मंत्रशक्ति ही देवमाता- कामधेनु है।

December 1972

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श्रुति कहती है-

देवी वाचमजनयन्त देवास्ताँ,

विश्वरुपाः पशवो वदन्ति।

सा नो मंद्रेष्षमूर्गं दुहाना,

धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुवैतु॥

परावाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही है। यही विज्ञान है। इस कामधेनु वाक् की शक्ति से हम जीवित हैं। उसी के कारण हम बोलते और जानते हैं।

शब्द के दो रूप हैं एक जो जीभ से बोला जाय है। कान से सुना जाता है। जिससे अर्थ का बोध होता है। एवं उस शब्द के साथ जुड़ा हुआ रूप या प्रसंग स्मृति पटल पर प्रस्तुत होता है। वैसे उच्चारित शब्दों को बैखरी संज्ञा दी जाती है। लोक प्रयोजन में वाणी का यही व्यवहार होता है।

दूसरा वह जिसे परावाक् कहते हैं। यह अन्तःकरण में भावना के ज्ञान एवं इच्छा के रूप में अवस्थित रहती है। यह शक्ति रूप में है। इसमें प्रेरणा भरी पड़ी है। बुद्धि इसी की अनुचरी है, मन इसी का सेवक चित्त इसी का पार्षद है। अन्तरंग मर्मस्थल में जो भाव उमड़ते हैं, उन्हें साकार करने के लिए-साधन जुटाने के लिए मन और बुद्धि को लगा रहना पड़ता है। जिसमें कि अन्तरंग में अवस्थित परावाक् की प्रेरणा से मन और बुद्धि दिशा ग्रहण करते हैं। मनुष्य जो कुछ सोचता है- करता है- बनाता है- पाता है उसे परावाक् का ही प्रसाद कहना चाहिए।

शरीर को, आहार विहार को स्वस्थ समुन्नत बनाया जाता है। मन, मस्तिष्क, अध्ययन, सान्निध्य, चिन्तन एवं अनुभव के आधार पर विकसित होता है। अन्तःकरण की अभिव्यंजना परावाक् को स्वस्थ, शुद्ध समुन्नत एवं सशक्त बनाने के लिए साधना करनी पड़ती है। साधना शारीरिक बलवर्धन के लिए भी होती है और मस्तिष्क को विकसित करने के लिए भी। व्यायाम, अध्ययन आदि को शरीर एवं मन की साधना कह सकते हैं। यदि इनका अवलम्बन न लिया जाय तो वे दोनों अविकसित पड़े रहेंगे। भगवान ने अनेक क्षमताओं से सम्पन्न शरीर और अनेक सम्भावनाओं से युक्त मन हमें दिया है पर यदि उन्हें व्यवस्थित एवं समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न न किया जाय तो वे अवाँछनीय दिशा में चलकर विकृत, भ्रष्ट एवं अधःपतित भी हो सकते हैं। रोग शोक से घिरे सकते हैं। इसी प्रकार अन्तःकरण को उसकी ऊर्जा-परावाक् को परिष्कृत न किया जाय तो वह अधोगामी ही असुरता ग्रस्त हो सकती है। जिस प्रकार आलसी और प्रमादी अन्तःकरण को सुसंस्कृत, परिष्कृत, समुन्नत बनाने का प्रयास छोड़ देने से मनुष्य पशु एवं पिशाच जैसी स्थिति में जा पहुँचता है। असुरता से आच्छादित अन्तःकरण दुर्भावनाओं से- दुर्बुद्धि एवं दुष्प्रवृत्तियों से भरा रहता है। स्वयं उद्विग्न रहता और दूसरों को कष्ट देता है।

शरीर और मन को समुन्नत स्थिति में रखने के लिए किये जाने वाले विविध विध प्रयासों से भी अधिक आवश्यकता अन्तःकरण के सुधार परिष्कार की है। यही प्रयोजन परावाक् साधना से पूरा होता है। मन्त्र विज्ञान का यही प्रयोजन है। उससे परावाक् के मर्मस्थल का स्पर्श किया जाता है और परिष्कार का साधन जुटाया जाता है।

