गरिमा सत्य वचन की नहीं -सत्यनिष्ठा की है।

December 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सत्य की बड़ी महिमा धर्मशास्त्रों में गाई गई है। पर वह सत्य केवल जीभ से सच बोलने तक सीमित नहीं है। जो भीतर है वही बाहर प्रकट किया जाय, छल रहित निष्कपट रहा जाय, सत्य का स्थूल रूप यह है। जीवन लक्ष्य सत्य पर, धर्म पर, परमेश्वर पर उच्च उद्देश्यों एवं आदर्शों पर केन्द्रित रहे, यह भी सत्य निष्ठा है। इस विवेकपूर्ण एवं सत्यपरिणाम प्रवृत्तक सत्य की वह महिमा है जिसका प्रतिपादन शास्त्रों ने नये पग-पग पर किया है। सत्य वचन बोलने तक वह पुण्य प्रक्रिया सीमित नहीं रखी गई है क्योंकि सदुद्देश्य पूर्वक भी विशेष परिस्थितियों में यथार्थ उच्चारण की उपेक्षा आवश्यक हो जाती है।

सत्य की गरिमा और उसके वास्तविक स्वरूप की झाँकी नीचे देखिये-

सत्यमेव जयति नानृतं

सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा

यत्र तत सत्यस्य परमंनिधानम् ॥ 6॥

-मुण्ड उपनिषद्

जहाँ सत्य स्वरूप परमेश्वर का श्रेष्ठ निवास स्थान है उनके समीप वहीं ऋषिगण देवयान मार्ग से पहुँचते हैं, जिनकी कोई कामना शेष नहीं रह गई है। यह मार्ग सत्य से परिपूर्ण है क्योंकि सत्य की ही सदा विजय होती है, झूठ की नहीं होती ॥ 6॥

सत्ये ह्येव दीक्षा प्रतिष्ठिता भवति

शत. 14 । 6। 9। 24

जिसने सत्य को हृदयंगम कर लिया उसकी दीक्षा हो गई।

सत्य का अवलम्बन आवश्यक है। वचनों की यथार्थता अनिवार्य नहीं। परिस्थिति विशेष में सदुद्देश्य के लिए असत्य बोलना भी सत्य के समान ही आवश्यक एवं उपयुक्त होता है। सेना में गुप्तचर विभाग में काम करने वाले लोग देश रक्षा एवं लोकहित के लिए यथार्थता को छिपाये रहते हैं। इससे वे कुछ पाप नहीं करते वरन् उससे धर्म एवं कर्त्तव्य की रक्षा ही होती है अस्तु उसे हेय नहीं माना गया है। सत्यनिष्ठा को महत्व देना अनिवार्य है। सत्यवचन और सत्यनिष्ठा में अन्तर आता हो तो वचन को गौण और निष्ठा को प्रधान मानकर चला जा सकता है।

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।

यद्भूतहितमत्यन्तमेतत्सत्यं मतं मम ॥

-महाभारत शान्ति पर्व

सत्य बोलना उत्तम है। पर वह भी ऐसा बोलना चाहिये जो सब प्राणियों को लिए वस्तुतः श्रेयस्कर हो जिससे लोक का हित होता हो वही वस्तुतः सत्य है।

नापृष्टः कस्यचिद् ब्रू यान्न चान्यायेन पृच्छतः।

जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्॥

मनुस्मृति 2-120

दुष्ट दुरात्मा कोई प्रश्न न करे तो कुछ बोले ही नहीं। यदि वह अनाचारी बताने को विवश करे तो वस्तुस्थिति जानते हुए भी ऐसे ही कुछ हाँ हूँ कहकर पागल की तरह टाट टोल कर दें।

महाभारत के कर्ण पर्व में इस तथ्य पर और भी अधिक विस्तृत प्रकाश डाला गया है। भगवान कृष्ण ने गीता की तरह सत्य का तथ्य भी पाण्डवों को इस प्रकार समझाया।

सत्यस्य वदिता साधुर्न सत्याद्विद्यते परम्।

तत्वेनैव सदुर्ज्ञेयं पश्य सत्यमनुष्ठितम् ॥ 31॥

भवेत्सत्यमवक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत्।

यत्रानृतं भवेत् सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेन् ॥ 32॥

सर्वस्वस्यापहारे तु वक्तव्यमनृतं भवेत्

तत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत् ॥

तादृशं पश्यते बालो यस्य सत्यमनुष्टितम्॥ 34॥

भवेत्सत्यमवक्तव्यं न वक्तव्यमनुष्ठितम्।

सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित्॥ 35॥

श्रुतेर्धर्म इति ह्येके वदन्ति बहवो जनाः।

तत्ते न प्रत्यसूयामि न च सर्वं विधीयते॥55॥

ये न्यायेनजिहीर्षन्तो धर्ममिच्छन्ति कर्हिचित्।

अकूजनेन मोक्षं वा नानुकूजेत् कथंचन॥ 59॥

अवश्यं कूजितव्ये वा शंकेरन्नयकूजितः।

श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुँ तत्सत्यमविचारितम्॥60॥

श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुँ तत्सत्यमविचारितम्।

न च तेभ्यो धनं देयं शक्ये सति कथंचन॥ 64॥

पापेभ्यो हि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेत्।

तस्माद् धर्भार्थमनृतमुक्तवा नानृतभाग् भवेत् ॥65॥

-महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 69

सत्य श्रेष्ठ है। सत्य बोलने वाला साधु है पर सत्य के दुर्विजेय तथ्य को भी समझना चाहिए ॥31॥

जहाँ झूठ सच हो रहा हो और सच झूठ बन रहा हो वहाँ सत्य बोलना अधर्म और झूठ बोलना धर्म है॥ 32॥

दुष्टों द्वारा सर्वस्व अपहरण किया जा रहा हो तो झूठ बोलना ही उचित है, ऐसे अवसर पर झूठ सत्य और सत्य झूठ हो जाता है। सत्य की गहराई में प्रवेश करने वाले जिज्ञासु को कहना चाहिए कि यदि कहीं सत्य का न कहना उचित हो तो उसे नहीं ही कहना चाहिए गम्भीरतापूर्वक सत्य और असत्य के तत्व को समझना चाहिए॥ 34-35॥

लोग कहते हैं कि श्रुति से ही धर्म का ज्ञान होता है मैं इसका खण्डन नहीं करता पर यह भी सत्य है कि श्रुति से ही सब कुछ निश्चय नहीं होता ॥55॥

न्याय की रक्षा ही धर्म का लक्षण है। यदि कहीं चुप रहना उचित हो तो कभी न बोले। यदि बोलना आवश्यक ही हो जाय और बिना बोले काम न चले तो न्याय की रक्षा के लिए झूठ बोलने में ही श्रेय है। ऐसा असत्य भी सत्य ही कहलाता है॥ 59-60॥

चोरों के साथ पाला पड़ने पर यदि झूठ बोलकर छुटकारा पाले तो धर्म तत्व के ज्ञाता इसे अधर्म नहीं कहते॥ 64॥

जिस प्रकार पापियों को दिया हुआ दान दाता को भी दुख देता है, वैसे ही दुष्टों के समर्थन में बोला गया सत्य भी वक्ता के लिए अनुपयुक्त ही है॥ 65॥


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles