शरीर क्षेत्र में कनिष्ठ होते हुए भी, नारी भाव क्षेत्र में वरिष्ठ है।

December 1972

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नर और नारी यों दोनों ही अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। दोनों का अपना महत्व और स्तर है। दोनों के परस्पर सम्मिश्रण सहयोग से ही अपूर्णता का पूर्णता में विकास होता है।

पिछले दिनों यह मान्यता चली आ रही कि नर वरिष्ठ और नारी कनिष्ठ है। यह बात कठोर शारीरिक श्रम की क्षमता के क्षेत्र में ही सही उतरती है। बाकी 99 प्रतिशत क्षेत्रों में गलत है। नारी की प्रजनन गरिमा के कारण उसका शारीरिक दृष्टि से थोड़ा दुर्बल होना स्वाभाविक है। मासिक धर्म में उसे हर महीने अपने शरीर में से कुछ घटाना पड़ता है। गर्भधारण और दूध पिलाने में भी उसका शरीर निचुड़ता है। पुरुष को इस प्रकार खर्च नहीं करना पड़ता, इसलिए वह शारीरिक दृष्टि से मजबूत बना रहता है। नारी अपने शरीर का एक अंश सृष्टि संचालन के लिए निरन्तर समर्पित करती रहती है उसके इस त्याग-बलिदान ने ही सृष्टि क्रम को जीवित रखा है। दानी अपेक्षाकृत निर्धन ही रहता है। ऋषि और सन्त लेते कम और देते ज्यादा थे, इसलिए उनके शरीर दुर्बल रहते थे। तपस्वियों की काया नहीं आत्मा बलिष्ठ होती है नारी की गणना इसी वर्ग में आती है। उसकी शारीरिक दुर्बलता के पीछे जो महान कारण सन्निहित हैं, उन्हें देखते हुए उसकी पुरुष की तुलना में थोड़ी कमजोरी रहना वन्दनीय, प्रशंसनीय है। उस स्तर का त्याग करने का अवसर न मिलने से पुरुष धनी, सम्पन्न लोगों की तरह भले ही थोड़ा बलिष्ठ बना रहे पर कारणों को देखते हुए श्रद्धाभिवन्दन नारी का ही किया जायेगा। पुरुष अपनी शारीरिक बलिष्ठता से कायिक भौतिक लाभ उठाता रहे, इतना ही उसके लिए क्या कम है।

स्त्री और पुरुष के शरीर की संरचना में प्रकृति ने थोड़ा अन्तर रखा है। भावना प्रधान होने के कारण सम्भवतः कठोर कार्य करने का भार उस पर न पड़े इस दृष्टि से यह प्रकृति का कोई पक्षपात या अन्याय नहीं है। वरन् यह प्रयोजन है कि जिसका जो क्षेत्र है वह उसी अनुपात में आवश्यक सामग्री प्राप्त करे। पुरुष को कठोर शारीरिक परिश्रम करने के लिए प्रकृति ने उपयुक्त समझा है इसलिए उसकी शरीर रचना में उसी प्रकार की विशेषतायें भरी गई हैं। पुरुष श्रम प्रधान-नारी भावना प्रधान बनाकर प्रकृति ने दोनों के समन्वय से अपूर्णता को पूर्णता में बदलने का प्रयत्न किया है, पारस्परिक निर्भरता भी उसका एक कारण हो सकती है। दोनों अपने को अपूर्ण समझें और मिलकर पूर्णता प्राप्त करें अथवा दोनों अपने को एक अतिरिक्त सम्पदा का धनी मानकर एक दूसरे को कृपा पूर्वक उससे लाभान्वित करने का गर्व गौरव अनुभव करें। वैसे आवश्यकता इसकी भी नहीं है। न कोई अपने को अभाव ग्रस्त समझे न गर्व करे। परस्पर आत्म समर्पण का आनन्द लेने के लिए स्वेच्छा से विवशता से अथवा प्रकृति प्रेरणा से दोनों समन्वयात्मक जीवन जियें, भिन्नता के सम्मिश्रण की एक अभिनव प्रक्रिया अपनाकर दोनों आनन्द उल्लास भरे सर्वांगपूर्ण जीवनक्रम अपनाएं, यह भी इस भिन्नता का प्रयोजन हो सकता है।

शरीर की दृष्टि से नारी नर की तुलना में कुछ हलकी पड़ती है पर भावना की दृष्टि से इतनी भारी है कि उसकी तोल में दस नरों की भाव सम्पदा मिलकर भी हलकी पड़ेगी।

