मानवी काया एक सशक्त सौरमण्डल

December 1972

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मानवी शरीर ज्यों हाड़माँस का पुतला भर प्रतीत होता है पर उसका विश्लेषण जितनी गहराई से किया जाय उतनी एक के बाद दूसरी परत अद्भुत दिखाई देती चल जाती है। प्रभु के हाथ की इस अनुपम कला-कृति में एक से एक बढ़कर रहस्य प्रकट होते चलते हैं।

काया के भीतर रहने वाले मन की शक्ति और संभावना का तो कहना ही क्या-शरीर की संरचना भी ऐसी ही है जिसकी बारीकियाँ अपने गर्भ में न जाने कितनी विशेषतायें धारण किये प्रतीत होती हैं। शरीर शास्त्र के आधार पर देखें तो प्रतीत होता है कि उनमें सात स्वतन्त्र तन्त्र काम कर रहे हैं। उनमें परस्पर सहयोग तो है पर साथ ही उनका क्रियाकलाप अपने आप में समग्र एवं सर्वांगपूर्ण भी है। जिस प्रकार शासन तन्त्र में गृह विभाग, अर्थ विभाग, निर्माण विभाग, संचार विभाग, विदेश विभाग, उद्योग विभाग, शिक्षा विभाग आदि अनेक उपतन्त्र होते हैं उसी प्रकार शरीर बाहर से एक दीखते हुए भी उसके भीतर सन्तरे के भीतर पाये जाने वाले स्वतंत्र घटकों की तरह सात शरीर पाये जाते हैं, उनकी विचित्रता इतनी भर है कि अपनी सीमित गतिविधियों में संलग्न रहते हुए भी परस्पर एक दूसरे के सहयोगी एवं पूरक बने रहते हैं।

इन सात शरीरों से काया के क्रियाकलापों का संचालन होता है सो तो है ही, साथ ही उनमें ऐसे शक्ति स्रोत भी सन्निहित हैं जिनके आधार पर मानवी व्यक्तित्व के विकास की अगणित संभावनायें मूर्तिमान होती रहती हैं। जिस प्रकार जड़ पदार्थों में भी एक आत्मा का अस्तित्व अध्यात्म दर्शन ने माना है उसी प्रकार इन सात शरीरों के भी सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं। इन्हें षट्चक्र और सातवाँ सहस्र दल कमल- ब्रह्मरंध्र- कहते हैं। शरीर विज्ञानी जिस प्रकार प्रत्यक्ष सात काय-कलेवरों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं उसी प्रकार अध्यात्म विज्ञान में सूक्ष्म शरीर के साथ सघन घनिष्ठता के साथ जुड़े हुए सप्त शक्ति चक्रों का निरूपण किया है और उन्हें सप्तदीप, सप्तसागर, सप्त नाद, सप्तपर्वत, सप्तऋषि, सप्तलोक, सप्तव्याहृति, सप्तसत्ता, सप्तसाधना के रूप में विवेचना करते हुए समग्र आत्म विद्या का कलेवर खड़ा किया है।

ब्रह्मशरीर के अन्तर्हित व्यापक क्षेत्र में फैले हुए पदार्थ तत्व के सात भाग हैं। उन्हें ब्रह्माण्डव्यापी प्रकृति के सात शरीर भी कह सकते हैं (1) दैवीय-डिवाइन (2) सृष्टि के प्रथम जीव से संबद्ध-मोनडिक (3) परमाणु-एटम (4) आत्मिक-स्प्रिचुअल (5) मानसिक -मेन्टल (6) सूक्ष्म-आस्ट्रिल (7) भौतिक-फिजीकल। इन सातों के भीतर ही वे अगणित सिद्धियाँ समृद्धियाँ समाविष्ट हैं- जिनके लिए हम निरन्तर लालायित रहते हैं। ब्रह्माण्ड शरीर की भाँति ही मनुष्य शरीर के भीतर भी सात परतें हैं चाहें तो इन्हें सात शरीर भी कह सकते हैं। ब्रह्म शरीर के सात आवरणों की भाँति ही मनुष्य शरीर के सात विभेद भी परस्पर घनिष्ठता पूर्वक संबद्ध हैं।

मनुष्य शरीर यों एक मालूम पड़ता है पर उसका विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि उसमें ऐसी सात पृथक संरचनायें काम करती हैं, जिनकी अपने-अपने ढंग की कार्य पद्धति है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि सात पृथक रीति-नीति अपनाकर काम करने वाले शरीरों से मिलकर एक पूर्ण शरीर बना है। इनकी कार्य पद्धतियाँ पृथक हैं तो भी वे परस्पर एक दूसरे के पूरक और सहयोगी बनकर रहते हैं।

