श्रुति कहती है-’वैषम्य नैघृण्ये न सापेक्ष्त्वात्, तथा हि दर्शयति’- परमात्मा के न पक्षपात है और न क्रूरता किन्तु उसे प्राणियों के धर्म अधर्म की अपेक्षा रहती है वह शरीरधारियों के शरीरों की रचना करता है, उनमें अवस्थित रहकर उनकी जीवन प्रणाली का संचालन करता है। इससे अधिक वह और कुछ भी नहीं करता। कर्म करने की स्वतन्त्रता देकर वह जीवों के कर्मों का दृष्टा भर बनकर रहता है। कर्म जीव के अधीन है और फल ईश्वर के, जीव के कर्म ही उसे शुभ अशुभ परिणाम भोगने-विभिन्न योनियों में जाने के लिए विवश करते हैं। उन्नति और अवनति का, सुख और दुख का कारण भी वह स्वयं ही है, इसमें न तो ईश्वर का पक्षपात है और न क्रूरता।
अन्तः प्रेरणा के धागे से बँधा हुआ शरीर और मन कर्म करता है और उन कर्मों से जुड़ी हुई उचित अनुचित की प्रक्रिया जीवन का भला बुरा स्वरूप विनिर्मित करती है। इसी दृश्य जीवन का परिणाम परिपाक सुखदायी अथवा दुखदायी परिस्थितियों के रूप में सामने आता है। यही है देवी शाप वरदान। इसे ईश्वर की इच्छा या विधान कहा जाता है। इस कथन से इतना ही सत्य है कि ईश्वर की इच्छा यही रही है कि अन्तः संस्थान को जो जिस स्तर का बनाये उसकी क्रिया प्रक्रिया उसी स्तर की बने और तदनुसार ही उसे फल भोगने पड़ें। इस विधि व्यवस्था को ईश्वर इच्छा कहा जाय तो उचित है, किन्तु यदि अन्तःप्रेरणा को भला बुरा बनाना या किसी को शुभ किसी को अशुभ मार्ग पर चलने के लिए- सुख या नरक में गिरने को बलात् घसीटने वाली ईश्वर इच्छा की बात कही जाय तो वह पूर्णतया असत्य है। इससे तो ईश्वर अन्यायी-पक्षपाती और अन्धेर, अव्यवस्था फैलाने वाला मनमौजी कहा जायेगा। जबकि वह वैसा है कदापि नहीं। ईश्वर इच्छा इतनी ही है कि आत्म विधातकों और आत्म निर्माताओं को यथोचित दण्ड पुरस्कार मिलने की विधि व्यवस्था सुनिश्चित और सुव्यवस्थित रीति से चलती रहे।
बन्धन और मोक्ष का कारण मन है मन का बिगाड़ और सुधार ही पतन एवं उत्थान का कारण है। मन ही हमें स्वर्ग और नरक की सैर कराता है इसलिए तत्वदर्शन सारा प्रयास व्यक्ति को मन का परिष्कार करने की प्रेरणा देने पर केन्द्रित है।
गीता कहती है-
मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय विषयासक्त मुक्तयै निर्विषयं स्मृतम्॥
अर्थात् मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। लिप्सा और लालसाओं में आसक्त मन ही बन्धन का कारण है। विषयासक्ति से विरत मन ही मोक्ष का आधार है।
योग वाशिष्ठ कहती है-
शुद्धो मुक्तः सदैवात्मा नैव वध्येत् कर्हिचित्।
वन्धमोक्षौ मानस्संस्थौ तस्मिन् शान्ते प्रशाम्यतः॥
अर्थात् आत्मा सदा शुद्ध और मुक्त है उसे बन्धन में कौन बाँध सकता है? मन का माया में उलझ जाना ही बन्धन है। जब वह उलझन सुलझकर अशान्ति शान्ति में परिणत हो जाती है तो फिर सर्वत्र शान्ति ही अनुभव होती है।
‘अहं ब्रह्मास्मि’ सूत्र का अर्थ यह है कि मैं ब्रह्म हूँ। पर इसमें यह भाव नहीं है कि केवल मैं ही ब्रह्मा हूँ, और कोई नहीं। वरन् यह प्रतिपादन है कि इस विश्व में सर्वत्र ब्रह्म चेतना ही विद्यमान है और उसका एक घटक होने के नाते में भी ब्रह्म ही हूँ। “एतदात्ममिदं सर्व” यह समस्त विश्व ब्रह्म रूप है। वह सर्वव्यापी ब्रह्म अपने में भी परिपूर्ण है। तब उसे अन्यत्र ढूंढ़ने जाने का श्रम क्यों किया जाय? ब्रह्म जिज्ञासा के लिए उत्सुक श्वेतकेतु को यही बताया गया कि ‘स आत्मा तत्व मसि श्वेतकेतो’ अर्थात् हे श्वेतकेतु वह परम आत्मा तू ही है।
योगवशिष्ठ के अनुसार-भगवान रामचन्द्र जी को संसार से तीव्र वैराग्य हुआ और वे विरक्त जीवन जीने की तैयारी करने लगे तो महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें समझाया-राम तुम संसार का त्याग क्यों करते हो? संसार क्या ब्रह्म से भिन्न वस्तु है?
