अध्यात्म पर आधारित नवयुग का साम्यवाद

June 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आध्यात्मिक साम्यवाद की परिकल्पना अपने आप में अद्भुत एवं विलक्षण है। एकता समता की बात तो समझ में आती है, किन्तु क्या समता में भी आध्यात्मिक दृष्टिकोण सम्मिलित हो सकता है। जिस भी समाजशास्त्री, दार्शनिक, चिन्तक, विद्वान, महापुरुष, महामानव का ध्यान इस ओर गया है, सबने इसका उत्तर “हाँ” में दिया है। उनका कहना है कि वही साम्य तो अध्यात्मवादी हो सकता है, जिसमें व्यक्तिगत अहंकार पूर्णतः विसर्जित हो गया हो। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की भावना ने प्रगाढ़ रूप धारण कर लिया हो, योग्यता भर काम करने, आवश्यकता भर लेने की नीतिमत्ता का आवरण चढ़ा हो। “हम सबके, सब हमारे” की ही ध्वनि निनादित हो रही हो, मिल-बाँट कर खाने एवं हँसती-हँसाती जिन्दगी जीने की आकाँक्षा चहुँ ओर दिखाई दे रही हो। यही है आध्यात्मिक साम्यवाद का स्वरूप जिसकी संभावना अगले दिनों साकार होने जा रही है।

अँग्रेज राजनेता और दार्शनिक थॉमसमूर ने अपनी पुस्तक ‘यूरोपिया’ में वर्तमान समय में घट रही घटनाओं का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करते हुए भावी समाज की रूप-रेखा बनाई है। उनका कहना है कि इन दिनों व्यक्ति अपने आप में इतना सिकुड़ता जा रहा है, जिसके कारण वह पेण्डुलम की तरह एक निर्धारित सीमा तक सिकुड़ कर रह जायेगा और जब असह्य घुटन बर्दाश्त न कर सकेगा, तो अपने आपको विश्व मानवता के साथ जोड़ने के लिए बाध्य हो जायगा, फलस्वरूप समानता एवं सहकारिता से खुशहाली आने की मान्यता क्रियान्वित होगी। तब प्रत्येक क्रिया-कलाप में सहकारिता की आधारभूत व्यवस्था बनेगी, क्योंकि इसके बिना मनुष्य के शरीर और बौद्धिक विकास तथा समाज को सुगढ़ बनाने की सुविकसित एवं सुनियोजित करने की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

इतालवी मुक्ति आँदोलन के एक सक्रिय कार्यकर्ता तोम्मासों काम्पानेला ने उज्ज्वल भविष्य के रूप में विकसित होने वाले समाज के स्वरूप का नाम ‘सूर्यनगर रखा है। थामस मूर के ‘यूटोपिया हीप’ की तरह ‘सूर्यनगर’ में शोषण उत्पीड़न स्वार्थपरता, संकीर्णता का कोई नामोनिशान न रहने की संभावना व्यक्त करते हुए काम्पानेला कहते हैं-उस समय लोग सूर्य की तरह तेजस्विता, ब्राह्मणत्व से युक्त होंगे, परस्पर समानता का भाव रखेंगे, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता के अनुरूप शक्ति लगाने को सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व समझेंगे, करेंगे एवं खाली समय को मानसिक और शारीरिक विकास में लगाते रहेंगे। थामस मूर के यूटोपियाइयों की तरह वे उत्पादन तो भरपूर करेंगे, लेकिन स्वभावतया वह स्वयं ही जरूरत के अनुसार इसका उपयोग भी करेंगे। सूर्य भगवान की नियमितता का गुण अपनाते हुए शारीरिक एवं मानसिक श्रम से जी नहीं चुरायेंगे। इन्हीं सूत्रों के आधार पर समूचा विश्व-”सूर्यनगर” बन जायेगा।

