किन्तु जीना हमें हाय आता नहीं!

June 1990

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अखबार पढ़ते-पढ़ते वह खिलखिला कर हँस पड़ा। सुनने वाले ने विस्मय से पूछा-”क्या हुआ भाई?” “अरे एक मरदूद सेठ मर गया” उसकी हँसी अभी थमी नहीं थी। प्रश्नकर्ता उसके मुँह की ओर ऐसे ताक रहा था-जैसे दुनिया के सारे आश्चर्य एक साथ हँसने वाले के चेहरे पर आ टिके हों। कुछ रुक कर कहा-”किसी की मौत पर हँसी आप जैसे विचारशील को शोभा नहीं देती।” वाक्यों ने उसे संजीदा कर दिया। “नहीं भाई मुझे मृत्यु का शोक है किन्तु मरने वाले के सिरहाने बन्द लिफाफे में जो मसौदा मिला है-हँसी उसके विवरण पर आ रही थी” “क्या है ऐसा?” वह सुनाने लगा-”आत्महत्या करने वाले व्यापारी ने लिखा है-मुझे बहुत बड़ा घाटा हुआ है। सब हिसाब चुका देने पर अब मेरे पास सिर्फ दो करोड़ रुपया बचा रहेगा। मैं दरिद्र हो गया। इस दरिद्रता के जीवन से बचने के लिए मैं मर रहा हूँ।” “अब बताइए है न आश्चर्य दो करोड़ रहने पर भी दरिद्र” सुनने वाले के मुख की ओर ताकते हुए बोला-”वज्र मूर्ख था या नहीं-आप ही कहिए।”

“क्या मूर्खता की उसने?” सुनने वाले भी दुकानदार थे पर विचारशील और सुसभ्य। उन्होंने समाचार पढ़ रहे युवक की ओर देखते हुए कहा-”हम सभी ऐसी मूर्खता नित्य करते हैं। हम में से किसे अपनी स्थिति पर संतोष, किसे अपने पुरुषार्थ पर भरोसा है? अपनी स्थिति यदि सहसा गिर जाए हम में से कितने हैं, जिन्हें धक्का नहीं लगेगा? उस व्यापारी के पास दो करोड़ बच रहे थे, आप यही सोचते हैं। एक भिखमंगे के लिए किसी की जेब में दो रुपये पड़े हों, यह भी उतना महत्वपूर्ण है, जितना उस जैसे व्यक्ति के लिए दो करोड़ बचे रहना और वह दो रुपये जेब में रखकर व्याकुल होने वाला भी उतना ही मूर्ख है?” वह घूम पड़ा दुकानदार की ओर।

“हम सब अपने ऊपर की ओर ही देखते हैं। हमारी अशाँति का यही कारण है।” दुकानदार ने स्वस्थ चित्त से कहा-”हम अपने से नीचे की ओर देखें तो अशाँति का कारण मिले ही नहीं।” अन्ततः नन्हीं सी झोंपड़ी में पूरे परिवार को लेकर पड़े रहने वाले, फटे चीथड़ों में जीवन व्यतीत करने वाले, ज्येष्ठ की दोपहरी में सड़क पर कंकड़ कूटने वाले भी तो मनुष्य ही है। उनका काम जैसे चलता है, हमारा वैसे चल ही नहीं सकता, ऐसी क्या विशेषता है हम में?”

“वह व्यापारी इसलिए मूर्ख नहीं था कि रुपये की चिन्ता से मर गया।” दुकानदार ने कहा “उसकी मूर्खता यह रही कि जिन्दगी जीना न सीख पाया, शक्तियों के नियोजन की कला न जान सका। हम सभी मूर्ख हैं, एक क्षेत्र में नहीं। दूसरे में सही” कहकर वह हँस पड़े। उसने घड़ी देखी-अच्छा चलेंगे समय हो रहा है-वह शीघ्रता से उठ खड़ा हुआ। “आप दो मिनट रुकें, तो भी चलता हूँ।” दुकानदार को भी तो दुकान बन्द करने का अवकाश चाहिए था।

“आप ऐसे ही चलेंगे?” बड़े विचित्र लगे उसे ये प्राणी। धोती के ऊपर आधा कुर्ता-यही है उस महाशय की पोशाक। “इस गरमी में इतना कपड़ा पर्याप्त नहीं है?” उनके चेहरे पर मुस्कान थी कुछ पहन लेने से मुझे तो कोई सुख मिलेगा नहीं और दूसरे क्या कहेंगे? यह केवल धोखा है “क्या हम आप देखते चलते हैं कि किसके शरीर कैसे वस्त्र हैं और किसका वेश कैसा है? फिर बनाव श्रृंगार-चटकीली, भड़कीली पोशाकों में कितना धन और समय नहीं बरबाद होता?”

