अपनों से अपनी बात

June 1990

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एक मान्यता है कि कभी इस धरातल पर सतयुग था। सतयुग को भी स्वर्ग के समतुल्य ही माना जाता रहा है। अंतर इतना ही है कि परलोक वाला स्वर्ग विलासिता की सुविधाओं से भरपूर था एवं धरती वाले सतयुग में व्यक्ति और वातावरण में सात्विकता, सद्भावना, सहकार से भरीपूरी परिस्थितियाँ विद्यमान थीं। उत्कृष्ट जीवन जीने वाले, हँसती-हँसाती मिलजुल कर रहने वाली परिस्थितियाँ विनिर्मित करने वाले देवपुरुष जब भी धरती पर रहे होंगे, वास्तव में उन दिनों धरती पर सतयुग रहा होगा?

सतयुग का सीधा संबंध ऋषि परम्परा से है। उसका एक नाम ब्रह्मयुग भी है अर्थात् ऐसे व्यक्तियों का वर्चस्व जो ब्रह्मपरायण, सर्वहितार्थाय जीवन जीते हों, जो अपने पर कड़ा अंकुश लगा कर अपनी समस्त विभूतियाँ, समय, उपार्जन को समाजोत्थान के लिए नियोजित करें। ऐसी ऋषियों को, देवमानवों को ब्राह्मण भी का जा सकता है। ब्राह्मण वंश व वेश से नहीं, जाति एवं वर्ण से नहीं अपितु कर्म से। मनीषियों का मत है कि ब्राह्मण वर्ग ही सबसे पहले आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त में अवतरित हुआ तथा स्रष्टा की तरह उसके अन्दर भी यह अभिलाषा उठी कि एकोऽहं बहुस्यामि’ की तरह फैल जाएँ। इस तरह गंगा, यमुना के दो आब से जिसे ब्रह्मावर्त कहा जाता था, निकला ब्राह्मण समुदाय पूरे भारतवर्ष व फिर पूरे विश्व में फैल गया, अनगढ़ों को सुसंस्कृत, शिक्षित, सभ्य बनाता चला गया। इस प्रकार सारे विश्व में आर्यों का साम्राज्य छा गया, परिस्थितियाँ सतयुगी हो गयीं।

आज ब्राह्मणवंश लुप्त हो गया है। हिमालय क्षेत्र में पायी जाने वाली दुर्लभ कायाकल्प जैसे चमत्कारी परिवर्तन कर देने वाली वनौषधियां क्रमशः लुप्त होती जा रही हैं, जिसके लिए सभी वैज्ञानिक प्रयास कर रहे हैं कि किस प्रकार इन लुप्त हो रही प्रजातियों को बचाया जाय? गिर का सिंह बड़ा प्रसिद्ध नाम है किंतु गिरनार के अभयारण्यक में प्रतीक चिह्न के रूप में अब कुछ सिंह ही शेष रह गये हैं, एक पूरा समुदाय ही, वंश का वंश ही नष्ट हो गया। लगभग यही स्थिति ब्राह्मण वर्ग की है, जो कभी सतयुगी वातावरण के लिए जिम्मेदार थे। तैंतीस कोटि ब्राह्मण ही देवता कहलाते थे। आज वह परम्परा लुप्त हो गई है।

यदि सतयुग की वापसी करनी है तो लुप्त ब्राह्मण परम्परा को पुनः जाग्रत करना होगा जिसके माध्यम से जड़ धरित्री पर सुसंस्कृत स्तर के देवमानवों की बेल उगायी, बढ़ायी, फैलायी जाती है। वह परम्परा है ब्रह्मबीज के ब्रह्मकमल में विकसित होने की, मानव में देवत्व के जागरण की, व्यक्ति के अन्दर प्रसुप्त सुसंस्कारिता के उभार की।

इक्कीसवीं सदी निश्चित ही नवयुग के आगमन का शुभ संकेत लेकर आ रही है, जिसमें ब्रह्मपरायण व्यक्तित्व उभरेंगे, बड़ी संख्या में धरित्री पर फैलेंगे तथा पुनः सतयुगी वातावरण की स्थापना करेंगे। ब्राह्मण के जो प्रमुख कार्य बताये गये हैं-वे हैं-विद्या पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-दिलवाना तथा यज्ञ करना- यज्ञ कार्य में सबको सहभागी बनाना। कहते हैं कि “ब्राह्मण” शब्द की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई है जो स्वयं विष्णु की नाभिकमल से जन्मे थे वे एक भाव संपन्न सृष्टि का निर्माण करने में निरत होकर सृष्टिकर्ता-प्रजापिता कहलाये। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने भी अपने ब्रह्मतेज से कभी नूतन सृष्टि का सृजन कर ओजस, तेजस्, वर्चस्, से संपन्न महामानवों से धरित्री को शोभायमान किया था। आज की विषम परिस्थितियों में वैसा ही प्रखर पराक्रम ब्रह्मर्षि विश्वमित्र की क्रियास्थली में ही कठोर एकाकी तपश्चर्या में निरत पूज्य गुरुदेव ने संपन्न किया है। उनने ही उज्ज्वल भविष्य का सतयुगी वातावरण का स्वप्न देखा व उसकी समग्र पृष्ठभूमि तैयार की है। कठोर तप के माध्यम से उनके अन्तःकरण से भी वैसा ही ब्रह्मकमल प्रस्फुटित हुआ है जो पूर्ण पुष्पित, सुविकसित हो कर अनेकानेक ब्रह्मतेज से युक्त आत्माओं के रूप में चरम स्थिति को पहुँचेगा, भाव-संवेदना से भरा-पूरा स्वर्गोपम वातावरण धरती पर लाने में सक्षम होगा।

