ताका, और नहीं तो क्या। व्यवहार की खिड़कियों से व्यक्ति का समूचा जीवन झलकता है, उसकी इंसानियत परखी जाती है। आचरण की वे छोटी-छोटी बातें जीवन के साइन बोर्ड पर चमकते वह अक्षर हैं, जिन्हें देखकर कोई भी सहज अन्दाजा लगा सकता है यह कौन है? कैसा है? किस उद्देश्य के लिए जी रहा है? इसी के आधार पर समूची जिन्दगी की कीमत आँकी जाती है। सम्मान, तिरस्कार, विश्वास, अविश्वास का मन इसी आधार पर बनता है।

बूढ़ा ही नहीं पास खड़े, बैठे सहयात्री भी युवक के इस कथन को सुन हतप्रभ थे। आचरण की सामान्य बातें इस कदर महत्वपूर्ण हैं यह आज पता चला।

आप का शुभ नाम- एक ने सवाल किया। दोनों युवकों ने एक-दूसरे को मुस्करा कर देखा फिर हँसते हुए बताया-मेरा नाम है-भगतसिंह और ये हमारे साथी राजगुरु। इसी बीच अगला स्टेशन आया गाड़ी धीमी-और वे उतर कर चल दिये- अपने गन्तव्य की ओर सही अर्थों में उनने जीवन जीना सीखा था।


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