श्रुति कहती है -

पाक्का नः सरस्वती वाजभिर,

वाजिनीवती, धोनामवित्र्यवतु।

तप से पवित्र हुई वाक् पवित्रता, पुष्टि, प्रतिभा, प्रज्ञा तथा प्रेरणा प्रदान करती है। परावाक् के तप प्रयोजन को ही मन्त्र साधन कहते हैं। स्थूल बैखरी वाणी से उच्चारित और मध्यमा से ध्यान सम्बद्ध सूक्ष्म परा पश्यंती वाणियों को जागृत करता है। इस प्रकार जब चारों वाणियाँ सक्रिय हो उठती हैं और उर्ध्वगामी बनती हैं तो जीव ही ब्रह्म बन जाता है। ब्रह्म देवता के चार मुख हैं। उन्होंने चारों वेदों का सृजन प्रवचन किया। यह चतुर्धा प्रकटीकरण वस्तुतः बैखरी, मध्यमा, परा और पश्यंती वाणियों का ऊर्ध्वगामी उभार मात्र है। यह ब्रह्म देवता के लिए भी सम्भव है और आत्म देवता के लिए भी पुराणों में कथा है कि विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल नाल पर ब्रह्मा जी कई बार उतरे और चढ़े। मन्त्र साधन में यही होता है। स्थूल शब्द उच्चारित होकर अन्तःकरण के मर्म स्थल की गहराई में उतरता है और उस शक्ति स्रोत की ऊर्जा से सम्पन्न होकर ऊपर आता है। जब वह ऊपर आता है तो बैखरी में पश्यंती का वैसा ही प्रभाव होता है जैसा बिजली के संपर्क में धातु के तार में। वह मन्त्रपूत शब्द समस्त सृष्टि में हलचल उत्पन्न करता है, सूक्ष्म जगत को स्पन्दित करता है और व्यक्ति को व्यक्ति मात्र न रखकर उसे देवी शक्ति सम्पन्न बना देता है।

हम सब गायत्री का जप करते हैं पर यह स्थूल बैखरी वाणी का स्पन्दन मात्र होकर रह जाता है। फलतः उसका वह प्रभाव नहीं होता जो होना चाहिए। महर्षि विश्वामित्र ने इसी गायत्री मन्त्र की साधना की। उस शक्ति का साक्षात्कार किया और वैसी ही सामर्थ्य से सम्पन्न हो गये जैसी कि इस महाशक्ति के महात्म्य में बताई गई है। मन्त्र साधना वाणी का तप है। स्थूल की सूक्ष्म में परिणति है। अंतर्दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करना है। कुँए में घड़ा फाँसना और खींचना तप है। जल भरा हुआ घड़ा फाँसना और खींचना तप है। जल भरा हुआ घड़ा हाथ में आता है तब वह सिद्धि है। साधना और सिद्धि का यही अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। मन्त्र साध्य को मन्त्र साध्य मनाने की इस अनूठी प्रक्रिया का रहस्य जो जानते हैं वे भौतिक उपकरणों के -साधनों को मान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा जो पाया जाना सम्भव है, उसे माँत्रिक साधना पद्धति से प्राप्त कर लेते हैं। उनका साधना तप ही लौटकर सिद्धि भाण्डागार के रूप में परिलक्षित होता है।

शब्द को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। यह शब्द ब्रह्म परावाक् का मर्मस्थल है। यह प्रायः क्षीर सागर में प्रसुप्त पड़ा रहता है पर जब जागृत होता है तो उसके स्पन्दन से यह सारा विश्व गतिशील हो उठता है। श्रुति वाक् को हृदयस्पर्शी बताती है। यह हृदयस्पर्शी स्वरूप स्वर्ग, मुक्ति तथा ब्रह्म निर्वाण है। यह स्पर्श अनुभव की संभूति ऋद्धि सिद्धियों का भण्डार है। यह रूप अनुभव देवताओं का साक्षात्कार अनुग्रह एवं वरदान है। यह सब वाक् शक्ति की ही प्रतिक्रिया-प्रतिध्वनि है।

वाक् , रूप, रस गंध, स्पर्श का अनुभव करता है। शब्द रूपी आकाश से ही वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी तत्व का आविर्भाव हुआ है, इसी से वाक् को विश्व रूपिणी बहु रूपिणी और देव शक्तियों की उसे अधिष्ठात्री कहा जाता है। अग्नि भू लोक है। वायु-भुवः लोक और वरुण स्वः लोक। बैखरी जब मन्त्र साधन द्वारा सूक्ष्म होती चलती है तो तीनों लोकों पर उसका अधिकार होता चला जाता है। लोक लोकान्तर में जो कुछ विद्यमान है उसके सम्बन्धित होती है- प्रभावित करती, नियन्त्रण रखती है और संचालन करती है परिष्कृत परावाक्। जिह्वा से उच्चारित बकवास में प्रयुक्त होती रहने वाली प्रक्रिया जब उलट कर मन्त्र साधना में लगती है तब वह शक्ति रूप होती है। शक्ति भी ऐसी जिसकी परिधि में वह सब कुछ आ जाता है जिसे अद्भुत एवं महान कह सकते हैं।

