प्राणवान ही पायेंगे दैवी अनुदान

June 1990

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शरीर उन पंच तत्वों का बना है, जिन्हें जड़ कहा जाता है। चेतना ही उसमें प्राण रूप है। यदि वह निकल जाय, तो पाँच तत्वों का बना घोंसला निर्जीव बन कर रह जाता है। उसके लिए कुछ कर सकना तो दूर, अपनी रक्षा तक नहीं कर सकता। तुरन्त सड़ने-गलने लगता है और जन्तुओं का आहार बन कर अपनी शकल-सूरत तक गँवा बैठता है। प्राण रहते ही किसी को जीवित कहा जाता है। जीवन, वायु की तरह व्यापक और अनन्त है। फेफड़ों में जितनी जगह होती है, वायु उतनी ही मात्रा में ग्रहण की जाती है। शरीर कलेवर के संबंध में भी यही बात है। साँस लेते समय उसकी जितनी आवश्यकता पड़ती है, उतनी ही ग्रहण कर ली जाती है। शेष अनन्त आकाश में ही भरी रहती है। उसे अधिक मात्रा में ग्रहण-उपलब्ध करने की कला में प्रवीण लोग उसे ‘प्राणायाम’ से अतिरिक्त मात्रा में ग्रहण कर लेते हैं और आवश्यकतानुसार विशेष समय पर प्रयुक्त करते हैं। ऐसे ही लोग प्राणवान कहलाते हैं और उस संचय से अपना तथा दूसरों का भला करते हैं।

शरीर-बल प्रायः इतना ही होता है जितना सीमित मात्रा में प्राण शक्ति विद्यमान रहती है। पर जो आश्चर्यजनक-अद्भुत-असाधारण कार्य कर पाते हैं, उनकी चेतना ही विशेष रूप से सक्रिय होती और चमत्कार स्तर के काम करती देखी जाती है। शरीर मनुष्यकृत है। वह नर-नारी के गुण सूत्रों के माध्यम से विकसित होता है, किन्तु प्राण देवता है। उसकी असीम मात्रा इस विश्व-ब्रह्माण्ड में भरी पड़ी है। वह अपने वर्ग के साथ असाधारण मात्रा में एकत्रित भी हो सकता है और एक से दूसरे में-प्रवेश करके अपनी दिव्य क्षमता का हस्तांतरण भी कर सकता है। इस प्रकार के प्रयोगों को शक्तिपात नाम से जाना जाता है। छाया पुरुष स्तर में बना रहता है। जीवित स्थिति में भी अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में उसके चमत्कारी करतब देखे जा सकते हैं। प्राणयोग के अभ्यास से इसका अतिरिक्त प्रवाह, शरीर से बाहर निकल कर भी सुषुप्ति, तुरीय, समाधि आदि में अपनी सत्ता बनाये रह कर, बिना शारीरिक साधनों के अपने अस्तित्व तथा सशक्त विशेषताओं का परिचय दे सकता है।

प्राण की सत्ता हस्तांतरण के उपयुक्त भी हैं। कोई समर्थ व्यक्ति अपनी दिव्य क्षमता का एक भाग किसी दूसरे को देकर उसकी सहायता भी कर सकता है। आदि शंकराचार्य की कथा प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार वे कुछ समय के लिए अपने शरीर से निकल कर किसी दूसरी डडड में प्रवेश कर गये थे और लंबी अवधि तक उसी में बने रहे थे।

अन्य विशिष्ट शक्तियाँ भी मनुष्य के साथ अपने ताल-मेल बिठाती और उसके शरीर द्वारा अपने अभीष्ट प्रयोजन पूरे करती रही हैं। कुन्ती-पुत्र मनुष्य शरीरधारी होते हुए भी विशेष देवताओं के अंश थे। उसी स्तर के वे काम भी करते रहे, जैसी कि साधारण मानवी काया में रहते हुए कर सकना संभव नहीं है। रामायण काल में हनुमान अंगद आदि के पराक्रमों को भी ऐसे ही देवोपम माना जाता है। मनुष्य शरीरधारी सामान्य प्राण वाले प्रायः वैसे कार्य नहीं ही कर सकते। अवतारी सत्ताएँ मनुष्य शरीर में रह कर ही अपने विशेष कृत्य करतीं और “यदा-यदा हि धर्मस्य” वाली प्रतिज्ञा की रक्षा करती हैं।

