संस्कृति का गौरव बनाम सतयुग

June 1990

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भारतीय संस्कृति को महान कहे जाने का श्रेय सतयुग के ऋषियों एवं ब्राह्मणों को जाता है। जब से लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व जबकि ज्ञान और विज्ञान का विधि और निषेध का कोई निश्चित मापदण्ड मानव प्राणी के पास न था तब अंधे को लकड़ी ही नहीं आँखें देने के समान जीवन का स्वरूप, विधान और व्यवहार समझाकर भटके को राह बताने की प्रक्रिया उन्हीं के द्वारा संपन्न की गई थी। वेद इसके मूल स्रोत हैं। जन साधारण के दुःखों एवं विपत्तियों को उनने न केवल देखा, सुना और अनुभव किया था वरन् उनसे त्राण पाने के उपायों का गहन अनुसंधान भी किया था। उपनिषदों का दिग्दर्शन एवं दर्शनों का आविर्भाव इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है। इसका परम लक्ष्य मनुष्य को त्रितापों के बंधन से छुड़ाना और मोक्ष की ओर ले जाना है।

भारतीय दर्शन की विशिष्टता है-उसका बहुमुखी होना। उसकी विविध शाखाओं में ज्ञान का जो भण्डार भरा पड़ा है, वह विश्व के किसी भी प्राचीन देश में उपलब्ध नहीं है। यह वह प्रयत्न है जिसके द्वारा मानव-संस्कृति आत्म-चेतना प्राप्त करती है। मुख्य दर्शन छः हैं-साँख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमाँसा और उत्तरमीमाँसा या वेदान्त। षट् दर्शनों की विशेषता यह है कि उनमें समस्त शास्त्रों, विधाओं का सार सन्निहित है। धर्म, मीमाँसा, ब्रह्मविद्या, अध्यात्म विद्या, आत्मविद्या, अन्तःकरण शास्त्र, कला शास्त्र तर्क आदि सभी विषयों का उनमें समावेश है। वे जिन तत्वों की व्याख्या करते हैं उसका अभिप्राय न केवल विवेचना मात्र करना है वरन् उन्हें जीवन में उतारना भी अभीष्ट है। दर्शन जिस वास्तविक तत्व की खोज करता है उसके लिए एक नैतिक भूमिका अनिवार्य है। चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शनों का संबंध मोक्ष से है जिसे मुक्ति, कैवल्य, निःश्रेयस, अमृतत्व, निर्वाण अपवर्ग आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। भारतीय संस्कृति का हर सिद्धान्त इसी भित्ति पर आधारित है। मानव धर्म की प्रत्येक सरिता इसी समुद्र की ओर प्रवाहित होती है।

भारतीय दर्शन की उत्कृष्टता सर्वव्यापक है। इनमें सन्निहित सिद्धान्त अकाट्य एवं सार गर्भित हैं। इसकी उत्कृष्टता को समस्त विश्व ने मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है। योरोपीय दर्शन का मूल भारतीय दर्शन ही है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक पाश्चात्य विद्वानों-विचारकों ने अपने मन मानस की परिपक्वता के लिए भारत की यात्राएँ की एवं यहाँ की दार्शनिक प्रवृत्तियों का वर्षों अध्ययन करके अपनी जिज्ञासाओं की पूर्ति के पश्चात् ही स्वदेश लौटे। तदुपरान्त उन्होंने भारतीय दर्शन का ही अपने देश में प्रचार-प्रसार किया। यद्यपि यह बात अलग है कि काफी समय बीत जाने पर लोग यह समझने लगे कि यह उनके अपने मौलिक विचार थे।

पाश्चात्य एवं भारतीय दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि विश्व के समस्त दर्शनों का आदि स्रोत भारतीय दर्शन ही है। पाश्चात्य मनीषी भी इस बात को स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध विद्वान सर विलियम जोन्स का कथन है कि दर्शनशास्त्र के बारे में यह कहना पर्याप्त होगा कि पूर्व और पश्चिम दार्शनिकों के सिद्धान्त बहुत कुछ आपस में मिलते-जुलते हैं। उनके अनुसार न्याय तथा पेरिपेटेक, वैशेषिक और आयोनिक, वेदान्त एवं प्लेटोनिक, साँख्य व इटेलिक, योग और स्टोइक दर्शनों में समानता दिखाई देती है। जिसके आधार पर गौतम की आरिस्टोटल से, कणाद ऋषि की थेल्स से, जैमिनी की साँक्रेटीज से, व्यास की प्लेटो से, कपिल की पाइथागोरस से तथा पातंजलि की जेनों से तुलना की जा सकती है। परन्तु यहाँ यह जान लेना आवश्यक हे कि पाइथागोरस का जन्म ई. पू. 580 में हुआ था जबकि भारतीय दर्शन का विकास इससे बहुत पहले हो चुका था। इसकी पुष्टि करते हुए मैकडाँनेल ने अपने संस्कृत साहित्य में लिखा है कि डेमोकायटिस, एम्फीडोक्लीज, पाइथागोरस, ऐनेनेगोरस और थेल्स आदि विद्वानों ने भारतवर्ष जाकर वहाँ के दर्शनों का अध्ययन किया था। उन विद्वानों के सिद्धान्त इस सत्य को स्वयं प्रतिपादित करते हैं। पाइथागोरस का पुनर्जन्म संबंधी एवं पंच भौतिक तत्वों तथा ईश्वर जीव संबंधी सिद्धान्त भारतीय दार्शनिक प्रतिपादनों को ही प्रतिध्वनि करते हैं। हेराक्लीट्स, एपीक्यूरस जैसे यूनानी दार्शनिक साँख्य दर्शन से प्रभावित थे। प्लेटो ने अपनी प्रसिद्ध कृति “रिपब्लिक” में पुनर्जन्म और कर्मवाद के जिन सिद्धान्तों, तथ्यों का प्रतिपादन किया है, वह भारतीय दर्शन की ही दिन है। इसे मैक्समूलर, हार्टमैन और इमर्सन जैसे विद्वानों ने भी एक मत से स्वीकारा है।