यह परिष्कृत वाक् जब यज्ञाग्नि से संयुक्त होती है तब उसी प्रचण्ड शक्ति को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। घृत को अग्नि में डालते ही उसकी परिणति ज्वाला के रूप में होती है। परावाक् जब यज्ञ कर्मों में जुटती है तो उसकी दीप्ति से अन्धकार में भटकता हुआ जगत दिव्य आलोक का लाभ प्राप्त करता है और शोक संतापों से छूटकर श्री, समृद्धि, शान्ति और प्रगति की ओर अग्रसर होता है। यज्ञ का सूक्ष्म रूप है- परमार्थ लोक मंगल। जब साधना संतप्त वाक् को परमार्थ प्रयोजन में लगाया जाय तो सच्चे अर्थों में उसे ब्रह्मयज्ञ कहना चाहिए। ब्रह्म अग्नि में ब्रह्म हवि देने की चर्चा गीता में इस संदर्भ में की गई है। ऐसे ब्रह्म यज्ञ से सुख शान्ति भर पर्जन्य बरसते हैं। चरु यज्ञों द्वारा भौतिक प्रयोजन पूरे होते हैं- भौतिक समृद्धि के मेघ भी बरसते हैं पर श्रुति ने जिस पर्जन्य वर्षा की और संकेत किया है उसे विश्व शान्ति और लोक कल्याण की उपलब्धियों के रूप में ही देखा समझा जाना चाहिए।

विश्वव्यापी स्थूल ऊर्जा विद्युत, चुम्बक, गर्मी प्रकाश आदि के रूप में देखी जा सकती है। शक्ति के कम्पन परमाणु को प्रभावित करते हैं और उसके कारण दृश्य जगत की विभिन्न हलचलों का क्रिया-कलाप चलता है जीवाणु भी किन्हीं दिव्य विद्युत शक्तियों से प्रभावित होते हैं। मानवी चेतना में जो दीप्तिमान अंश है उसे दिव्य सत्ता का स्पन्दन कहना चाहिए। यह स्पन्दन ब्रह्म सत्ता प्रवाहित भी होते हैं और आत्म सत्ता प्रवाहित भी ईश्वर की इच्छा से यहाँ सब कुछ होता है। यह कहते हुए हमें यह भी समझना होगा कि आत्म सत्ता का परिष्कृत रूप ब्रह्म सत्ता ही है। निर्विकार साक्षी और दृष्टा ब्रह्म संसार में इच्छा बनकर जो कुछ करता है वस्तुतः वह उसके समतुल्य आत्म सत्ता का ही प्रवाह होता है। मन्त्र तप से साधित परावाक् अपनी विशुद्धता एवं प्रखरता के कारण ब्रह्म इच्छा ही बन जाती है। उसके स्पन्दन जगत के जीवाणुओं को स्पन्दित करते हैं। तदनुसार लोक प्रवाह की दिशा बदल जाती है। देवदूत, अवतारी महामानव यही करते हैं। इनके कर्तव्य ईश्वर की इच्छा या इनकी इच्छा से ईश्वर का विधान जुड़ा हुआ देखा जा सकता है। सिद्ध तपस्वियों की यही स्थिति होती है। उनकी परावाक् उच्चारण का ही नहीं संचालन और नियन्त्रण का भी प्रयोजन पूरा करती है।

जिस तरह ब्रह्माण्ड का बीज पिण्डाण्ड है, उसी प्रकार व्यष्टि का विराट् रूप समष्टि भी है। व्यक्ति की सत्ता को ब्रह्माण्ड की परिस्थितियों द्वारा विनिर्मित माना जाता है। साथ ही यह भी कहा गया है कि बीज जैसा पिंड विकसित रूप में ब्रह्मांड बन जाता है। दोनों के बीच वृक्ष और बीज जैसा सम्बन्ध है। यह ठीक है कि बीज से वृक्ष बनता है पर यह भी गलत नहीं कि वृक्ष पर बीज उत्पन्न होता है, ब्रह्माण्ड की परिस्थितियों ने व्यक्ति को बनाया है पर व्यक्ति का चरम विकास भी विराट् ब्रह्माण्ड होता है। छोटा गुब्बारा फूलकर बड़ा बनता है। परावाक् उसी वायु का नाम है जो व्यक्ति जैसे छोटे गुब्बारे को फुलाकर विराट् बना देती है और ब्रह्मा की तुलना में ला खड़ा करती है। परमाणु की शक्ति बड़ी है पर जीवाणु की शक्ति उससे भी बड़ी है। इंजन बड़ा है पर ड्राइवर उससे भी बड़ा है। परमाणु जिन शक्तियों से स्पन्दित होते हैं उन्हें स्पन्दन करने की क्षमता उस चेतनशक्ति में सन्निहित है जिसे जीवाणु की विराट्सत्ता कहा जा सकता है। श्रुति कहती है -