सिर्फ कथनी से ही नहीं, वरन् कथनी को अपने आचरण में उतारने वाले फ्राँस में काल्पनिक समाजवाद की क्राँतिकारी धारा के प्रवर्तक जॉनमेल्थे अपनी पुस्तक ‘वसीयत’ में सार्वभौम एकता का समर्थन करते हुए भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, जाति, लिंग, प्रचलन की विविधता से उत्पन्न संकटों को स्पष्ट किया है। उन्होंने नये समाज के नियमों का एक प्रारूप तैयार किया है, जिसके आधार पर उनके अनुसार अब भव्य समाज की नव्य रचना होनी है। इसमें व्यक्तिगत उपयोग की वस्तुओं को छोड़कर शेष का उपयोग परहित में करने, अपने सुख के स्थान पर दूसरों को सुख देने, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य का पालन करने एवं प्रतिभा और उम्र के अनुरूप लोकहित को बढ़ावा देने का प्रावधान है। इसमें पहली बार समाजवाद के एक मूलभूत सिद्धान्त, अर्थात् हर व्यक्ति द्वारा अपनी योग्यता के अनुसार शक्ति भर काम करने की आवश्यकता एवं जरूरत भर लेने के अधिकार को सुस्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।

फ्राँसीसी दार्शनिक गैब्रिएल बोत्रों देमाबली ने एक ऐसे समाज की स्थापना की डडडडड प्रत्येक नागरिक को अधिकतम उल्लास और खुशहाली प्रदान कर सके। इस आधुनिक एवं आध्यात्मिक साम्यवाद के आधार पर बने समाज में हर व्यक्ति लोक कल्याण को बढ़ाने अपने देशवासियों के प्रति आदर और ईमानदारी से भरी प्रतिस्पर्धा में भाग लेगा।

द्वारा लोकमंगल में किये गये कार्यों को प्राथमिकता एवं श्रेय दिया जायगा। इसका परिणाम यह निकलेगा कि वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, मनीषी, साहित्यकार कलाकार जैसी प्रतिभाएँ सार्वजनिक सम्पत्ति बन कर रहेगी। वे अपनी विशेष योग्यता का विशेष मूल्य माँगने का दुस्साहस न करेंगी। कारण कि उन्हें अधिक समय सुयोग्य बनाने में वर्तमान समाज एवं चिरकालीन संचित ज्ञान संपदा का ही तो भरपूर लाभ उन्हें मिला है। उन्हीं के सहचर ग्राहख वाव्योफ समाज के भावी स्वरूप की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि समान लोगों के समाज की स्थापना होगी, जहाँ न कोई अमीर होगा और न गरीब। हर व्यक्ति लोकहित की खातिर अपनी योग्यता के अनुरूप शक्ति भर काम करेगा। उन्होंने यह तर्क भी दिया कि चाहे मनुष्य कोई भी काम करे, उसका पेट जितना बड़ा है, उससे बड़ा तो होगा नहीं। हाँ वासना, तृष्णा, अहंता को पोषण देने वाले लोभ, मोह, अहंकार सुरसा की तरह अपना आकार बढ़ा सकते हैं, जिसका न कोई आदि है न अंत, किन्तु तब मनुष्य इनसे उत्पन्न होने वाली हानि को देखकर समान श्रम, शिक्षा, डडडडडडडड आदि ही महती आवश्यकता का अनुभव करेंगे।

यह थे कल्पनावादियों के भावी समाज। यदि आने वाले समय में समाज की संरचना ऐसी ही हो, तो हमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि महाकाल का चक्र इस निमित्त चल पड़ा है। वह अपनी सृष्टि को सजाने-सँवारने के लिए कृत-संकल्प है। यदि ऐसे अवसर पर हम भी उसके कदम-से-कदम मिला कर चल सकें तो घाटे में नहीं, लाभ में ही रहेंगे।

यह थे कल्पनावादियों के भावी समाज। यदि आने वाले समय में समाज की संरचना ऐसी ही हो, तो हमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि महाकाल का चक्र इस निमित्त चल पड़ा है। वह अपनी सृष्टि को सजाने-सँवारने के लिए कृत-संकल्प है। यदि ऐसे अवसर पर हम भी उसके कदम-से-कदम मिला कर चल सकें तो घाटे में नहीं, लाभ में ही रहेंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118