“फैशन” वह कहते-कहते रुक गया। उसे स्मरण लगने लगा था कि मूर्खता का ही दूसरा नाम कदाचित फैशन है और कितने मजे की बात है। इसे सभ्यता का चिह्न माना जाता है। क्या डडडड होता इसके नाम पर अल्लम-गल्लम और अस्त-व्यस्त वार्तालाप, असंगत चेष्टाएँ, क्लब डडडड जीवन तथा सुसभ्य पार्टियों के संस्मरण उसे याद आने लगे। फिर तो किसी को जिन्दगी जीना नहीं आता वह होंठों ही होंठों में बुदबुदा उठा।

ठीक कह रहे हैं-होंठों के अस्फुट स्वरों को यत्किंचित् सुनते हुए उन्होंने कहा-आप ही सोचिए डड आज हो रही सामाजिक प्रगति प्रकाश से अंधकार की ओर नहीं है? ज्ञान से अज्ञान की ओर हमारी गति तीव्र नहीं होती जा रही? क्या हम मूर्ख से वज्रमूर्ख नहीं बन रहे? आप तो पूरे विद्वत्वर्ग को ही मूर्ख कहने लगे। उसने चेतावनी दी।

विश्व के उच्चतम मस्तिष्क यही कोशिश कर रहे हैं न कि ऐसे साधन मिले जिससे कम से कम समय में अधिक से अधिक ध्वंस हो सके। मुझे उसकी प्रतिभा एवं विद्या में कोई संदेह नहीं है, किन्तु प्रतिभा प्रकाश में दौड़ रही है या अंधकार में भटकती जा रही है, यह भी क्या तर्क से सिद्ध करना होगा?

“विचित्र है आपकी यह विचार शैली।” उसने कहा। शैली का आग्रह कहाँ करता हूँ मैं। मेरा जोर तो विचार पर है। हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं? क्या परिणाम प्राप्त होगा इससे? वह परिणाम न हो तो क्या बिगड़ जाय? इन बातों को हम विचार लिया करें-बस इतने से ही सारी उलझने सुलझ जायें। दुकानदार ने कहा-लेकिन हम विचार नहीं करना चाहते। विचार करने की बात सुनना नहीं चाहते और फिर भी हम विद्वान हैं, बुद्धिमान हैं, पता नहीं क्या-क्या हैं।

पहले व्यक्ति का आवास आ चुका था। उसे छोड़कर वे आगे बढ़ गये। घर में प्रवेश करता हुआ वह उन्हीं के बारे में सोच रहा था। विश्राम के समय बिस्तर पर विगत दिनों की घटनाएँ एक-एक करके याद आ रही थीं। बैरिस्टरी पास करने के बाद बंबई उतरना। फिर डॉ. मेहता के द्वारा इन दुकानदार का परिचय। साधारण वेश और सामान्य कार्य में लगा हुआ अद्भुत असामान्य व्यक्तित्व। व्यक्तित्व गठन के लिए भला विशेष पद, परिस्थिति, योग्यता की कब आवश्यकता पड़ी है। इसके लिए तो एक ही सूत्र है-”स्व कर्मण तभ्यचर्य सिद्धि विन्दति मानवः” यही तो किया है उनने। जब से परिचय हुआ है-तब से रोज ही जा बैठता है उनके पास और वे शास्त्र, व्यवहार डडड वैयक्तिक व सामाजिक आवश्यकताएँ क्या कुछ बातों- बातों में नहीं बता जाते। रह-रह कर उनकी बातें याद आ जातीं, लोग जिन्दगी जीना ही भूल चुके हैं, उन्हें यही सिखाना होगा। सारी विचित्रताओं के बावजूद सत्य हे यह कथन। विचित्र इसलिए कि सहसा किये विश्वास होगा कि डिग्रियों का गट्ठर लादे, सारी अकल का ठेकेदार बने इतराते फिर रहे मनुष्य को जिन्दगी तक सलीके से जीना नहीं आता। पर सौ फीसदी सच है यह बात।

इन्द्रिय कोई भी हो, उसके विषय का अत्यधिक सेवन उसे असमर्थ बना देता है। उन्होंने मूल विषय की ओर आते हुए कहा-समाज की विषयोन्मुख प्रवृत्ति विचारपूर्वक नहीं है। विषय सुख की वृद्धि और उसके अधिकाधिक सेवन की लोलुपता मूर्खता है। आज पूरा समाज इसी मूर्खता से ग्रस्त है, जिसका परिणाम रोग, शोक, अशान्ति, विनाश के अलावा और कुछ नहीं। “किन्तु समूचे समाज को इस स्थिति से उबार पाना” “असंभव नहीं है।” वाक्य को बीच में से काटते हुए वह बोल पड़े। हाँ व्यापक समाधान के लिए एक क्रान्ति का आधार विनिर्मित करना होगा। क्रान्ति! नव युवक की आँखों में आश्चर्य था। हाँ, जिसका उद्देश्य व्यवस्था उलटने, सरकार बदलने, प्राणियों को सिर के बल खड़ा करने तक सीमित न रह कर जीवन बदलना हो- मनुष्य को एकाकी नहीं समूची मानव जाति को विचारहीनता से विचार वान बनाना हो। ऐसी क्रांति जिसका आदि, मध्य, अंत सब कुछ विचार हो। “यानी कि विचार क्रान्ति” हाँ मोहन! उन्होंने युवक के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा-”मानव इतिहास में जिस दिन भी यह क्रान्ति उठ खड़ी हो, समझना सतयुगी परिस्थितियाँ अब दूर नहीं।” विचार क्रान्ति की महत्ता परखने वाले यह दुकानदार थे- रायचन्द भाई। इसे स्वीकार ने वाले युवक मोहन थे- मोहनदास करमचन्द गाँधी-जो बाद में महात्मा गाँधी के नाम से जाने गए। सामान्य परिस्थितियों में रहकर असामान्य व्यक्तित्व वाले रायचन्द भाई का उल्लेख करते हुए गाँधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं-सजीव संपर्क से मेरे ऊपर गहरा प्रभाव डालने वाले अकेले रायचन्द भाई हैं जिन्होंने एक शिल्पी की तरह मुझे गढ़ा।


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