विष्णुमुखा वै देवाइछन्दोभि रिमान्लोकानन पजप्यमभ्यजपन्।

देवता विष्णु मुख हैं। वे छन्द रूप हैं। उन्होंने न हटाया जा सकने वाला हटाया है और न जीता जा सकने वाला जीता है। यह मन्त्रात्मा और विश्वात्मा की एकता प्रकट करने वाला प्रतिपादन है।

मन्त्रों के शब्दार्थ से उनकी महत्ता सम्बन्धित नहीं। कोई अति शक्तिशाली मन्त्र अर्थ की दृष्टि से अति सामान्य हो सकता है। कोई भाषा गीत ऐसी अभिव्यक्ति युक्त हो सकता है जो मन्त्रों में दृष्टिगोचर नहीं होती हो। पर इससे मन्त्र का महत्व कम नहीं होता। अभिव्यक्ति नहीं, मन्त्र की महत्ता उसकी शक्ति संरचना से समाविष्ट है। मन्त्रों को स्वर शास्त्र या ध्वनि शास्त्र माना जाना चाहिए उसके उच्चारण से जो स्पन्दन गतिशील होते हैं उन्हीं में उनकी महिमा समाई हुई है। विभिन्न धर्मों में उनके परम्परागत मन्त्रों से ही उपासनायें तथा कर्मकाँडात्मक प्रक्रियायें सम्पन्न होती हैं। इसमें शब्द विन्यास की ही प्रधानता है। अर्थ की दृष्टि से, उस शब्दावली को सामान्य अथवा स्वल्प सार भी कह सकते हैं।

मंत्रों में चार शक्तियाँ मानी गई हैं (1) प्रामाण्य शक्ति (2) फल प्रदान शक्ति (3) बहुलीकरण शक्ति (4) आयातयामता शक्ति। इसका विवेचन महर्षि जैमिनी ने पूर्व मीमाँसा में किया है। उनके कथानुसार मन्त्रों की प्रामाण्य शक्ति वह है जिसके अनुसार शिक्षा, सम्बोधन आदेश का समावेश रहता है। इसे शब्दार्थों से सम्बन्धित कह सकते हैं।

कुण्ड समिध, पात्र पीठ, आज्य चरु, हवि, पीठ आदि को अभिमन्त्रित करके उनके सूक्ष्म प्राणों को प्रखर करने का विधान, मन्त्रोच्चार, कर्मकाँड, न्यास, ऋत्विजों को मनोयोग, ब्रह्मचर्य तप आहार, आदि विधि-विधान से मन्त्र की फलदायिनी शक्ति सजग होती है। सकाम कर्मों में मन्त्र की यह शक्ति विभिन्न क्रिया कृत्यों के सहारे सजग होती है और अभीष्ट प्रयोजन पूरे करती है।

तीसरी शक्ति है ‘बहुलीकरण’ अर्थात् थोड़े को बहुत बनाना। यज्ञ में होमा हुआ जरा-सा पदार्थ वायुभूत होकर समस्त विश्व में फैल जाता है। पानी के ऊपर जरा सा तेल डाल देने से पानी की सारी सतह पर फैल जाता है तनिक सा विष सारे शरीर में फैल जाता है। उसी प्रकार साधक का शरीर, मंत्रोच्चार एवं साधन में काम आने वाले अंग जरा से होते हैं पर उनके घर्षण से उत्पन्न शक्ति, दियासलाई से निकलने वाली चिनगारी की तरह नगण्य होते हुए भी दावानल बन जाने की सामर्थ्य से ओतप्रोत रहती है। एक व्यक्ति की मन्त्र साधना अनेक व्यक्तियों को तथा पदार्थों को परमाणु जीवाणुओं को प्रभावित करती है तो वह बहुलीकरण शक्ति ही काम कर रही होती है।