ब्रह्म बीज के जागरण व ब्रह्मकमल के प्रस्फुटन की इस प्रक्रिया का शुभारंभ प्रथम चरण के रूप में छः विराट ब्रह्म यज्ञायोजनों के माध्यम से इसी जून माह की 8 तारीख (ज्येष्ठ पूर्णिमा) को भारतवर्ष के छः स्थानों से होने जा रहा है। वास्तुचक्र में 6 कोण होते हैं, शरीर में षट्चक्र होते हैं। इसी प्रकार भारतवर्ष की विराट आत्मा का ब्राह्मणत्व जगाने के लिए छः विराट ब्रह्मयज्ञ आयोजन संजीवनी विद्या के विस्तार तथा राष्ट्रीय एकता का संदेश पहुँचाने के निमित्त उत्तर प्रदेश में लखनऊ, बिहार में मुजफ्फरपुर, मध्य प्रदेश में भोपाल एवं कोरबा, राजस्थान में जयपुर तथा गुजरात में अहमदाबाद, इस प्रकार छः स्थानों पर होने जा रहे हैं। इनकी तैयारी युद्धस्तर पर आरंभ कर दी गयी है। इन्हें सूत-शौनिक समागम स्तर का ब्रह्मयज्ञ, कुम्भ महापर्व स्तर का सम्मेलन तथा बाजपेय राजसूर्य यज्ञ परम्परा के स्तर का महायज्ञ भी कहा जा सकता है। जिनने भी मथुरा का 1958 का सहस्रकुंडीय महायज्ञ देखा है, वे आज तक उस विराट आयोजन के स्वरूप एवं सत्परिणामों की यादें संजोये हुए हैं। जो भी उस महायज्ञ से जुड़ा, वह महाकाल से एकाकार होकर निहाल हो गया। उसे वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हर क्षेत्र में सफलताएँ ही विभूतियों के रूप में मिलती चली गयीं। यह एक सुविदित तथ्य है कि पच्चीस लाख से भी अधिक परिजनों का जो परिकर गायत्री परिवार के रूप में जाना जाता है परोक्ष रूप से उसी गायत्री महायज्ञ से जन्मा है।

प्रस्तुत यज्ञायोजनों को उसी स्तर का महाब्रह्मयज्ञ मानना चाहिए। इन्हें सफल बनाने के लिए शाँतिकुँज से सभी स्थानों पर सक्रिय कार्यकर्ताओं की टोलियाँ मई माह की पहली तारीख को ही भेज दी गयी थीं तथा आयोजन स्थान के आस-पास के सभी परिजनों को व्यक्तिगत पत्र द्वारा सूचना भेज दी गयी थी कि वे एक शुभ मुहूर्त में पूरे भारतवर्ष में एक साथ एक ही दिन छः स्थानों पर संपन्न होने वाले इस यज्ञ में भाग लेकर पुण्यार्जन करें।

ये ब्रह्मयज्ञ दो दिन के रखे गये हैं। 7 जून को भव्य कलश यात्रा निकलेगी, सभी शाखाओं का प्रतिनिधित्व उसमें होगा तथा राष्ट्रीय एकता, अखण्डता की द्योतक झाँकियाँ उसमें होंगी। पीत वस्त्रधारी पुरुष एवं पीली साड़ियों में पीले कलश लिए महिलाएँ यज्ञ के शुभारंभ का उद्घोष करेंगी। इसी दिन पूरे राज्य स्तर का कार्यकर्ता सम्मेलन होगा तथा संध्या को विशाल सभा होगी जिसमें नारी जागरण मुख्य विषय होगा। अगले दिन प्रातः न्यूनतम सहस्रवेदी, अधिकतम चौबीस हजार या इससे भी अधिक दीपों का यज्ञ सद्भावना भरे वातावरण में एकत्रित समुदाय द्वारा संपन्न होगा। मध्याह्न पुनः कार्यकर्ता सम्मेलन तथा संध्या को विशाल सभा में विद्या विस्तार एवं राष्ट्रीय अखण्डता का संदेश शाँतिकुँज के प्रतिनिधियों द्वारा दिया जायगा। सभी स्थानों पर तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी हैं। जिन्हें निमंत्रण किसी कारणवश न मिल पाये हों, वे इन पंक्तियों को आमंत्रण मानकर अपने समीप के ब्रह्मयज्ञ में अवश्य सम्मिलित हों। एकता-समता का परिचय सामूहिक ब्रह्मभोज एवं सामूहिक दीपयज्ञ देंगे जिनमें सभी स्त्री पुरुष जो ब्रह्मकर्म में लगना चाहते हों, भाग लेंगे।

यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह दीपों का प्रज्ज्वलन मात्र नहीं है, नवयुग की आरती उतारी जा रही है तथा यह पात्र योजकों का समागम नहीं है, यह एक विराट ज्ञानयज्ञ है जिससे अद्भुत निष्कर्षों के आधार पर राष्ट्र के भावनात्मक नवनिर्माण की आधारशिला रखी जायेगी। यह एक शुभारंभ मात्र है, एक संक्षिप्त यज्ञ आयोजन नहीं वर्षा के उपराँत ही ऐसे ही विशाल स्तर के वास्तु स्थापनापरक षट्यज्ञों का आयोजन भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सभी राज्यों में किया जाना है। इस महत्ता एवं गरिमा को समझते हुए ऐसे ऐतिहासिक आयोजनों में सम्मिलित होने से किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिए।


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