यह सातों शरीर इस प्रकार हैं (1) अस्थि शरीर- बोन बॉडी (2) माँस शरीर- मसल्स बॉडी (3) नाड़ी शरीर- नर्व बॉडी (4) संचरण शरीर- सर्कुलेटरी बॉडी (5) लसीका शरीर- लिम्फैटिक बॉडी (6) नलिकाकार शरीर- ट्यूबूलर बॉडी (7) चर्म शरीर- स्किन बॉडी। इनमें से प्रत्येक शरीर समग्र शरीर रचना में अपना अनोखा योगदान देता है।

शरीर यों एक ही- एक समान ही सदा दीखता है पर वस्तुतः इसमें द्रुतगति से परिवर्तन होता रहता है। यद्यपि बाहरी पहचान नहीं बदलती तो भी भीतर ही भीतर सब कुछ आँधी तूफान की तरह चलता बदलता रहता है। दार्शनिक हक्सले ने मानव शरीर की उछलते हुए फव्वारे से तुलना की है। चलता हुआ फव्वारा यद्यपि एक स्थिति में दीखता रहता है पर उसका पानी हर घड़ी निरन्तर चलता रहता है और एक क्षण पहले जो बूँद जहाँ थी वहाँ से बहुत दूर चली जाती है। कायगत कोश भी इसी तरह मरते जन्मते और चलते बदलते रहते हैं पर बाहर से यही प्रतीत होता रहता है कि शरीर ज्यों का त्यों स्थिर है।

षट्चक्र एक प्रकार से छह बिजली घर हैं जिनके केन्द्रों से विभिन्न स्तरों के आकर्षण और विकर्षण शक्ति सम्पन्न कम्पन निसृत होते हैं। विश्वव्यापी शक्तियों को खींचकर अपने में धारण करने और अपनी विशेषताओं को संसार में प्रसारित करने की क्षमता इनमें भरी रहती है। मस्तिष्क भी एक सातवाँ चक्र है, जिसका केन्द्र बिन्दु सहस्रदल कमल कहलाता है। उसकी विशेषता विचारों के आदान प्रदान की है। अन्तरिक्ष में भरे ज्ञान सागर में से अपने उपयोग के मोती ढूँढ़ निकालना मस्तिष्क का काम है, साथ ही वह यह भी करता है कि अपनी विचारणा चेतना को एक छोटी नदी के समान उस अनन्त ज्ञान सागर में समर्पित करता रहे। शेष चक्रों में इन अन्य सभी शक्तियों के प्रतिनिधि केन्द्र हैं जो इस विश्व के संचालन में विभिन्न प्रकार की भूमिकायें सम्पादित करती रहती हैं। आँखों से देखने से संसार के पदार्थ जड़ एवं स्थिर दिखाई पड़ते हैं, पर वैज्ञानिक तथ्य यह है कि स्थिरता नाम की कोई चीज कहीं नहीं है। हर वस्तु के भीतर प्रचण्ड आणविक हलचलें हो रही है और उन्हीं के आधार पर वस्तुएं, वनस्पतियाँ, जन्मती, बढ़ती, सन्तानोत्पादन करती, जीर्ण होती और मरती रहती हैं। इन गतिविधियों के पीछे परमाणुओं की निर्धारित हलचलों से लेकर अन्य अनेक ऐसे शक्तियाँ काम करती रहती हैं जिनका उद्गम अन्तर्ग्रहीय केन्द्र से रहता है। यह सब मिलकर ही संसार के विभिन्न पदार्थ अपना कार्य कर रहे हैं। इन सबके पीछे जो क्रिया-कलाप चल रहा है वही मनुष्य के भीतर भी है। पर उसमें विशेषता यह है कि चल रहे प्रवाह में से इच्छानुसार अपने लिए अतिरिक्त रूप से ग्रहण कर सकता है और चाहे तो बहुत कुछ दे भी सकता है। यह पूर्णतया ऐच्छिक है। यदि किसी व्यक्ति में यह आकर्षण विकर्षण की अतिरिक्त क्षमता विकसित न हो सके तो फिर अन्य पदार्थों या प्राणियों की तरह वह केवल नियति के प्रवाह से प्रभावित मात्र होता रहेगा। प्रकृति का क्रम वहाँ जहाँ भी धकेलेगा उधर ही बहता चलता रहेगा।

षट्चक्र साधना से मनुष्य की आन्तरिक क्षमता बढ़ सकती है और वह अपने को एक ऐसी प्रचण्ड इकाई के रूप में विकसित कर सकता है जो संसार के अजस्र वैभव में से इच्छानुसार बहुत कुछ अधिग्रहण कर सके। यह क्षमता कई बार प्रकृति प्रदत्त भी होती है और कई बार जन्म-जन्मान्तरों के संग्रहीत संस्कारों के कारण अनायास ही विकसित हो पड़ती है। पर इतना द्वार हर किसी के लिए खुला हुआ है वह चाहे तो अपनी मानव सत्ता के साथ जुड़ी हुई चमत्कारी विशेषताओं को चाहे जितनी ऊँचाई तक विकसित कर सकता है यहाँ तक कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के समतुल्य भी बन सकता है।


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