मृत शरीर के अस्थि पिंजर को देखकर नर नारी की परख आसानी से की जा सकती है। क्योंकि उनकी बनावट में थोड़ा अन्तर प्रकृति ने ही रख छोड़ा है। नारी की हड्डियाँ पुरुष की अपेक्षा छोटी, चिकनी और सरल होती हैं। मस्तक की ऊंचाई कम, नीचे का जबड़ा हलका दाँत छोटे, ठोड़ी ऊँची, सीने की बीच की हड्डी (स्टर नम) छोटी तथा टेढ़ी, छाती पतली, रीढ़ की हड्डियों के गुटके गहरे, देखकर नारी का अस्थिपंजर पहचाना जा सकता है। लम्बाई भी पुरुष की तुलना में कम होती है। माथे की हड्डियाँ अपेक्षाकृत कम मजबूत और कम कड़ी होती हैं। आँखें के गड्ढे अण्डाकृति, गहराई कम, वक्षस्थल की अस्थि दीवार पुरुष की अपेक्षा कुछ अधिक फैली होती है। गले के नीचे वक्षस्थल से थोड़ा ऊपर दोनों पार्श्वों में दो ‘क्लेविकल’ हड्डियाँ होती हैं। वे भी अपेक्षाकृत चिकनी, पतली तथा टेढ़ी होती हैं।

स्त्रियों के हाथ पुरुष की तुलना में छोटे होते हैं किन्तु तर्जनी लम्बी और अँगूठा छोटा होता है। सन्धियाँ छोटी होती हैं। मेरुदण्ड पुरुष का प्रायः 2 फुट 4 इंच होता है जबकि औसत स्त्री का 2 फुट ही पाया जाता है।

स्त्रियों का वस्ति गह्वर 90-100 होता है जबकि पुरुष का 70-75 ही पाया जाता है। उरु अस्थि पुरुष की 47-3 और नारी की 41-3 होती है। पैर की अस्थि (टीबिया) पुरुष की 78-5 और नारी की 67-8 होती है। पैर कुछ छोटे होते हैं। पैर की मध्यमा उँगली तो निश्चित रूप से छोटी और सीधी होती है। पेट का फैलाव इसलिए अधिक रहता है कि उसमें भ्रूण का निर्वाह ठीक तरह हो सके।

नारी की माँस पेशियों में जल का अंश अधिक रहता है और वे कोमल होती हैं। मस्तिष्कीय पदार्थ पुरुष का 49 औंस और नारी का 44 औंस पाया जाता है। छोटा मस्तिष्क पुरुष में 1 औंस 8॥ ड्राम और स्त्रियों का 1 औंस 8। ड्राम होता है। हृदय पिण्ड पुरुष का 10 से 12 औंस और स्त्रियों का 8 से 10 औंस होता है। फेफड़े का वजन पुरुष का 1400 ग्राम और स्त्री का 1260 ग्राम अनुपात में पाया गया है। गुर्दे पुरुष के 4॥ से 6 औंस तक और नारी के 4 से 5॥ औंस तक होते हैं। पुरुष की मूत्र नली 8-9 इंच लम्बी और स्त्रियों की 1॥ इंच भर होती है।

आहार अपेक्षाकृत वे एक चौथाई कम करती हैं। शरीर का ताप पुरुष से अधिक होता है। 30 वर्षीय प्रौढ़ नारी में 17 वर्ष के किशोर लड़के की बराबर बल होता है। नाड़ी स्पन्दन प्रति मिनट नर का 70 और नारी का 80 रहता है। श्वास नर के 15 मिनट और नारी के 17 चलते हैं। माँस पेशियों का वजन पुरुष में 400 और स्त्रियों में 350 होता है। स्वप्न भी वे ही अधिक देखती हैं। ऋतु प्रभाव वे कम सहन कर पाती हैं और मानसिक दबाव अधिक पड़ने पर हिस्टेरिया की शिकार हो जाती हैं, पुरुषों में यह रोग कम होता है।

नारी के यौवन के उभार का अधिक प्रभाव उसकी थाइराइड ग्लेण्ड पर अधिक पड़ता है। उसके यौवन अंगों में तेजी से उभार आता है। इस ग्रन्थि के विकास पर ‘नारीत्व’ की प्रवृत्ति बहुत कुछ अवलम्बित रहती है। यह विकसित न हो तो उसे गृहस्थ की बात सुहाती ही नहीं।