गन्ध वायु में मिलती है फिर भी वायु निर्लिप्त रहती है। आकाश में गन्ध व धुँआ मिलते रहते हैं किंतु आकाश निर्मल ही रहता है। जगत के प्रपञ्च में लोक व्यवहार करते हुए भी आत्मा की निर्मलता बनी रह सकती है।
सत्ताधिपति घोषित किया गया है।
वेदान्त दर्शन के अनुसार यह ब्रह्म सत्ता तीन प्रकार की है (1) पारमार्थिक (2) व्यावहारिक (3) प्रतिभासिक। निर्गुण, निराकार, अचिन्त्य, सृष्टा, दृष्टा, साक्षी, नियन्ता पारमार्थिक सत्ता है। साकार ईश्वर, जीव, जगत, परलोक स्वर्ग, नरक, शाप, वरदान, अवतार, देव, आदि लोक व्यवहार में प्रयुक्त व्यावहारिक सत्ता है। स्वप्न की तरह वस्तुओं में प्रतिभासित, माया समाविष्ट, प्रतिभासिक सत्ता है। बाजीगर की तरह अपने में से ही विभिन्न पदार्थों का सृजन और अपने में ही लीन करके क्रीड़ा कलोल प्रक्रिया इसी प्रतिभासिक सत्ता का स्वरूप विस्तार है।
वेदान्त की शिक्षा है कि भगवान हममें वैसा ही ओतप्रोत है जैसा कि समस्त विश्व में। उसी की सम्पदाओं का हम उपभोग करते हैं। हम उस सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान सत्ता के ही कलपुर्जे हैं। अविनाशी और अनन्त प्रभु के ही हम परम प्रिय बाल बच्चे हैं।” यह मान्यता यदि गम्भीरता पूर्वक सुनी समझी जाय तो अपने सम्बन्ध में विचार करने के लिए एक नवीन दृष्टि मिलती है। उसी दर्शन को यदि व्यवहार में अपनाया जाय तो फिर दिव्य जीवन ही जिया जा सकेगा। महामानव की भूमिका में ही हमारी गति-विधियाँ चल रही होंगी।
वेद का अर्थ है ज्ञान और अन्त का अन्त है चरम परिणति वेदान्त अर्थात् ज्ञान की चरम सीमा। इस लक्ष्य तक पहुँचकर और कुछ इस जीवन में- इस संसार में प्राप्त करने को शेष नहीं रह जाता। वेदान्त दर्शन किसी सम्प्रदाय, जाति या वर्ग से बँधा हुआ नहीं है। उसे ब्रह्मविद्या की पृष्ठभूमि के रूप में ही माना समझा जाना चाहिए। सबमें एक ही आत्मा को मान लेने के उपरान्त भिन्नता का और कोई कारण नहीं रह जाता। फिर उसे किसी विभेद या वर्ग की सीमा में कैसे अवरुद्ध किया जा सकता है। “एकम् सद् विप्रा वहुधा वदन्ति” उस एक को ही विद्वानों ने अनेक प्रकार से कहा है, का सिद्धान्त मानने वालों को स्वस्थ मतभेद में कुछ आपत्ति हो ही नहीं सकती।