भगवान जिन्हें विशेष कर्मों के लिए चुनते, नियुक्त करते हैं, उनमें इस दिव्य प्राण की मात्रा ही अधिक होती है, जिसके सहारे वे नर-वानरों की परिधि से ऊँचा उठकर सोचने, ऐसा साहस करने और आदर्श उपस्थिति करने में समर्थ होते हैं। भव-बन्धनों की रज्जुओं से जकड़े हुए सामान्य मनुष्य न तो वैसा सोच ही सकते हैं और न दिव्य आदर्शों को अपना पाते हैं। दैवी प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए अतिरिक्त आत्मबल का-मनोबल का परिचय वे दे नहीं पाते। डडड विघ्न ही उन्हें पहाड़ जितने भारी दीखते हैं और जब कुछ कर गुजरने का समय आता है, तो भयभीत होकर किसी अनर्थ की आशंका करने लगते हैं। कायरता न जाने कहाँ से आकर डडड पड़ती है और कभी की हुई प्रतिज्ञाएँ—लिये और उन संकल्पों को एक प्रकार भूल ही जाते हैं।

दैवी अनुग्रह के संबंध में भी लोगों की विचित्र कल्पनाएँ हैं। वे उन्हीं छोटी संभावनाओं को दैवी अनुकंपा मानते रहते हैं जो सामान्य पुरुषार्थ से अथवा अनायास ही संयोगवश लोगों को उपलब्ध होती रहती हैं। मनोकामनाओं तक ही उनका नाक रगड़ना, गिड़गिड़ाना सीमित रहता है, जिसे वे दैवी अनुकम्पा मानते हैं। आत्मबल-आत्मविश्वास न होने से जो कुछ प्राप्त होता है उसे पुरुषार्थ का प्रतिफल मान कर उनका मन संतुष्ट ही नहीं होता। उनके लिए हर सफलता दैवी अनुग्रह और हर असफलता दैवी प्रकोप मात्र प्रतीत होता है। ऐसे दुर्बल चेतनाओं की बात छोड़ दें, तो यथार्थता समझ में आ जाती है पर अंततः एक ही तथ्य सामने आता है कि मनुष्य जब आदर्शवादी अनुकरणीय-अभिनंदनीय कर्मों को करने के लिए उमंगों- तरंगों से भर जाता है तो वह असाधारण कदम उठाने लगता है। रावण की सभा में अंगद का पैर उखाड़ना तक असंभव प्रतीत होने लगा था। औसत आदमी को तो हर काम असंभव लगता है। ऐसे छोटे त्याग करना भी उसे पहाड़ उठाने जैसा भारी पड़ता है, जो वस्तुतः हलके-फुलके ही होते हैं, और हिम्मत के धनी आदर्शवादी जिन्हें आये दिन करते रहते हैं।

दैवी अनुग्रह का एक ही चिह्न है। आदर्शवादी की दिशा में साहसपूर्वक बड़े कदम उठाना और उस प्रयास में आगे वाली कठिनाइयों को हँसते-हँसते दरगुजर कर देना। भगवान का अनुग्रह एक ही है-आदर्शों के परिपालन में बढ़ी-चढ़ी साहसिकता का प्रदर्शन करते रहना। कायरों और हेयजनों के लिए यही पर्वत उठाने जैसा अड़ँगा प्रतीत होता है किन्तु जिनमें मनोबल की कमी नहीं, उनके लिए तो यह सब खेल-खिलवाड़ जैसा लगता है। संसार का इतिहास साक्षी है कि जिस किसी पर भगवान की प्राण चेतना-अनुकम्पा बरसी है, उनको एक ही वरदान मिला है, ऐसे सत्कर्म करने का साहस मिला है, ऐसा उत्साह मानस में विचरता रहा है कि अनुकरणीय और अभिनंदनीय कार्य सतत् करने की लगन उठती रहे। अवाँछनीय और अनौचित्य जहाँ भी दीखती है, वहाँ लड़ पड़ने का इतना शौर्य-साहस उभरता है कि उसे चरितार्थ किये बिना व्यक्ति शांति से बैठ ही नहीं सकता।


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