चौथी आयातयामता शक्ति किसी विशेष क्षमता सम्पन्न व्यक्ति द्वारा विशेष स्थान पर विशेष व्यक्ति की सहायता से, विशेष उपकरणों के सहारे विशेष विधि विधान के साथ मन्त्रोपासना करने पर विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। विश्वामित्र और परशुराम ने गायत्री मन्त्र की साधना, विशेष प्रयोजन के लिए, विशेष विधि विधानों के साथ की थी और उससे उन्होंने अभीष्ट परिणाम भी प्राप्त किये। दशरथ जी का पुत्रेष्टि यज्ञ वशिष्ठ जी पूरा न करा सके तब शृंगी ऋषि ने उसे सम्पन्न कराया, यह शृंगी ऋषि की आयातयामता शक्ति ही थी।

मन्त्र साधक का शरीर संयमी और मन एकाग्र होना चाहिए। बिखरती शक्तियों वाला साधक छूँछ होता है और वह मन्त्र तेज को अपने गर्भ में धारण नहीं कर सकता। रुग्ण स्त्री को गर्भपात होते रहते हैं वह स्वस्थ बालक को जन्म नहीं दे पाती यही गति असंयमी साधक की होती है। महाभारत की कथा है कि अश्वत्थामा और अर्जुन ने मन्त्र चालित ‘सन्धान अस्त्र’ छोड़े। उनकी भयंकरता को देखकर व्यासजी बीच में आ खड़े हुए और दोनों से अपने अस्त्र वापिस कर लेने को कहा। अर्जुन ने ब्रह्मचारी होने के कारण वापिस कर लिया पर अश्वत्थामा असंयमी होने के कारण असफल रहा।

शतपथ का एक उपाख्यान है नृमेध और यरुच्छेप में विवाद हुआ कि दोनों में कौन सफल माँत्रिक है। नृमेध के कण्ठ में धुँआ भर निकला पर यरुच्छेप ने मन्त्रोच्चार करके गीली लकड़ी में अग्नि प्रकट कर दी। उस पर यरुच्छेप ने कहा तू मन्त्रोच्चार भर जानता है मैंने उसकी आत्मा का साक्षात्कार किया है।

कौत्स मुनि ने मन्त्रों को अनर्थक माना है। अनर्थक का अर्थ यह है उनके अर्थ को नहीं ध्वनि प्रवाह को, शब्द गुन्थन को महत्व दिया जाना चाहिए। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं आदि बीज मन्त्रों के अर्थ से नहीं ध्वनि से ही प्रयोजन सिद्ध होता है। नैषध चरित्र के 13 वें सर्ग में उसके लेखक ने इस रहस्य का और भी स्पष्ट उद्घाटन किया है। संगीत का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर जो असाधारण प्रभाव पड़ता है उससे समस्त विज्ञान जगत परिचित है। एक नियत गति से शीशे के गिलास के पास ध्वनि की जाय तो वह टूट जायेगा। पुलों पर चलते हुए सैनिकों को कदम मिलाकर चलने की ध्वनि नहीं करने दी जाती उस तालबद्ध ध्वनि से पुल गिर सकता है। इंडेन में ‘स्टोन हैव्ज’ के पुराने अवशेष मध्यम स्वर बजने पर काँपने लगते हैं। इसलिये वहाँ न केवल बजाना वरन् गाना भी निषिद्ध है क्योंकि वह तालबद्धता उन अवशेषों को गिरा सकती है। इसी ध्वनि विज्ञान के आधार पर मन्त्रों की रचना हुई है। उनके अर्थों का उतना महत्व नहीं इसी से कौत्स मुनि ने उन्हें अनर्थक बताया है।

अग्नि शक्ति का केन्द्र है। अग्नि का प्रयोग सीखकर ही मनुष्य इतना समर्थ बना है। अग्नि के भय से हिंसक सिंह, व्याघ्र तक भागते हैं। अग्नि से रेल चलती है, जहाज उड़ते हैं, कारखाने चलते हैं, अस्त्र चलते हैं, भोजन पकता है, बिजली बनती है, यदि अग्नि का अस्तित्व न हो तो जीवन ही न रहे। अग्नि का ही दूसरा नाम जीवन है। इसलिए मन्त्र साधना में अग्नि का उपचार सम्बद्ध किया जाता है। यज्ञशालाओं में अखण्ड अग्नि, जप में अखंड दीपक तथा अनुष्ठान की पूर्ति पर अनुपातिक यज्ञ करने का विधान है। विभिन्न पर्वों तथा धर्मानुष्ठानों के अवसर पर अग्निहोत्र की आवश्यकता इसीलिए है कि उस संदर्भ में प्रयुक्त होने वाली मंत्रशक्ति अपना समुचित चमत्कार दिखा सके।


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