भलाई करने की गरिमा तभी बनती है, जब उसके साथ प्रतिफल का पुरस्कार पाने या प्रशंसा सुनने की दुर्बलता छिपी न हो। इन्हें चाहने पर भलाई का पुण्य भी चला जाता है और दूरगामी प्रतिफल उत्पन्न करने वाला लोभ भी हाथ नहीं लगता। न चाहने वाले को इनसे वंचित नहीं रहना पड़ता, वरन् धकेलने पर भी पीछे दौड़ता है।