षड्दर्शनों का विकास उपनिषदों से हुआ है। जर्मन दार्शनिक शोपेनहांवर उपनिषदों को अपना गुरु मानते थे। कुरान में जिस गुप्त पुस्तक का उल्लेख है वह उपनिषद् ही हैं। दाराशिकोह ने इसकी पुष्टि की है। बाइबिल के सिद्धान्त उपनिषदों पर आधारित हैं। ईसा ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण सोलह वर्ष भारत में व्यतीत किये थे और भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किया था। इस रहस्य को प्रायः सभी जानते हैं। उनकी प्रसिद्ध शिक्षा-”अपने पड़ोसी से प्यार करो,” मैं और प्रभू एक ही हैं।” आदि वेदान्त के अद्वैत दर्शन का ही प्रतिपादन करते हैं।

भारतीय दर्शन एवं यहाँ के दार्शनिकों को जानने की विदेशियों के मन में कितनी अपूर्व जिज्ञासा थी, वह इस बात से स्पष्ट होती हे जिसमें प्रख्यात यूनानी दार्शनिक प्लाटिनस ईरान पर होने वाले एक हमले में हमलावरों के साथ इसलिए सम्मिलित हो गया था कि संभव है वहाँ किसी भारतीय दार्शनिक या ब्राह्मण से भेंट हो जाये। वस्तुतः उस समय भारतीय मनीषियों के चिंतन चरित्र एवं व्यवहार की उत्कृष्टता अपने चरम उत्कर्ष पर थी जिनके संपर्क सान्निध्य के लिए सभी लालायित रहते थे। जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर का इस संबंध में कहना है कि भारतीय स्वभाव से ही दार्शनिक हैं। उनकी दार्शनिक जाति प्रसिद्ध है जिन्होंने सभी क्षेत्रों में आशाजनक उन्नति की थी। सभ्यता को पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाले आर्यों ने दार्शनिक ज्ञान को भी ऊँचाई तक पहुँचाया था। प्रो. वेवर के अनुसार “आर्यों की चिन्तन शक्ति इतनी ओजपूर्ण थी कि वह दार्शनिक ज्ञान के क्षेत्र में सब से आगे थे।” “न्यू लाइट आन द मोस्ट ऐशिएंट ईस्ट” नामक अपनी पुस्तक में प्रो. फ्रैकफर्ट ने लिखा है कि यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि सभ्य संसार का निर्माण करने वाली प्राचीनतम जटिल संस्कृति में यूनानियों के उत्थान से पूर्व भारतीय संस्कृति का अस्तित्व विद्यमान था। विद्वान जॉन हण्टर ने भी माना है कि पहले ग्रीक व रोमन जातियाँ मन, बुद्धि आत्म सुख, दुख कर्म एवं अकर्म आदि के संबंध में अंधकार में थी। इनके गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने और प्रकाश में लाने वाले भारतीय दर्शन ही हैं। मनीषी कोलबुक ने भी दार्शनिक जगत में भारत को अपना गुरु माना है और कहा है कि इस क्षेत्र में हम सब उसके विद्यार्थी हैं। विश्वविख्यात अमेरिकी दार्शनिक हेनरीडेविड थोरो भारतीय दर्शन का दीवाना था। जन्म तो उसका अमेरिका में हुआ था पर उसकी आत्मा पूर्णतः भारतीय हो गयी थी। उसका दृढ़ विश्वास था कि जो भी व्यक्ति भारतीय मनीषियों का मार्ग अपनाएगा, वह अपने लिए स्वर्ग का निर्माण करेगा।

भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठतम दार्शनिक प्रवृत्तियाँ किस प्रकार विदेशों में प्रसारित हुई, इसका वर्णन राबिन्सन ने अपनी पुस्तक में विशद रूप से किया है। उसके अनुसार सिकन्द्रिया योरोप का बहुत बड़ा व्यापारिक केन्द्र था जहाँ योरोपीय एवं भारतीय व्यापारियों का सम्मेलन होता था। वहाँ यूनानी और भारतीय दार्शनिकों में विचारों का आदान-प्रदान भी होता था। इससे ईसाई धर्म प्रभावित हुआ। इस नगर के विध्वंस के बाद ईरान ने उस स्थान की पूर्ति की, जहाँ भारतीय प्राच्य विद्या का अरबी और फारसी में अनुवाद किया गया। यहाँ से अनूदित साहित्य स्पेन पहुँचा जहाँ से योरोप में इसका प्रसार हुआ। “यूरोपियन सिविलाइजेशन” नामक अपनी पुस्तक में भी श्री गोम ने लिखा है कि यूनान पर भारतीय संस्कृति का आधिपत्य अवश्य था पर उसका समय अनिश्चित है। धर्मशास्त्र में इतिहास के प्रणेता श्रीकाणे ने भी कहा है कि यूनान अत्यंत प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति के मूल्यों से अनुप्राणित होता रहा है।

आज की आवश्यकता है कि ब्राह्मणत्व पर आधारित उस ऋषि-युग, को सतयुग को पुनः लाया जाय तो देवत्व से अभिपूरित था तथा जिसकी तेजस्विता ने समूचे विश्व के जन-जन के मनों को प्रभावित किया था। यह संभव है तभी जब इस भू सब ब्राह्मण परम्परा को पुनः जाग्रत किया जा सके।


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