स्वस्थ पुरुष में रक्त का वजन 1060 और स्त्रियों में 1050 पाया जाता है। रक्त कणों का औसत पुरुषों में 50 लाख और स्त्रियों में 45 लाख पाया गया है। स्वर यन्त्र पुरुषों का बड़ा और कड़ा होता है नारी का छोटा और कोमल।

यह अन्तर इसलिए भी है कि दोनों का परस्पर घनिष्ठ सहयोग रहते हुए भी कार्यक्षेत्र पृथक पृथक बना रहे। नारी विश्व का- व्यक्ति का- भावनात्मक उत्कर्ष बनाये और बढ़ाये रहे। नर सम्पदा एवं सुविधा उपार्जन करता है। नारी की वरिष्ठता अध्यात्म क्षेत्र में है वह भाव स्तर का नेतृत्व करती है पुरुष की कठोरता उसे भौतिक क्षेत्र संभालने की सुविधा देती है।

वस्तुतः सन्त, ब्राह्मण, गुरु अध्यात्म क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में भी दार्शनिक नेतृत्व का पद नारी को ही दिया जाना चाहिए। क्योंकि जिसके पास भावनाओं का बाहुल्य हो वही उन्हें दूसरों को प्रदान भी कर सकता है। जिसके पास जो पूँजी स्वतः ही स्वल्प है वह उसे देगा कहाँ से और कैसे?

शारीरिक अन्तर की प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था इसलिए भी है कि नारी कठोर श्रम के कार्यों में प्रवृत्त होकर अपनी विशेषतायें खोने न लगे। पुरुष को युद्ध, कूटनीति, दण्ड दमन, उपार्जन जैसे संघर्षात्मक कार्य करने पड़ते हैं। फलतः वह शरीर की दृष्टि से ही नहीं मन की दृष्टि से भी कठोर हो जाता है। यही अभिशाप नारी भी अपने कन्धों पर उठाने लगे तो उसकी अपनी गरिमा जो पुरुष के पौरुष या पोरुष्य से कहीं अधिक महत्व पूर्ण है, घटने लगेगी और विश्व को एक अपूरणीय क्षति उठानी पड़ेगी। नर को अपनी कठोरता एवं शारीरिक बलिष्ठता के आधार पर अपने को हर क्षेत्र में वरिष्ठ कहलवाने का अधिकार नहीं है। भावना क्षेत्र में तो उसी की गरिमा असंदिग्ध रूप से बढ़ी-चढ़ी है।

नारी के अन्तःकरण में कोमलता, करुणा, ममता सहृदयता एवं उदारता की पाँच देव प्रवृत्तियाँ सहज स्वाभाविक रूप से अधिक हैं। इसलिए उसे देवी शब्द अलंकार से सम्मानित किया जाता है। कमला देवी, दुर्गा देवी आदि नारी के भारतीय नामों में देवी अलंकार यथार्थ ही जुड़ा हुआ है। उसमें जन्म-जात रूप से यह देव तत्व पुरुष की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में विद्यमान है। यदि यह बाहुल्य न होता तो वह पत्नी का समर्पण परक, माता को जान जोखिम में डालने जैसी बलिदानी प्रक्रिया, बहिन और पुत्री की अन्तरात्मा को गुदगुदा देने वाली विशेषता कैसे सम्भव होती। उसके इन दैवी गुणों ने ही उसे इस प्रकार का परमार्थ परायण तपस्वी जीवन जी सकने की क्षमता प्रदान की है।

भौतिक विशेषतायें-नर में हो सकती हैं पर आत्मिक महानता की दिव्य सम्पदा में वह नारी से कहीं पीछे है। इसलिए जब कभी भाव परिवर्तन की आवश्यकता व्यक्तिगत अथवा सामूहिक जीवन में अनुभव की जाती है तब सदा उसी को आगे किया जाता है, उसका नेतृत्व स्वीकार किया जाता है। उसी का द्वार खटखटाया जाता है, उसका नेतृत्व स्वीकार किया जाता है। पौराणिक शक्ति गाथाओं में- कर्मकाण्ड परक शक्ति पूजा में, इस रहस्य में, तथ्य कूट-कूट कर भरा हुआ है। हमें नारी की गरिमा समझनी ही नहीं, विकसित भी करनी होगी और कार्यान्वित भी।


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